गांव दर्शन में धर्म दर्शन’
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भारत की आत्मा गांवों में बसती है । वैदिक कालीन परंपराओं संस्कृति की कुछ झलकियां आज भी गांवो में दिखाई देती हैं। यह छवि हमारे गांव के चैत्य ( देव) स्थल जिसे ग्रामीण’ प्राचीन झीडी तपोभूमि ‘कहते हैं की है। जिसमे स्थित असंख्य पेड़ों में से एक मंजूफल के पेड़ पर एक वानर बैठा हुआ है, नीचे गउ खड़ी है चबूतरे पर कौवे दाना चुग रहे हैं। इस देवस्थल में ऐसे अनेकों स्थान है जहां यह दृश्य आम है जहां अनेक प्रकार के जीव जंतु दाना पानी पा रहे होते हैं तालाब के किनारे तालाब अब कच्चा नहीं है पक्का हो गया। प्राचीन काल में हमारे देश में पंच महायज्ञ की परंपरा रही है इनमें अब वेद अध्ययन पढ़ना पढ़ाना ,अग्निहोत्र दैनिक स्तर पर यह दो यज्ञ तो छूट गए हैं लेकिन मनुष्येतर जीव जंतुओं के लिए दाना पानी देने की परंपरा अर्थात बलिवैश्वदेव यज्ञ आज भी किसी ना किसी रूप में प्रचलित है। सौभाग्य से हमारे गांव में विधिवत सामूहिक तौर पर इस देव स्थल पर ग्रामीण इस यज्ञ को सदियों से कर रहे है। जिससे सैकड़ों गौवंश पशु पक्षी वानर पोषित हो रहे हैं।
उत्तम से उत्तम फल अन्न साग सब्जी जीव जंतुओं को ग्रामीण सप्ताह में सातों दिन देते हैं। पहले इस स्थल पर वैशाख जेष्ठ मास में जब गाँव मे नवीन अन्ना आता था तो भंडारे आयोजित किए जाते थे। अब प्रत्येक माह इस स्थल पर भंडारे आयोजित होते रहते हैं जिसमें सैकड़ो लोग अन्न पाते हैं आज 9 मई 2023 को इस स्थल पर आयोजित अनेकों भंडारों की श्रंखला के क्रम में ऐसा ही एक भंडारा भाई श्री जगत सिंह खारी जी उनके सुपुत्र योगेंद्र खारी एवं अरुण खारी ने यहां आयोजित किया। भंडारे के रूप में अन्न की परंपरा अपने आप में एक यज्ञ ही है यह पितृ व अतिथि यज्ञ दोनों का मिलाजुला रूप है। भारत में अध्यात्मिकता गांवो मे आज भी जीवित है।गाँव का छोटा से छोटा 1 एकड़ का किसान भी अपने जिस इच्छित विषय में उसकी आस्था होती है वह उस संस्थान के लिए अन्नदान जरूर करता है संभवत वेद के इस संदेश को कि ‘अकेले खाने वाला पाप खाता है’ उसको हमारे किसान भली-भांति समझते हैं ।जबकि अमेरिका कनाडा ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में जहां 20-20 हजार बीघा भू -स्वामी किसान किसान भी वहां कोई अन्नदान नहीं करता। प्राचीन भारत की व्यवस्था को हम समझें गांव में रहने वाले ग्रामीण ग्रहस्थ ,गांवों के बाहर रहने वाले वानप्रस्थ आश्रमी सभी व्यक्ति आपस्तम्ब धर्मसूत्र के आश्रमचार का पालन पालन भली-भांति करते थे । अपनी ऋषि भूमि भारत पर आपस्तम्ब नाम के ऋषि हुए हैं संभवत दक्षिण भारत में जो हजारों वर्ष पहले हुए हैं उन्होंने मानव आचार को लेकर धर्मसूत्र ग्रंथ की रचना की है जो बेहद अनूठा बेजोड़ ग्रन्थ है । आपस्तम्ब धर्मसूत्र के दूसरे प्रश्न, नवे पटल की 12वीं कंडिका में सूत्र संख्या 24 इस संबंध में इस प्रकार है ‘नवें सस्ये प्राप्ते पुराणनृजानीयात्’ अर्थात नए अन्न की प्राप्ति होने पर पुराने अन्न का परित्याग कर देना चाहिए। अब अन्न किसके पास मिलेगा अन्न गृहस्थी के पास मिलेगा या सन्यासी बनने की योग्यता अर्जित कर रहा गाँव के बाहर वन में रहने वाला वानप्रस्थी उसके पास अन्न मिलेगा। वैदिक चार आश्रम में से दो आश्रमी सन्यासी और ब्रह्मचारी के पास अन्न नहीं होता वह तो उपरोक्त दो से अन्न भिक्षा प्राप्त प्राप्त करते हैं । यही कारण रहा वैशाख में नया अन्न जब आता था घर जो भी पुराना अन्न होता था उसका दान भंडारे देव स्थल गुरुकुल पशु पक्षियों जीव जंतु आदि के पोषण अर्थ कर दिया जाता था । आयुर्वेद में पुराना अन्न भी खानपान की दृष्टि से उत्तम माना गया है। इसमें ऐसा ना समझें यदि पुराना अन्न नहीं है तो नवीन अन्न का दान ना करें ऐसी परिस्थिति में नवीन अन्न का दान करें। ऐसी व्यवस्था भी धर्म सूत्रों में मिलती है।
वैदिक संस्कृति महान है। इसे समझने के लिए बहुश्रुत होना प्रथम शर्त है । वैदिक वांग्मय बहुत विशाल है उसमें भी नीर क्षीर विवेक बुद्धि रखनी पड़ती है क्योंकि समय समय पर स्वार्थी लोगों ने ऋषि-मुनियों के ग्रंथों में मिलावट भी की है, अपने स्वार्थ के लिए।
आर्य सागर खारी ✍