वैदिक सम्पत्ति : गतांक से आगे…
गतांक से आगे…
ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिस्त्रु तम् ।
स्वधा स्थ तर्पयत मे पितृन् (यजुर्वेद 2/34)
अर्थात् बलकारक जल, घृत, दूध रसयुक्त अन्न और पके हुए तथा टपके हुए मीठे फलों की धारा बह रही है, अतः हे स्वधा में ठहरे हुए पितरो ! आप तृप्त हों। इन मन्त्रों के अनुसार वैदिक घरों में देव, ऋषि और पितरों की तृप्ति के लिए घी, दूध और फलों का विशाल आयोजन दिखलाई पड़ता है। इतना ही नहीं प्रत्युत वैदिक गृहस्थ अपने इष्टमित्रों, अतिथियों और क्षुधापीड़ित मनुष्यों को किस प्रकार अन्न, जल और सेवा से तृप्त करने के लिए बुला रहे हैं, वह भी देखनेयोग्य है । अथर्ववेद में लिखा है कि-
ऊर्ज विभ्रद् वसुवनिः सुमेधा अघोरेण चक्षुषा मित्रियेण ।
गृहानैमि सुमना वन्दमानो रमध्वं मा बिभीत मत् ।। 2 ।।
इमे गृहा मयोभुव ऊर्जस्वन्तः पयस्वन्तः । पूर्णा वामेन तिष्ठन्तस्ते नो जानन्त्वायतः ।। 2 ।।
येषामध्येति प्रवसन् येषु सौमनसो बहुः । गृहानुप ह्वयामहे ते नो जानन्त्वायतः ॥ 3 ॥
उपहृता भूरिधनाः सखायः स्वादुसमुदः । अक्षुध्या अतृष्या स्त गृहा मास्मद् बिभीतन ॥ 4 ॥
उपहूता इह गाव उपहूता अजावयः । अथो अन्नस्य कीलाल उपहूतो गृहेषु नः ।। 5 ।।
सूनृतावन्तः सुभगा इरावन्तो हसामुदाः । अतृष्या अक्षुध्या स्त गृहा मास्मद् बिभीतन ।। 6।।
इहैव स्त मानू गात विश्वा रूपाणि पुष्यत । ऐष्यामि भद्रेणा सह भूयांसो भवता मया ।। 7 ।।
(अथर्व० 7/60/1-7)
अर्थात् हे वीर्य, धन, सम्पत्ति, मेघा, सुहृदभाव और अच्छे मनवालो ! आप लोग इन घरों में प्रेमपूर्वक आइये, डरिये मत । घरों में आनेवालों के लिए ये घर आरोग्यवर्धक, बलशाली, दुग्धवाले, लक्ष्मीवान् और श्रीमान् हैं। ये घर अमित धनवाले, मित्रों के साथ आमोदप्रमोद करनेवाले और क्षुधातृषा के हरनेवाले हैं, इसलिए आइये, डरिये मत । गोवें, बकरी और नाना प्रकार के रसीले अन्न हमारे घरों में भरे पड़े हैं। ये घर सत्यवालों, भाग्यवानों, घनियों, हंसमुखों और भूखप्यास से रहितों के हैं, इसलिए डरिये मत । थके हुए पथिक जो इन घरों का स्मरण करते हैं, उन्हें ये घर अपनी ओर बुलाते हैं, इसलिए कहीं मत जाइये, यहीं रहिये। ये घर अनेक प्रकार से पोषण करते हैं, इसीलिए हम भी यहाँ आ गये हैं, ठहरे हैं और सब प्रकार से सुखी हैं। इस उपदेश में गृहस्थाश्रम का कैसा भव्य वर्णन है और कैसे उदार गृहस्थों का चित्र खींचा गया है। इसका कारण यही है कि वेदों में अतिथिसत्कार न करनेवाले और क्षुधातुरों को अन्न न देनेवाले गृहस्थों की निन्दा की गई है। ऋग्वेद में लिखा है कि-
य आध्राय चकमानाय पित्वोऽन्नवान्स फितायोपजग्मुषे ।
स्थिरं मनः कृणुते सेवते पुरोतो चित्स मंडितारं न विन्दते ।। 1।।
स इन्ड्रोजो यो गृहवे ददात्यन्नकामाय चरते कृशाय ।
अरमस्मै भवति यामहूता उतापरीषु कृणुते सखायम् ॥ 3।। (ऋ० 10/117)
अर्थात् जो अन्नवान् होता हुआ, अन्न चाहनेवालों और गरीबी से पास आये हुए दुखियों के लिए मन कठोर कर लेता है और आप मजे में खाता है उसे सुख देनेवाला मित्र नहीं मिल सकता। जो अन्न चाहनेवाले दुर्बल याचक को अन्न देता है वही सच्चा भोजन करता है। ऐसे दाता के पास दान करने के लिए पर्याप्त अन्न आता है और कठिन समय में सहायक मित्र उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार से इन वेदमन्त्रों ने आदर्श गृहस्थ का चित्र खींचते हुए बतलाया कि मकान तो सदैव साधारण ही हो, पर वह साधारण मकान अन्न आदि आवश्यक पदार्थों से भरा हो और मकान पर आनेवालों का उत्तम सत्कार किया जाय ।
पर स्मरण रहे कि इस दानशीलता के कारण ऋण न होने पावे। ऋण मनुष्य को बहुत ही नीच बना देता है इसलिए उतना ही खर्च चाहिये जितनी अपनी निज की आमदनी हो । अथर्ववेद में लिखा है कि–
अनुणा अस्मिन्ननुणाः परस्मिन् तृतीये लोके अनुणाः स्याम।
ये देवयानाः पितृयाणाश्च लोकाः सर्वान् पथो अनृणा आ क्षिपेम ॥ [ अथर्व० 6/117/3]
पुष्टि पशूनां परि जग्रभाहं चतुष्पदां द्विपदां यच्च धान्यम् ।
पयः पशूनां रसमोषधीनां बृहस्पतिः सविता मे नि पच्छात् ।। [अथर्व० 19/31/5]
अर्थात् इस लोक, परलोक और तीसरे लोक में हम सब अऋण होवें और देवयान तथा पितृवान के जो मार्ग और स्थान हैं, उन सबमें हम अऋण होकर निवास करें। मैं चतुष्पाद पशुओं से, द्विपाद मनुष्यों से और धान्यों से प्राप्त पदार्थ स्वीकार करता हूं और बृहस्पति तथा सविता देव परमात्मा ने जो मुझको पशुओं का दूध और औषधियों का रस दिया है उसी से पोषण करता हूं।इन मंत्रों का यही तात्पर्य है कि जो कुछ अपने पुरुषार्थ से प्राप्त हो उसी के अनुसार खर्च किया जाए ऋण लेकर नहीं।
क्रमशः