हमारा इतिहास गौरव का पुंज और तेज का निकुंज है

आत्मन: प्रतिकूलानि…
संसार का कोई भी मत,पंथ या संप्रदाय ऐसा नही, जिसने परतंत्रता को धिक्कारा ना हो। इसका अर्थ है कि कोई मत, पंथ या संप्रदाय चाहे किसी विपरीत मत, पंथ या संप्रदाय के मानने वालों को अपने अधिक संख्या बल से डराकर या अपने बाहुबल से डराकर उन्हें अपना दास बनाने का अभियान चला ले और चाहे कितना ही अपने इस प्रकार  के कार्य को उचित ठहरा ले, पर सत्य तो यही है कि उन्हें अपनी स्वतंत्रता प्रिय होती है और दासता अप्रिय होती है। अत: पराधीनता संपूर्ण मानवता के प्रति अपराध है, और साथ ही यह भी कि स्वतंत्रता मानवता का मौलिक अधिकार है। मानवता के इस मौलिक अधिकार की रक्षा का सर्वोत्तम उपाय है :-
”आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्”
अर्थात आपको जो बात अपने लिए अप्रिय लगती है उसे दूसरों के साथ भी मत करो।
यही कारण है कि भारत ने सदा दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान किया और अपनी परतंत्रता का दीर्घकाल तक प्रतिरोध किया।
वीर सावरकर का कहना है-”संसार में ऐसा कौन सा सद्घर्मा है, जिसने परतंत्रता एवं दासत्व को नही धिक्कारा है? यह मान्यता रही है कि जहां परमेश्वर है-वहां परतंत्रता कभी नही आ सकती और जहां परतंत्रता है वहां परमात्मा का अधिष्ठान नही हो सकता। जहां परमात्मा का अधिष्ठान नही, वहां धर्म का अस्तित्व ही कहां रह पाएगा? अत: परतंत्रता चाहे किसी भी प्रकार की क्यों न हो, उसका एक ही तात्पर्य है-वह है धर्म का उच्छेद तथा परमेश्वर की इच्छा का खण्डन।” (संदर्भ : ‘1857 का भारतीय स्वातंत्रय समर’) इसी प्रसंग में वीर सावरकर आगे कहते हैं :-
”राजनैतिक परतंत्रता अन्य सभी प्रकार की परतंत्रताओं से निकृष्टतम है और अवन्नति का सर्वतोपरि कारण है, अत: परतंत्रता का पाश डालने वाले अधम राक्षसों का कंठच्छेदन करने की धर्माज्ञा प्रमुख रूप से दी गयी है, जो दूसरों को परतंत्रता के पाश में आबद्घ करते हैं, एवं जो परतंत्रता को सहन करते हैं, वे दोनों ही नरक के भागीदार हैं जहां सच्चा धर्म स्वर्ग की प्राप्ति का साधन है, वहां दासता ही नरक का द्वार भी है। अत: धर्म ने परतंत्रता का उच्छेद करने का महान उपदेश दिया है।”

धर्म और स्वतंत्रता का संबंध
हमारा मानना है कि मानव का वास्तविक धर्म (मानवता)  बिना स्वतंत्रता के और स्वतंत्रता बिना धर्म के आधी-अधूरी है। इन दोनों का अन्योन्याश्रित संबंध है।
भारत ने धर्म का विकास उस सीमा तक किया जहां संसार के सारे बंधनों से मानव मुक्त हो जाता है। निस्संदेह वह अवस्था मोक्ष है। मनुष्य के लिए जिन चार पुरूषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की अवधारणा अवस्थापित की गयी है, उनमें धर्म मूल में है तो मोक्ष (स्वतंत्रता की चरमावस्था) उसकी फलक पर है। स्वतंत्रता होती भी वही है जो व्यक्ति को उसके मूल से जोडक़र (मानवता से संयुक्त कर) उसे फलक (सर्वत्र आनंद ही आनंद की अनुभूति हो जहां) में स्थापित करा दे। हमारे ऋषियों ने मनुष्य को इसी स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाया। यद्यपि यह ऐसी स्वतंत्रता है, जिसका अभिप्राय विश्व आज तक सही संदर्भों में नही समझ पाया है।

मुगल शासक और भारतीय स्वतंत्रता
जहां तक मुगल शासकों या मध्यकालीन भारत के मुस्लिम शासनों की बात है-ये लोग तो स्वयं ही अव्यवस्था फैलाने वाले थे और स्वयं ही अपने को व्यवस्थापक कहे जा रहे थे। अव्यवस्था का जनक जब स्वयं को व्यवस्थापक कहता है तो सभ्य लोगों के लिए वह उपहास का पात्र बन जाया करता है। भारत अपने व्यवस्थापकों को उस समय इसी दृष्टि से देख रहा था और हमारा मानना है कि ये व्यवस्थापक उस समय इसी दृष्टि से देखे जाने योग्य ही थे।

आ गया शाहजहां का काल
भारत जिन अव्यवस्थापक बने अपने ‘व्यवस्थापकों’ को झेल रहा था। उनकी अगली श्रंखला का नाम था शाहजहां। यह जहांगीर नामक मुगल बादशाह का पुत्र तथा अकबर का पौत्र था। 1628 ई. जहांगीर की मृत्योपरांत शाहजहां मुगल वंश का उत्तराधिकारी बनकर सिंहासनारूढ़ हुआ।
शाहजहां का जन्म 5 जनवरी 1592 ई. को लाहौर में हुआ था। उसकी माता एक हिंदू राजकुमारी थी। अंग्रेज इतिहासकार कीन का कहना है-”शाहजहां ऐसा प्रथम मुगल बादशाह था जिसने अपने सभी विरोधियों का प्राणांत कर दिया था। उसने अपने  अग्रज खुसरो को आधी रात के समय मार डाला था। उस समय खुसरो शाहजहां का संरक्षित बंदी था। उसने तीन वर्ष तक अपने पिता जहांगीर के विरूद्घ युद्घ किया और यदि वह उसके हाथ लग जाता तो वह उसे भी मार डालता।”

अत्याचारी शाहजहां
शाहजहां के अत्याचारों (जो निस्संदेह हिंदुओं के विरूद्घ ही ढहाये गये थे) का वर्णन उसके अपने लेखक मुल्ला अब्दुल हमीद ने किया है। वह लिखता है -”बुरी तरह पीछा किये जाने पर झज्जरसिंह तथा (उसके पिता) विक्रमाजीत ने उन अनेक स्त्रियों को मार डाला जिनके घोड़े थक गये थे। रात-दिन पीछा किया जाने के कारण विद्रोहियों को जौहर करने का अवसर नही मिला। निराश हो उन्होंने कटार से राजा वीरसिंह देव की पटरानी रानी पार्वती के दो घाव किये, तथा अन्य स्त्रियों बच्चों को भी मारकर भागने ही वाले थे कि अनुधावकों ने आकर उनमें से अनेक को तलवार के घाट उतार दिया। रानी पार्वती एवं अन्य घायल स्त्रियों को उठाकर फीरोज जंग के समीप लाया गया। इस भयानक युद्घ से बचकर पलायन कर जाने वाले झज्जर तथा विक्रमाजीत जंगल में गौड़ों द्वारा बहुत बुरी तरह मार दिये गये। खान दौरन उनके शरीरों की खोज में चला तथा प्राप्त कर उनके सिरों को काटकर दरबार में भेज दिया। बादशाह की आज्ञानुसार उन्हें सेहुर के द्वार पर टांग दिया गया था। शेधान खां फौरन चांदा से आया तथा बादशाह के आदेशानुसार उन्हें मुसलमान बनाकर इस्लाम कुली तथा अली कुली नाम दे दिये गये। पूर्णत: घायल रानी पार्वती को छोड़ दिया गया। अन्य स्त्रियां शाही महल की स्त्रियों की सेवा के लिए भेज दी गयीं। झज्जर का पुत्र उदयमान तथा उसका अनुज श्यामदेव जो गोलकुण्डा भाग गये थे, बंदी बनाकर बादशाह के पास भेज दिये गये। दोनों ने मुसलमान बनने की अपेक्षा मृत्यु को उत्तम समझा, अत: उन्हें समाप्त कर दिया गया।”

वर्ण व्यवस्था और इतिहास का समन्वय
यद्यपि हमारे नामों के पीछे लगाने वाले उपनाम गोत्रादि हमारे समाज में अनेकताओं को जन्म देने वाले भी सिद्घ हुए हैं, जिनसे हमारे हिंदू समाज में कई बार विखण्डन ऊंच-नीच आदि जैसी सामाजिक विसंगतियों ने भी जन्म लिया है। कुछ लोगों को जातीय अभिमान हुआ तो कुछ को गोत्र का अभिमान हुआ जिससे अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराई का जन्म हुआ, परंतु हमारा मानना है कि प्रत्येक बुरी परंपरा के मूल में कोई सदपरंपरा छिपी रहती है।
हमारी दृष्टि उस सदपरंपरा को पहचानने में धोखा खा जाती है, अन्यथा यदि उस सदपरंपरा को पहचान लिया जाए तो कई बार हमें अच्छा समाधान भी मिल जाता है।
उदाहरण के रूप में भारत की हर जाति का कहीं न कहीं गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए सुविधा की दृष्टि से हम अपने इतिहास को भी अपनी वर्ण व्यवस्था के अनुरूप चार भागों में बांट सकते हैं :-
(1) ब्राह्मण इतिहास: अर्थात देश में ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न अनुसंधान करके मानवता को लाभान्वित करने वाले ऋषि-मुनि, ब्राहमण लोग जिनके उत्तराधिकारी हमें अपने नामों के पीछे तदनुरूप (भारद्वाज, आत्रेय, पाराशर आदि उपनाम लगाने वाले लोग) आत्रेयादि लिखने वाले लोग मिलते हैं।
2. क्षत्रिय-इतिहास : क्षत्रियों ने विभिन्न कालों में देश की ब्राह्मण शक्ति के साथ समन्वय स्थापित कर अपने क्षात्रबल का परिचय दिया। जिन वीरों ने समय-समय पर अपने देश धर्म के लिए विशेष रोमांचकारी कार्य किये, उनके उन रोमांचकारी कार्यों को प्रेरक बनाये रखने के लिए तथा उनकी स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए इन क्षत्रिय लोगों ने भी अपने-अपने आदर्श पूर्वजों के नाम पर या उनके जन्म स्थलों के नाम पर अपने उपनाम गोत्रादि लिखने प्रारंभ किये।
3. वैश्य इतिहास : इन लोगों में ऐसे महापुरूष आते हैं जिन्होंने समय आने पर देशधर्म के लिए अपना समस्त धनैश्वर्य बलिदान कर दिया या देश के लिए धनादि  की व्यवस्था करके उसकी सेवा की। इनके वंशज इनकी स्मृतियों को अपने उपनाम और गोत्रादि के माध्यम से अक्षुण्ण रखे हुए है।
4. शूद्र इतिहास : इसी प्रकार शूद्र इतिहास भी है। यद्यपि कुछ लोगों ने शूद्रों के प्रति जातीय अभिमान में आकर ऐसा प्रदर्शित करने का प्रयास किया है कि उनका कोई इतिहास ही नही है। परंतु हमारा मानना है कि प्रत्येक महापुरूष के साथ एक सेवे (शुद्र) साथ में है वह उसका दास नही है, अपितु उसके लक्ष्य की साधना में एक ऐसा आवश्यक साधन है जिसकी सेवा अपने स्वामी को अपनी लक्ष्य साधना के प्रति समर्पित करती है और वह निरंतर आगे बढ़ता जाता है। एक विद्यालय बिना चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के चल ही नही सकता। एक संस्था, एक फर्म, एक समाज, एक देश कोई भी तो नही चल सकता बिना शूद्र समाज के। इसलिए उनका भी एक इतिहास है, और इस इतिहास को कितने ही संतों, विद्वानों और तपस्वी राष्ट्र साधकों ने शूद्र के घर उत्पन्न होकर बनाया है। जिन पर संपूर्ण राष्ट्र को गर्व है। यद्यपि ऐसे महापुरूष महर्षि मनु की दृष्टि में शूद्र न होकर द्विज हो जाते हैं, जो विद्वान हों। अत: एक शूद्र विद्वान को विद्वान की दृष्टि से ही देखना प्राकृतिक न्याय के अनुकूल है।

हमारा राष्ट्रीय इतिहास
पर हम अपने इतिहास के इस काल्पनिक विभाजन का नाम न देकर सबका एक सामूहिक नाम देते हैं और वह है-‘हमारा राष्ट्रीय इतिहास।’ इसमें सबके सब वर्ण समाहित हो जाते हैं। इतिहास होता भी राष्ट्रीय ही है, उसे संकीर्णताओं में नही बांटा जा सकता और ना ही बांटने का प्रयास करना चाहिए।
शाहजहां के शासनकाल से पूर्व हमने देखा कि कहीं राणा, तो कहीं चौहान, कहीं कल्चुरि कहीं गुर्जर, कहीं जाट, कहीं यादव इत्यादि जातियां देश की स्वतंत्रता का संघर्ष कर रही थीं। स्थान-2 पर काल विशेष में कभी किसी जाति ने तो कभी किसी ने स्वतंत्रता की पताका अपने हाथों में उठाये रखी। पर इस सबके उपरांत भी उस समय हमारे देश में जातिवाद इतने दूषित स्वरूप में नही था, जितना आज है।

बुंदेलों का राष्ट्र जागरण और मुगल
शाहजहां के काल में बुंदेलों ने मुगलों की सत्ता का तीव्र प्रतिरोध करने का संकल्प उठाया। ये लोग शाहजहां के अत्याचारों से तनिक भी भयभीत नही हुए और बड़े धैर्य के साथ ये लोग देश में ‘राष्ट्र जागरण’ के महान कार्य को करने लगे। इनका नेतृत्व चंपतराय ने किया। जो कि अपने समय का महावीर था। इस हिंदू योद्घा ने अपने ओरछा के राज्य के गांवों से मुसलमानों को भगाना आरंभ कर दिया। इसी चंपतराय की वीरांगना रानी सारंधा थी। जिसके विषय में हम अगले अध्याय में चर्चा करेंगे।

दे दिया मानवता के लिए बलिदान
शाहजहां के पिता जहांगीर के काल की घटना है। बात उस समय की है जब जहांगीर ने मेवाड़ पर अधिकार करने के लिए अपनी सेना भेजी थी और दोनों सेनाओं का सामना देवारी घाटी में हुआ था।
इस युद्घ में एक हिंदू वीर कान्हसिंह भी था। इस शूरवीर ने महाराणा अमरसिंह की इस युद्घ में प्राणरक्षा की थी। परंतु वह स्वयं एक मुस्लिम सैनिक के घातक प्रहार से घायल हो गया था। युद्घ के क्षेत्र में वह अकेला पड़ा हुआ अब अपने जीवन की अंतिम सांसें ले रहा था। पर इस शेर ने धराशायी होते-होते उस मुस्लिम सैनिक पर अपने बर्छे का घातक प्रहार किया, जिससे वह मुगल सैनिक घायल हो गया और वह भी कान्हसिंह के निकट ही धरती पर गिर गया।
कुछ कालोपरांत देवारी के युद्घ क्षेत्र में पड़े अनेकों शवों के मध्य अपने पुत्र को खोजती हुई कान्हसिंह की माता वहां पहुंच जाती है। अपने पुत्र को उस स्थिति में देखकर माता ने अपने पुत्र को छाती से लगा लिया। माता ने देखा कि उसके पुत्र की बगल में पड़ा वह मुस्लिम सैनिक पानी-पानी चिल्ला रहा था, जिसके बर्छे से वह शूरवीर धराशायी हुआ था। तब माता ने अपने पुत्र को युद्घ क्षेत्र से उठाकर ले चलना चाहा। परंतु वीर पुत्र ने अपने आप मां के साथ चलने से पूर्व उस मुस्लिम सैनिक को पानी लाकर देने का मां से आग्रह किया, जो अब भी ‘पानी-पानी’ कहे जा रहा था।
कान्ह को पता नही था कि वह कितनी बड़ी चूक कर रहा है। उसने मां से उस सैनिक को पानी लाकर देने के लिए पुन: कहा। मां ने कहा कि पुत्र इसी के कारण तुम्हारी यह दशा हुई है। मैं नही चाहती कि तुम्हारे शत्रु के साथ अब इतना उपकार किया जाए। परंतु कान्ह ने मां से पुन: आग्रह किया कि-मां जैसे मैं आपका प्रिय हूं वैसे ही वह भी किसी मां का प्रिय पुत्र है, इसलिए आप उसको पानी लाकर अवश्य दो। उसने युद्घ क्षेत्र में मेरे साथ जो कुछ भी किया है वह उसका कत्र्तव्य था। इसलिए शत्रुता के क्षणिक भाव पर मत जाओ, और उसका जीवन भी मेरे जीवन की भांति ही अमूल्य मानकर उसके जीवन की रक्षा करो। यह घड़ी सोचने की नही है, आप एक पुनीत कार्य का संपादन करने में तनिक सा भी विलंब मत करो। माता ने पुत्र के आग्रह को स्वीकार कर लिया और वह पानी लेने चली गयी।
कान्ह की माता के पानी के लिए जाने के पश्चात वहां उस मुस्लिम सैनिक को खोजते-खोजते कुछ मुस्लिम आ गये। उन्होंने उस अपने साथी को उठाकर ले चलना चाहा तो हमारे शूरवीर की मानवता उलट गयी। उसके भीतर छिपी मानवता ने  शत्रु के प्रति दयाभाव दिखाते हुए उस मुस्लिम सैनिक से कहा कि -मां पानी लाती ही होगी, आप पानी पीकर ही जायें।
तभी उन मुस्लिमों में से किसी ने पूछ लिया कि यह कौन है? इस पर कान्ह ने कहा कि यही वह हिंदू योद्घा है, जिसके बर्छे से मेरी यह गति हुई है। इतना  सुनते ही उन मुस्लिम सैनिकों के नायक ने अपनी तलवार निकाली और उस निहत्थे ‘वीर कान्हसिंह’ का अपनी तलवार से एक ही प्रहार से जीवन समाप्त कर दिया।
मुसलमानों की वह टुकड़ी अपने घायल मुसलमान साथी को उठाकर लेकर चली गयी। कुछ ही समय पश्चात कान्हसिंह की माता वहां पहुंची तो उसकी स्थिति देखते ही माता लड़खड़ा कर धरती पर गिर गयी। अपने पुत्र के आग्रह पर पानी के लिए जाकर उसने जो भूल कर दी थी अब उसका उसे घोर प्रायश्चित हो रहा था। कान्हसिंह की वीरता देखते ही बनती थी।
वह परमवीर था जिसने युद्घ में घायल होकर भी वहां से सकुशल निकलना उचित नही समझा, अपितु उसने अपने सिद्घांतों की रक्षार्थ अपना सर हंसते-हंसते कटा लिया।
इस घटना से पता चलता है कि हमारे रणबांकुरों के लिए मानवता कितनी अधिक प्रिय रही।

एक दूसरा उदाहरण
मानवता और नैतिकता हमारे लिए कितनी वंदनीय रहती थीं इस बात का पता उपरोक्त उदाहरण से चल रहा है। हमारे इतिहास में और लोकग्रंथों में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं। एक अन्य उदाहरण हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे देखकर हमारे भीतर अपने वीर पूर्वजों के प्रति श्रद्घा सागर अपने आप ही उमड़ सकता है।
हल्दीघाटी युद्घ क्षेत्र में महाराणा प्रताप की पराजय हो चुकी थी, परंतु महाराणा प्रताप के अनेकों वीरों ने मुस्लिमों की सैनिक छावनियों पर हमले निरंतर जारी रखे। जब भी उन्हें अवसर मिलता तभी वह अपने शत्रु पर टूट पड़ते या पहाड़ी नदी की भांति अचानक उनमें बाढ़ आती और अनेकों शत्रुओं को बहाकर अपने साथ ले जाती।
महाराणा प्रताप सिंह के लिए लडऩे वाली एक ऐसी ही टोली का नायक था-रघुपतिसिंह।
रघुपतिसिंह महाराणा प्रताप की सेना में सम्मिलित होकर युद्घरत रहा था। मुगल सैनिकों ने अब उस वीर के घर का पता लगाकर उसे घेर लिया।
रघुपतिसिंह के घर में उसकी पत्नी और एक रोगी पुत्र था। जब रघुपतिसिंह को मुगलों की उक्त हरकत का पता चला तो वह अपने घर की ओर चल दिया।
दरवाजे पर पहुंचते ही उससे मुस्लिम सैनिक ने पूछ लिया-कौन हो तुम?
‘रघुपतिसिंह’ उसने सिंह गर्जना की। तब उस पहरेदार ने उसे पकडऩे की बात कही कि तुम्हारे लिए ही तो हम यहां इतने काल से पहरा दे रहे हैं। इस पर रघुपतिसिंह ने कहा कि-मैं अपनी गिरफ्तारी देने के लिए तैयार हूं। पर आप मुझे एक बार अंदर जाने दें, फिर मुझे गिरफ्तार कर लेना।
पहरेदार ने कहा-”यदि तू भाग गया तो  ….?”
रघुपतिसिंह ने कहा-”एक राजपूत के दिये गये वचन पर विश्वास करो…ऐसा नही होगा।”
रघुपतिसिंह भीतर गया और अपने पुत्र को देखकर लौटने लगा तब उसकी पत्नी ने रोते हुए कहा-अब कहां जाते हो? पुत्र पर दया करो। रघुपतिसिंह ने कह दिया कि-‘गिरफ्तार होने जा रहा हूं।’
पत्नी ने कहा कि-‘मैं गुप्त द्वार खोल देती हूं, उससे निकल जाओ।’ पर रघुपतिसिंह ने इंकार कर दिया। अपनी पत्नी को उन्होंने गुप्त द्वार से निकल भागने की सलाह देने के लिए धिक्कारा और कहा कि यह कहना देवी तुम्हारे मुंह से अच्छा नही लगा।
रघुपतिसिंह ने बाहर आकर मुगल सैनिक को कहा-लो कर लो गिरफ्तार। सैनिक ने उस महावीर की देशभक्ति, वचन के प्रति समर्पण भाव और वीरता को देखकर कहा कि जाओ, भाग जाओ मैं तुम्हें पकडऩा नही चाहता।
 समय आने पर इस उपकार का प्रतिकार देने का वचन देकर रघुपतिसिंह वहां से चला गया। पर जब मुगल सेनापति को अपने सैनिक के इस कृत्य की जानकारी हुई तो वह अत्यंत क्रोधित हुआ। कहते हैं कि उस सैनिक की मुश्क बांध ली गयी, और उस पर निर्ममता पूर्वक कोड़े बरसाये जाने लगे। तभी वहां अचानक रघुपतिसिंह प्रकट हो गया। उसने मुगल सेनापति से कहा कि मुझे गिरफ्तार कर लो, पर इस सैनिक को मत मारो।
तब रघुपतिसिंह की मुश्क बांध ली गयी और उसे मृत्युदण्ड दिया गया। जिस मुगल सैनिक की प्राण रक्षा रघुपतिसिंह ने आकर की थी उसने जब उस हिंदूवीर की वचन के प्रति निष्ठा देखी तो उसकी आंखें छलछला आयीं। रघुपतिसिंह बड़ी प्रसन्नता से बलिदान हो गया। उसके समक्ष भाग जाने का विकल्प था, भागने का पूर्ण अवसर था, वचन भंग करने का पूरा बहाना था, शत्रु को शत्रु से निपटवाने का एक अनैतिक तर्क था, पर उसने इन सबके चक्कर में न पडक़र अपने प्राणों को संकट में डाला और अंत में वीरगति को प्राप्त हो गया।
ये दोनों उदाहरण ‘हमारी गौरव गाथायें’ (लेखक मदन गोपाल सिंहल) से पाठकों के लिए लेखक के प्रति आभार व्यक्त करते हुए हमने यहां प्रस्तुत किये हैं।
इस पुस्तक की प्रस्तावना वीर सावरकर जी ने लिखी थी। इस पुस्तक की प्रस्तावना में सावरकर जी ने कहा है-”भारत के इतिहास की एक-एक पंक्ति में हमारा स्वर्णिम अतीत छिपा है। हमारे इतिहास में समस्त विश्व को प्रेरणा देने की महान सामथ्र्य विद्यमान है। जगदगुरू भारत से ही समस्त विश्व के कोने-कोने में ज्ञान बलिदान एवं शौर्य की ज्योतिर्मयकिरणें पहुंच गयी हैं।”
सावरकरजी का यह चिंतन सचमुच सराहनीय है। हमारे इतिहास की एक-एक पंक्ति से सचमुच ऐसी आभा निकलती है जिससे निराशा निशा में भटकते मानव के मानस को आशा का सूर्य चमकता दिखायी दे सकता है। उसे संकटों से जूझने की अदभुत शक्ति और प्रेरणा मिल सकती है।
हमें अपने इतिहास पर गर्व है,
क्योंकि यह शौर्य का पर्व है
काल के कपाल पर
वीरता के भाल पर
यह शौर्य का सूर्य है
यह गौरव का पुंज है
और तेज का निकुंज है
पौरूष इसका धर्म है,
हमें अपने आप पर गर्व है।

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