इस्लाम की व्यवस्था
देखिये इस्लाम में स्पष्ट व्यवस्था है-”ऐसी औरतें जिनका खाविन्द (पति) जिंदा है, उनको लेना हराम है, मगर जो कैद होकर तुम्हारे साथ लगी हों उनके लिए तुम्हें खुदा का हुक्म है और उनके सिवाय भी अन्य दूसरी सब औरतें हलाल हैं, जिनको तुम माल अस्वाब देकर कैद से लाना चाहो, न कि मस्ती निकालने के लिए।” देखिये इस्लाम की इस एक व्यवस्था ने ही व्यक्ति का दृष्टिकोण स्त्री के प्रति पूर्णत: परिवर्तित कर दिया। पुरूष ने विधर्मियों (काफिरों) को इसलिए मारना काटना प्रारंभ किया कि इनके मरने के बाद बहुत सी स्त्रियां मिलेंगी, जिनसे निकाह कर वासना की भूख मिटाएंगे। इस सोच के परिणामस्वरूप संसार में लाखों नहीं बल्कि करोड़ों लोगों का रक्त ऐसे बहा दिया गया जैसे उनके जीवन का कोई मूल्य ही न हो। यूनान, मिस्र, रोम, अबीसीनिया और भारत सहित कितने ही देशों का इतिहास इस रक्तपात की साक्षी देता है।
ऐसे भयंकर रक्तपातों को देखकर ही संसार में यह अवधारणा रूढ़ बन गयी कि ‘जोरू’ पर संसार लड़ता आया है, जबकि सच यह है कि संसार को तो जोरू की ‘रक्षा’ के लिए लडऩा सिखाया गया, उसे छीनने और बलात् हड़पने के लिए तो एक वर्ग विशेष के लोग ही लडऩे पर उतारू रहे। हो सकता है मौहम्मद साहब ने भी नारी रक्षण के लिए ही लोगों को अपनी वीरता दिखाने का आदेश दिया हो न कि उसके भक्षण के लिए। जिन लोगों के लिए  ‘जोरू’ केवल भोग्या थी, और जो उसे केवल  ‘लूट का सामान’ मानने की धारणा से ग्रसित हैं, वे नारी के वास्तविक शत्रु हैं।

इस्लाम में नारी की दुर्गति
भारत में जिन बादशाहों, सुल्तानों या नवाबों ने अपने ढंग से इस्लाम की व्यवस्था का अर्थ निकालकर स्त्री पर अत्याचार किये वे इस्लाम की इसी सोच के शिकार हुए जो ऊपर वर्णित की गयी है। वस्तुत: ऐसी ही सोच भारत में उन लोगों की रही है जो अपनी बौद्घिक संस्कृति से भटक गये।
‘इण्डो-अरब’ संस्कृति (सांझा संस्कृति) का राग अलापने वालों के लिए यह विषय भी एक शोध का विषय बन सकता है कि इस्लामिक दृष्टिकोण के कारण भी भारत में स्त्री की दुर्गति हुई। मानवीय स्वभाव की यह दुर्बलता है कि उस पर दैवीय गुणों के प्रभाव दीर्घकाल में अपना नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं। यही कारण रहा है कि मानव के भीतर छिपी वासना का नंगा नाच जब भारतीयों ने यहां रक्तपात और लूटमार के पश्चात होते देखा तो कई लोगों ने उसका अभिनय स्वयं के द्वारा भी किया, तथा शक्ति संपन्न लोगों ने ऐसा किया। वास्तव में इनकी प्रेरणा के स्रोत वे लोग मुस्लिम नवाब, सुल्तान और बादशाह रहे जिन्होंने एक दो या चार नहीं अपितु सैकड़ों और हजारों की संख्या में स्त्रियों को अपने हरम में ठूंस लिया था। कारण केवल एक था-वासना की पूर्ति। 
पाठकगण! कृपया विचारें कि यदि सृष्टि प्रारंभ से ही मानव नारी देह के शोषण के लिए लड़ता आता और इस लडऩे को अपना अधिकार मानता तो रक्तपात और उत्पात के कारण आज मानव जाति ही समाप्त हो गयी होती क्यों? क्योंकि जब यह नारी शोषण अपनी चरम सीमा पर था तो संसार की जनसंख्या शक्ति युद्घों के कारण समाप्त होती रहती थी।
स्वयं भारत की जनसंख्या को देखें तो सौ वर्ष पूर्व जो आंकड़ा था-उसके पांच छह गुणा जनसंख्या आज देश में है। यदि मध्यकाल में भी जनसंख्या को बढऩे का ऐसा ही शांतिकाल मिलता और सरकारें जनसमस्याओं के निवारण की ओर अपना ध्यान देतीं तो आज संसार का इतिहास कुछ दूसरा ही होता। सच यह है कि मानव ने रक्षार्थ तो युद्घ लड़े गये-किंतु नारी लूट के लिए कोई युद्घ नहीं लड़ा गया। हम रामायण काल उठा लें अथवा महाभारत काल को देख लें इसके अतिरिक्त कुछ भी होता नहीं मिलेगा।

नारी के लिए युद्घ
दुर्भाग्य था इस देश का जब यहां नारी के लिए युद्घ किया गया। कब? पृथ्वीराज चौहान के समय में स्वयं उसी के द्वारा जब वह संयोगिता का डोला लेने चला था। तब वह अनेक वीरों की प्राण आहुति देकर अपनी योजना में सफल भी हुआ। किंतु हम देखते  हैं कि एक ‘संयोगिता’ का डोला तो आ गया, पर दूसरी संयोगिता (भारत की स्वतंत्रता) का डोला हमसे छिन गया। नारी के लिए हम लड़ें तो कितना बड़ा मूल्य चुकाना पड़ा? विचारणीय है कि वह समय हमारे चारित्रिक पतन का समय था। आज जो लोग नारी गरिमा  के भक्षक बनकर इस आदर्श को अपने सम्मुख रखकर कार्य कर रहे हैं कि नारी को अश्लील ढंग से चलचित्रों के माध्यम से पुरूष के सामने परोसा जाए वे भारतीय संस्कृति का मटियामेट कर रहे हैं। ऐसे लोग राष्ट्र के शत्रु हैं। इन ‘इंडो-अरब’ संस्कृति के उपासकों को यथाशीघ्र पाठ पढ़ाने की आवश्यकता है।
इन्हें बताया जाए कि नारी के लिए लडऩे की संस्कृति हमारी नहीं है। अपितु नारी सम्मान और नारी गरिमा की रक्षा करना हमारी संस्कृति का एक अंग है। इसे सही स्वरूप में समझें। ये षडय़ंत्र पूर्ण मिथक टूटना चाहिए कि नारी के लिए संसार लड़ता आया है। अपितु इसके स्थान पर यह सच्चाई प्रतिष्ठित की जाए कि नारी सम्मान के लिए संसार के सभ्य और सुसंस्कृत लोग दुष्टों और अनाचारी लोगों के विरूद्घ लड़ते आये हैं और लड़ते रहेंगे। यदि हमको सचमुच सभ्य संसार की रचना करनी है तो असभ्य लोगों की असभ्यतापूर्ण धारणाओं से हमें स्वयं को बचाना ही होगा। इन्हीं में से एक ये धारणा भी है कि जोरू के लिए तो दुनिया सदा से लड़ती आयी है।

जमीन (धरती) के लिए युद्घ
अब बात आती है जमीन की। इसे विस्तृत अर्थों में साम्राज्य विस्तार की लड़ाई कहा जा सकता है। हर व्यक्ति चाहता है कि उसका वर्चस्व संसार के अन्य लोगों पर स्थापित हो। हर व्यक्ति की इच्छा होती है कि सभी लोग मेरे प्रभाव में रहें और मेरे समक्ष नतमस्तक हों। मानव की स्वभावगत ऐसी दुर्बलताओं को दृष्टिगत रखकर यह मिथक भी गढ़ा गया कि जमीन के लिए संसार में हमेशा युद्घ और संघर्ष होते आये हैं।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)

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