‘लहरी’ नही ‘प्रहरी’ बनें जनप्रतिनिधि
राजनीति के व्यापार में अपना भाग्य आजमाने के लिए लोग तिजोरी का मुंह खोले रखते हैं। अपने विरोधी को मैदान से हटाने के लिए या अपने लिए मैदान साफ रखने के लिए राजनीतिक लोग हर प्रकार का हथकंडा अपनाते हैं। अभी दिल्ली में एम.सी.डी. के संपन्न हुए चुनावों में भाजपा की एक बागी प्रत्याशी को मैदान से हटाने के लिए भाजपा के एक विधायक ने कथित रूप से उक्त प्रत्याशी को दस करोड़ रूपया देने की पेशकश की थी। इतनी बड़ी धनराशि देने का उनका उद्देश्य यही था कि यदि उस विद्रोही प्रत्याशी को हटाकर विधायक का अपना व्यक्ति वहां से जीतता तो अगले विधानसभा चुनावों में उनकी जीत वहां से पक्की थी और बागी प्रत्याशी का पत्ता भाजपा से सदा के लिए कट जाना था। पर उस विधायक की यह योजना सफल नहीं हुई, क्योंकि बागी प्रत्याशी ने मैदान नहीं छोड़ा और अच्छे मत लेकर भाजपा के प्रत्याशी को हरा दिया। एक विधायक अगली बार विधायक बनने के लिए यदि अभी से दस करोड़ रूपया खर्च कर रहा है तो अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत में राजनीति और लोकतंत्र का किस सीमा तक व्यापारीकरण हो चुका है? ऐसे में कोई मध्यमवर्गीय व्यक्ति भी चुनाव के बारे में कैसे सोच सकता है? ‘थैलीशाहों’ ने लोकतंत्र और राजनीति का अपहरण कर लिया है।
ये थैलीशाह ‘लोकमंदिरों’ (विधानसभा या देश की संसद) में ‘चांदी के जूते’ पहनकर जाते हैं और फिर वहां ‘चांदी ही काटते’ हैं। देश में अधिकांश जनप्रतिनिधि ‘निष्क्रियता पूर्ण अयोग्यता’ के शिकार होते हैं। ये विधानमंडलों के कार्यों में सक्रियता से न तो भाग लेते हैं, और न ही अपना कोई योगदान देते हैं। इनका कार्य विधान मंडलों में बैठकर ‘ऊॅघना’ और जनता में जाकर वोटों को ‘सूंघना’ होकर रह गया है। यही कारण है कि देश की संसद के लगभग 800 सांसदों में से दस प्रतिशत सांसदों के नाम भी समाचार पत्रों की सुर्खियों में नहीं आ पाते। यही स्थिति किसी राज्य के विधानमंडल की होती है। ऐसे लोकतंत्र का हम क्या करें-जिसके 90 प्रतिशत सांसद या जनप्रतिनिधि ‘निष्क्रियता पूर्ण आयोग्यता’ के शिकार हों?
इस अयोग्यता के आने के कई कारण हैं। एक तो यह है कि ये लोग धनबल व ‘गन’बल से सत्ता हथियाते हैं अर्थात जनप्रतिनिधि बनते हैं। इनके साथ जनबल नहीं होता। जनबल लोकतंत्र का प्राण होता है जिसे ये ‘गन’बल से समाप्त कर देते हैं। किसी हत्यारे से आप यह अपेक्षा नही कर सकते कि वह जनसेवी होगा क्योंकि उसके चिंतन में हत्या के विचार उभरते रहते हैं और उसकी सारी सृजनशील शक्तियां या ऊर्जा नकारात्मकता में ही व्यय होती रहती है। लोकतंत्र के प्राणों को लेने वाले ‘लोकमंदिरों’ में बैठकर अपवित्रता के भाव तो फैला सकते हैं, पर कभी पवित्रता के भाव नही फैला सकते। ऐसे लोग विधानमंडलों में इसलिए निष्क्रिय रहते हैं कि उन्हें अपनी सीट ‘गन’बल से निकाल लेने का पूरा विश्वास रहता है।
दूसरे प्रकार के वे जनप्रतिनिधि है जो किसी ‘लहर’ में बहकर जनप्रतिनिधि बन जाते हैं। उन जनप्रतिनिधियों का अपना कोई आभामंडल नहीं होता, इसलिए वे अपने नेता के सामने विधानमंडलों में भीगी बिल्ली बनकर बैठे रहते हैं। उन्हें अपने आभामंडल को अपने नेता के आभामंडल में विलीन करने में ही प्रसन्नता होती है। अब ऐसे जनप्रतिनिधियों से आप कैसे आशा कर सकते हैं कि वे विधानमंडलों में आपकी आवाज को उठाएंगे? उन्हें ऐसा विश्वास होता है कि अपने नायक के गुणगान करो और ‘नायक चालीसा’ का जाप ही उन्हें चुनावी सागर से पार लगा देगा। इसलिए ये बेचारे ‘जन चालीसा’ (जनसेवा) का पाठ न पढक़र ‘नायक चालीसा’ का जाप करते रहते हैं। इस प्रकार के जनप्रतिनिधियों की देश में बड़ी संख्या है। इनमें से अधिकांश आपराधिक पृष्ठभूमि के नही होते पर ये अपनी आत्मा को बेचकर मौन साधे बैठे रहते हैं। इसलिए इनका नाम कभी भी समाचार पत्रों में नहीं आता, या आता है तो कभी-कभी छोटे सी समाचार में आ जाता है।
सत्ता में अपने लिए ‘प्रबंध’ और दूसरे के लिए ‘प्रतिबंध’ का खेल चलता रहता है। जो थोड़े से मुखर जनप्रतिनिधि होते हैं वे इस खेल में पारंगत होते हैं। वे दूसरों का रास्ता रोकने (प्रतिबंध) और अपना रास्ता प्रशस्त करने (प्रतिबंध करने) की कला को जानते हैं। इस प्रकार के जनप्रतिनिधि सत्ता में लॉबिंग करते देखे जा सकते हैं। इसीलिए ये कुछ मुखर रहते हैं। पार्टी के भीतर पार्टी बनाकर ये लोग सत्ता को भ्रमित करने या अपने अनुसार हांकने का भी प्रयास करते हैं। ये ऐसी शक्ति भी रखते हैं कि चुनावों के समय किसी का टिकट भी कटवा सकते हैं। इनके चिंतन में भी राष्ट्रचिंतन कम और अपने आपको सत्ता हिलाने में समर्थ दिखाने की चाह अधिक होती है। इस प्रकार इनसे भी देश का भला नहीं हो पा रहा। देश के विधानमंडलों का अधिकांश समय हमारे जनप्रतिनिधियों की अनुपस्थिति में व्यतीत हो जाता है। देश में एक ‘संतरी’ से अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी ड्यूटी पर चौबीसों घंटे तैनात रहे-पर देश के इन ‘लहरी’ (लहर में जीतकर आये) जनप्रतिनिधियों को उनकी ड्यूटी से भी मुक्त रखा गया है। तभी तो हमारे जनप्रतिनिधि विधानमंडलों में भी अधिकतर अनुपस्थित रहते हैं। जबकि देश के वास्तविक प्रहरी (संतरी) तो ये जनप्रतिनिधि ही हैं। यदि ये जनप्रतिनिधि ‘लहरी’ न बनकर ‘प्रहरी’ बन जाएं तो देश का शासन वास्तव में लेागों के कल्याण का प्रतीक बन जाए।
देश में चुनावों के समय कोई ‘लहर’ बनना घातक होता है, क्योंकि उसमें ‘कूड़ा-कबाड़’ बहकर ‘लोकमंदिरों’ में चला जाता है। अच्छा हो कि ‘लहर’ की प्रतीक्षा न करके हमारे प्रतिनिधि अपने कार्यों के बल पर जीतें और देश के विधानमंडलों अर्थात लोकमंदिरों की पवित्रता में वृद्घि करें।