कन्यादान वास्तविक स्वरुप*

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डॉ डी के गर्ग

कन्यादान एक ऐसा शब्द है जिससे सामान्यतः प्रतीत होता है कि कन्या एक दान देने योग्य वस्तु है। कन्या की अपनी इच्छा का स्वतन्त्रता का कोई महत्व नही। विवाह के मंडप में पण्डित भी सबसे कहता है कि कन्या दान महा पुण्य का कार्य है और इस तरह से कहते हुए वह अनेक लोगों से उसी एक कन्या का दान करवाता है। जैसे यह कोई कन्या नही हुई कोई दान की बछिया हुई जिसकी पूंछ पकड़ कर अनेकों लोग वैतरणी के पार हो जाते हैं। बहुत पुण्य का कार्य किया उन्होंने और यहाँ तक की लोगों को कहते सुना है जो बेटी की विदाई के वक्त वर से कहते हैं कि ये तुम्हारे घर की दासी है इसे अपने चरणों में जगह देना…!!
यदि हम विवाह संस्कार में देखें तो इसमें कहीं भी कन्या को किसी वस्तु की तरह दान के रूप में सौपने या दान के रूप में ग्रहण करने का कोई उल्लेख नही है। इसीलिये आज कन्या दान के बजाय पाणिग्रहण की परम्परा को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है जो कि धर्मसम्मत भी है।
हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों (षोडश संस्कार) का उल्लेख किया जाता है जो मानव को उसके गर्भाधान संस्कार से लेकर अन्त्येष्टि क्रिया तक किए जाते हैं। इनमें से तेरहवाँ संस्कार विवाह संस्कार है। विवाह दो शब्दों से मिलकर बना है- वि + वाह। जिसका शाब्दिक अर्थ है विशेष रूप से उत्तरदायित्व का वहन करना। और इसके लिए कन्यादान की जगह पाणिग्रहण का प्रयोग हुआ है। जिसका अर्थ है हाथ सौंपना। विवाह में वर व वधू अपने अलग अस्तित्वों को समाप्त कर, एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं और एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं एवं भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे दो पहियों की तरह प्रगति पथ पर आगे बढ़ते हैं। अर्थात विवाह दो आत्माओं का पवित्र बंधन है, जिसका उद्देश्य मात्र इंद्रिय-सुखभोग नही, बल्कि संतानोत्पादन कर एक परिवार की नींव डालना है। इस यज्ञ में जिन मंत्रो का प्रयोग होता है उनके अनुसार हाथ सौंपना से तात्पर्य है जिम्मेदारी का अहसास दिलाना है।
कन्यादान का स्वरुप — दान का अर्थ है – ‘ स्वस्वत्व-निवृत्तिपूर्वक परस्वत्वापदनं दानम्
निश्चय ही अन्य पदार्थों की भाँति कन्यादान का स्वरूप स्वस्वत्व-निवृत्तिपूर्वक परस्वत्वापादन नहीं है , क्योंकि कन्यादान के पश्चात् भी न तो स्वत्व-निवृत्ति ही होती है । यदि कन्यादान के पश्चात् स्वत्व-निवृत्ति हो जाती तो फिर लोक में मेरी पुत्री , मेरी बहिन , मेरी धेवती , मेरी भानजी , मेरी भतीजी आदि व्यवहार कन्या के विषय में नहीं होने चाहिएँ थे , क्योंकि जब कन्या अपनी नहीं रही तो उसकी सन्तान के साथ अपनापन कैसे रह सकता है ? अर्थात् देय वस्तु पर अपना अधिकार त्याग कर उसे दूसरे के अधिकार में देना । क्या कन्या भी इसी प्रकार से दे दी जाती है ? यदि आप किसी को कुछ दान देते हैं तो इसका अर्थ है कि उस वस्तु से फिर कोई सम्बन्ध ममता मोह आदि आपका नही रहेगा। जब कि कन्या सारी जिन्दगी आपसे और परिवार से जुड़ी रहती है। इसे आप कन्या आदान तो कह सकते हैं किन्तु कन्यादान नहीं!!
पारस्करगृह्य सूत्र के १-४-१६ पर भाष्य करते प्रसिद्ध पण्डित गदाधर लिखते हैं
( हिन्दी अर्थ ) – स्वत्व त्यागपूर्वक परस्वत्वापादन दान है , परन्तु स्वकन्या किसी प्रकार से स्वकन्या न रहे , ऐसा नहीं किया जा सकता और न ही कन्या किसी और की हो जाती है , यतः विवाहोपरान्त भी ” यह मेरी कन्या है ” इस कथन से । इसलिए विवाह-संस्कार में कन्या के लिये दान शब्द का गौण प्रयोग जानना चाहिए ।
आपस्तम्बसूत्र ( ६-१३-१० ) में लिखा है – ” यथादानं क्रयविक्रयधर्माश्चापत्यस्य न विद्यते ” – अन्य वस्तुओं की भाँति कन्या का दान नहीं होता , क्योंकि शास्त्र सन्तान के क्रय विक्रय का निषेध करता है
कन्यादान का अभिप्राय व्यक्त करते हुए आचार्य शौनक कहते हैं – ‘ कन्यां सगर्व कर्मभ्यः करोति प्रतिपा्नम् ‘ अर्थात् परस्पर मिलकर प्रजोत्पादन तथा श्रौत-स्मार्त्त कर्मों का अनुष्ठान करने के लिए पिता अपनी पुत्री वर को सौंपता है ।
कन्यादान का परिभाषित अर्थ — कन्या पिता के घर में प्रायः न्यूनतम 18 से 25 वर्ष तक रही । इस बीच वह माता-पिता , भाई-बहिन , सखी-सहेलियों का भरपूर प्यार पाती रही । विवाह-संस्कार के पश्चात् वह उन सबसे दूर पति के घर चली जाएगी । उस दुःखद चिरकालीन विदाई के समय परिवार के सभी सदस्य , सखी-सहेली आदि अपनी प्रेमवती भेंट उसे भेंट करते हैं । वास्तव में इसे ” कन्यादान ” कहा जा सकता है – ‘ कन्यायै दानमिति कन्यादानम् ‘ । विवाह के अवसर पर कन्या को मिलनेवाली यह सम्पूर्ण राशि कन्या-धन होता है । पुरोहित लोग कन्यादान के नाम से ही यह धन कन्या को दिलवाते हैं अतः कन्या के लिये दिये भेंटस्वरुप धन का ही मुख्य अथवा परिभाषित नाम कन्यादान है ॥
विवाह शब्द का अर्थ भी ‘विधिपूर्वक एक दूसरे को प्राप्त करके परस्पर दायित्व को वहन करना-निभाना हैं। इस सन्दर्भ में वेद भी उचित निर्देशन देते हैं-
अथर्ववेद 1/14 प्रथम कांड के सूक्त में 4 मंत्र विवाह व्यवस्था से सम्बंधित हैं
पहले मंत्र में वधु के गुणों का वर्णन है। वधु कुलवधू भगं अर्थात आतंरिक एवं वाह्य सौंदर्य से परिपूर्ण एवं वर्च: अर्थात तेजस्विता से युक्त हो।
दूसरे मंत्र में वर के गुणों का वर्णन है। वर नियमितता अर्थात नियमित जीवन वाला और संयमित अर्थात संयम रखने वाला हो।
तीसरे मंत्र में श्वसुर दामाद से कहता है।हे राजन (दामाद के लिए सम्मान व श्रेष्ठतासूचक शब्द) एषा (यह कन्या) ते (तेरे) कुलपा (कुल को पालन करने वाली/ पवित्र करने वाली ) है। इसे मैं तुम्हे दे रहा हूं।
चौथे मन्त्र में वर को असित अर्थात विषयों से अबद्ध, कश्यप अर्थात वस्तुओं को ठीक रूप में देखनेवाला एवं गय अर्थात प्राणशक्ति से संपन्न कहा गया हैं। वधु को अन्तकोष: अर्थात आध्यात्मिक संपत्ति के समान बताया गया है।
इन मन्त्रों से यह सिद्ध होता है कि विवाह व्यवस्था गुणवान वर और गुणवती पत्नी का मेल करने की वयवस्था का नाम हैं। ताकि उत्तम संतति से समाज सुशोभित हो।
विवाह एक यज्ञ भी है जिसमें दो परिवारों के संस्कारों का सम्मिलन करके नये उत्कृष्ट कार्य करने के लिए एक दूसरे का हाथ बटाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य ऐसी संतान को पैदा करना जो यशस्वी शक्तिशाली ज्ञानी व कीर्तिवान हो क्यों कि ऐसे लोग ही देश समाज व परिवार का भला कर सकते हैं। संसार का भला करने के कारण ही यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म भी कहा गया है।

संक्षेप में कन्यादान का सही अर्थ है कन्या का आदान, न कि कन्या का दान. शादी के दौरान कन्या का आदान करते हुए पिता कहते हैं कि मैंने अभी तक अपनी बेटी का पालन-पोषण किया जिसकी जिम्मेदारी मैं आज से आपको सौंपता हूं. इसके बाद वर कन्या की जिम्मेदारी अच्छी तरह से निभाने का वचन देता है. इसको रस्म को कन्या का आदान कहा जाता है. इसका ये मतलब नहीं होता कि पिता ने पुत्री को दान कर दिया है और अब उसका कोई अधिकार नहीं रहा. आदान का मतलब होता है लेना या ग्रहण करना. इस तरह एक पिता कन्या की जिम्मेदारी वर को सौंपता है और वर उन दायित्वों को ग्रहण करता है. इसे कन्या का आदान कहा जाता है. वास्तव में दान तो सिर्फ उस वस्तु का किया जाता है जिसे आप अर्जित करते हैं, किसी इंसान का दान नहीं होता. बेटी परमात्मा की दी हुई सौगात होती है, उसका दान नहीं आदान किया जाता है और इस तरह उसकी जिम्मेदारी को वर को सौंपा जाता है. कन्या आदान को सुविधा की दृष्टि से कन्यादान कहा जाता है. लेकिन इसके सही अर्थ को नहीं बताया जाता, इसलिए आज भी लोग कन्यादान का गलत मतलब निकालते हैं.

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