नेहरू, चीन और शांतिपूर्ण सह -अस्तित्व की अवधारणा-2

शीतयुद्घ का काल
यूरोप उस समय विश्व राजनीति का केन्द्र बिन्दु था। इसके सारे राष्ट्रों की पारस्परिक ईष्र्या, द्वेष, डाह और घृणा की भावना ने विश्व को दो महायुद्घों में धकेल दिया था। द्वितीय विश्वयुद्घ के पश्चात भी इनकी ये बातें समाप्त नही हुईं, इसलिए संसार ‘शीतयुद्घ’ के दौर में प्रविष्ट हो गया।
उसने आग से खेलकर तो देख लिया था अब बर्फ से खेल रहा था। बर्फ भी ऐसी कि जो उसके अंगों को छूते ही गलाना आरंभ कर देती थी। उस समय पानी की आवश्यकता थी-जो आग और बर्फ दोनों के लिए ठीक रहता। भारत ने घोषणा तो इसी रास्ते को अपनाने की की, किंतु वह राष्ट्रमंडल की गोद में जाकर जब बैठा तो विश्व नेताओं ने उसकी इस बात पर अधिक विश्वास नहीं किया। राष्ट्रों के ईष्र्या-भाव, पारस्परिक द्वेष और घृणाजन्य परिस्थितियों के मध्य कुटिल राजनीति के खेल में नेहरूजी का आदर्शवाद यूं बह गया जैसे मानों वह था ही नहीं।
 विचारधाराओं के युद्घ
चीन ने अपने लिए जिस रास्ते को चुना वह ‘साम्यवाद’ का रास्ता था और भारत ने जिस रास्ते को चुनाव वह ब्रिटेन का अनुकरण करते हुए संसदीय लोकतंत्र का मार्ग था। चीन को भारत के द्वारा ब्रिटेन की ऐसी नकल भी अरूचिकर लगी।
विचारधाराओं की लड़ाई में चीन ने अपनी साम्यवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना अपना ध्येय घोषित किया। इसके सहारे उसे विश्व के पिछड़े कुचले और शोषित समाज की प्रशंसा मिली। इन लोगों को ऐसा लगा कि मानों तुम्हारे हितों का संरक्षक विश्व में कोई है तो वह सिर्फ चीन ही है।
यही कारण है कि सन 1962 ई. में चीन के आक्रमण करने पर भारत में भी साम्यवादियों ने चीनी सेनाओं का स्वागत किया था। उन्हें चीनी सेना ऐसे नही लगी थी कि ये किसी शत्रु राष्ट्र की सेना है जो हमारे राष्ट्र को हड़पना चाहती है, अपितु उन्हें लगा कि ये हमारी ही सेना है जो एक साम्यवादी समाज की संरचना का संदेश लेकर हमारे मध्य ‘देवदूत’ बनकर आ उपस्थित हुई है। राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम इस भावना के समक्ष ऐसे उड़ गये जैसे हवा में कपूर उड़ जाता है। चीन ने विस्तारवादी नीति को अपनाया और तिब्बत को हड़प गया। ब्रिटिश काल में ब्रिटिश सरकार ने भी तिब्बत पर उसके दावे को एक बार मान लिया था। इसलिए नेहरूजी ने अपनी पूर्ववर्ती सरकार का अनुकरण करते हुए तिब्बत के विषय में कोई ना नुकुर नहीं की और सहजता से ही तिब्बत को चीन को निगल जाने दिया।
अब चीन और भारत के बीच एक नेपाल ही रह गया। एक पहाड़ी देश जो भारत के निकट था-उस तिब्बत को सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक कारणों से चीन का विस्तारवाद डकार गया। नेहरूजी असहाय बने देखते रह गये। जब चीन हमारे और निकट आ गया तब उसके रक्तिम पंजों को देखकर नेहरू जी सावधान हुए और वह आशंकित रहने लगे थे चीन के प्रति। सन 1950 ई. तक जो संकेत और संदेश चीन की ओर से आ रहे थे वे यही थे कि वह इस प्राचीन राष्ट्र को पसंद नहीं करता था। इसलिए नेहरूजी ने टीएन कौल पूर्व राजनयिक को बुलाकर कहा था-”बलशाली संयुक्त लड़ाकू साम्यवादी चीन और लोकतांत्रिक संगठित गुटनिरपेक्ष भारत की आपास में बनेगी या नहीं? कुछ कहा नहीं जा सकता। चीन विगत दिनों में भी जब वह साम्यवादी नही था विस्तारवादी रहा है और भविष्य में भी विस्तारवादी हो सकता है।” इसलिए नेहरू जी का प्रयास था कि कोई ऐसा रास्ता खोजा जाए जिससे चीन हमारी सम्प्रभुता का सम्मान करने की प्रत्याभूति दे सके। इसके लिए ही उन्होंने चीन में तत्कालीन राजदूत ‘पणिक्कर’ के साथ काम करने के लिए टीएन कौल को वहां भेजा था। सन 1950 के दशक में टीएन कौल चीनी नेताओं को हल्का सा इस बात के लिए राजी कर चुके थे कि चीन अपने पड़ोसियों की अपने विषय में बन रही विस्तारवदी छवि और तदजनित भय को दूर कर सकता है। किंतु समय आने पर इसकी एकपक्षीय नहीं अपितु द्विपक्षीय घोषणा की जाएगी।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715

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