यज्ञ/हवन में मंत्र के अंत में सामग्री यज्ञ कुंड में डालते समय स्वाहा क्यों बोलते है?*
प्रस्तुति: Dr DK Garg
दुष्प्रचार: स्वः स्वाहा अग्नि-देवता अग्नि की पत्नी हैं। उनकी दो पत्नियाँ हैं – स्वाहा और स्वधा। प्रत्येक मंत्र के अंत में “स्वाहा” का जाप करता है ताकि अग्नि अपनी पत्नी के साथ चढ़ाए गए अनाज/घी को स्वीकार कर सके। इस प्रकार अनुष्ठान पूरा होता है।
अन्य विचार : १)अग्निदेव की पत्नी को याद करते हैं। राजा दक्ष की पुत्री थीं, जिसका विवाह अग्निदेव के साथ हुआ. इसीलिए जब भी अग्नि में कोई चीज समर्पित करते हैं, तो उनकी पत्नी को साथ में याद किया जाता है, तभी अग्निदेव उस चीज को स्वीकार करते हैं.
२)दूसरी कथा के मुताबिक एक बार देवताओं के पास अकाल पड़ गया. उनके पास खाने-पीने की चीजों की कमी पड़ने लगी. इस कठिन परिस्थिति से बचने के लिए भगवान ब्रह्मा जी ने एक उपाय निकाला कि धरती पर ब्राह्मणों द्वारा खाद्य-सामग्री देवताओं तक पहुंचाई जाए. इसके लिए उन्होंने अग्निदेव को चुना. उस समय अग्निदेव की क्षमता भस्म करने की नहीं हुआ करती थी इसीलिए स्वाहा की उत्पत्ति हुई. स्वाहा को आदेश दिया गया कि वे अग्निदेव के साथ रहें. इसके बाद जब भी कोई चीज अग्निदेव को समर्पित की जाती थी तो स्वाहा उसे भस्म कर देवताओं तक पहुंचा देती थीं. तब से आज तक स्वाहा हमेशा अग्निदेव के साथ रहते हैं.
३)तीसरी कथा के मुताबिक प्रकृति की एक कला के रूप में स्वाहा का जन्म हुआ था. भगवान कृष्ण ने स्वाहा को आशीर्वाद दिया था कि देवताओं को ग्रहण करने वाली कोई भी सामग्री बिना स्वाहा को समर्पित किए देवताओं तक नहीं पहुंच पाएगी. यही कारण है कि हवन के दौरान स्वाहा जरूर बोला जाता है.
४) कुछ पंडो के अनुसार यज्ञ तब तक पूरा नहीं होता है जब तक हवन का ग्रहण देवता नहीं कर लेते. हवन सामग्री को देवता तभी ग्रहण करते हैं जब अग्नि में आहुति डालते समय स्वाहा बोला जाता है.
विष्लेषण
स्वाहा का वास्तविक भावार्थ :
उपरोक्त सभी कहानियां केवल तुक्केबाजी,अप्रमाणिक है और शास्रोक्त नहीं है। ये अनर्थ किया जाना अज्ञानता का प्रतीक है।
प्रायः यज्ञ में आहुति देते समय ‘स्वाहा’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह स्वाहा शब्द मूल वेद मन्त्रों में भी अनेक बार आया है।
दुर्भाग्य की बात है कि पौराणिक लोग इस स्वाहा के इतने महत्वपूर्ण अर्थ को छोड़कर अपनी काल्पनिक कथा के अनुसार लेते हैं। भागवत पुराण के अनुसार स्वाहा दक्ष की कन्या और अग्नि की पत्नी है जिसके कारण स्वाहा का वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते।
ध्यान रहे कि स्वाहा शब्द मौन नही बोला जाता बल्कि ध्वनि के साथ बोला जाता है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इस स्वाहा शब्द की व्याख्या निरुक्त के आधार पर अपनी लघु पुस्तक पञ्चमहायज्ञविधि में सन्ध्योपासना में की है।
महर्षि दयानन्द के वेदभाष्य व अन्य ग्रन्थों में स्वाहा अर्थ लगभग तरेसठ (63)स्थलों पर आया है जो शास्त्र समत है। यहाँ महर्षि दयानन्द द्वारा कुछ और स्थलों पर स्वाहा के लिए किये गये अर्थों को लिखता हूँ- ‘‘सत्यभाषणयुक्ता वाक्, यच्छोभनं वचनं सत्यकथनं, स्वपदार्थान् प्रति ममत्ववचो, मन्त्रोच्चारणेन हवनं चेति स्वाहा-शदार्था विज्ञेयाः।’’–यजुर्वेद 2.2
जो सत्यभाषणयुक्त वाणी, भ्रमोच्छेदन करने वाला सत्य कथन, अपने ही पदार्थों के प्रति ममत्व अर्थात् अपनी वस्तु को ही अपना कहना और मन्त्रोच्चार के साथ हवन आहुति देना ये सब स्वाहा के अर्थ हैं।
‘‘सुष्ठु जुहोति, गृहणाति, ददाति यथा क्रियया तथा, सुशिक्षितया वाचा, विद्याप्रकाशिकया वाण्या सत्यप्रियत्वादिगुणविशिष्टयावाचा।’’ – यजु. 4.6 जिस क्रिया के द्वारा अच्छे प्रकार ग्रहण किया और दिया जाता है, सुशिक्षा से युक्त, विद्या को प्रकाशित करने वाली, सत्य और प्रियता रूपी गुणों से विशिष्ट वाणी के द्वारा जो क्रिया की जाती है वह स्वाहा कहलाती है।
निरुक्तकार यास्क जी कहते हैं की “स्वाहाकृतयः स्वाहेत्येतस्तु आहेति वा स्वा वागाहेति वा स्वं प्राहेति वा स्वाहुतं हविर्जुहोतीति वा तासामेषा भवति || ||निरुक्त अध्याय 8/खण्ड २०||”
स्वाहा शब्द का संक्षिप्त अर्थ यह है –
१) (सु आहेति वा) सु अर्थात् कोमल, मधुर, कल्याणकारी, प्रिय वचन सब मनुष्यों को सदा बोलना चाहिए |
२)(सवा वागाहेति वा) जो अपनी वाणी ज्ञान में विद्यमान है, वह जो कहती है, वही वागिन्द्रिय से सदा बोलना चाहिए |
३) (स्व प्राहेती वा) स्व अर्थात् अपने पदार्थो को ही अपना कहना चाहिए, दूसरे के पदार्थों को नहीं |
४) (स्वाहुतं हवि.) अच्छी रीति से शुद्ध करके सदा हवि देनी चाहिए |
ये सब महर्षि दयानन्द जी द्वारा किये गये स्वाहा के अर्थ हैं।
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