सूर्य के प्रकाश की भांति भारतीय गगनमंडल पर छा गया छत्रसाल
महाराज जनक की आनंदाग्नि
राजा जनक अपने दरबार में वेदव्यास जी के साथ गंभीर शांत चर्चा में निमग्न थे। वेदव्यास जी राजा के समक्ष गूढ़ तत्वों की मीमांसा कर रहे थे। बड़ी उत्कृष्ट चर्चा चल रही थी। चारों ओर इतना आनंद था कि मानो अमृत वर्षा हो रही हो। राजा जनक शांतमना उस अमृतवर्षा का रसास्वादन कर रहे थे। बड़े आनंदित थे-राजा जनक।
तभी अचानक कोलाहल मच गया। आवाज आयी-‘आग-आग।’ किसी ने स्पष्ट कह दिया कि राजभवन में आग लग गयी है। अग्निदेव अपनी प्रचण्डता का प्रदर्शन कर रहा था, और राजा के भाण्डागार, कोषागार को और आयुधागार को अपनी प्रचण्डता में समेटते और विनष्ट करते हुए उसकी भयावह जिह्वा लपलपाते अब सभागार की ओर बढऩे लगी।
सेवक और परिचायक बार-बार राजा जनक को चेता रहे थे-महाराज आग! पर महाराज आज भी नित्य की भांति एक दूसरी ही अग्नि (अध्यात्म आनंद की अग्नि) का आनंद ले रहे थे। वह ऐसी अग्नि थी जो सारे भौतिक बंधनों को जलाकर व्यक्ति के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार कराती है। उस अग्नि की अनुभूति संसार के हर किसी व्यक्ति को नही होती। बड़े भाग्य से बहुत कम लोगों को उसका साक्षात्कार होता है। संसार के भौतिक ऐश्वर्य उस आनंदाग्नि के साक्षात्कार के समक्ष तुच्छ और नगण्य है।
अत: राजा जनक जलते दरबार की चिंता छोड़ ‘बड़े दरबार’ के सदस्य बने मौन रहकर वेदव्यास की मीमांसा को ध्यानपूर्वक सुनते रहे।
आग जब और निकट आ गयी तो महर्षि व्यास की शिष्यमंडली को भी चिंता हुई और वह भी राजा को बचाने के लिए भागदौड़ करने लगी। किंतु वह दोनों ही पूर्ववत ज्ञान चर्चा करते रहे। तब महर्षि ने पूछ लिया-
”राजन तुम्हारी यत्न से उत्पन्न की गयी संपूर्ण धन संपदा और वैभवपूर्ण राजप्रासाद इस भीषण अग्नि में ‘स्वाहा’ होते जा रहे हैं। पर तुम उनके बचाने का कोई उपाय नही कर रहे हो, ऐसा क्यों?”
राजा जनक ने शांत स्वर में कहा-‘महर्षि मेरा इस संसार में क्या है? फिर जो मेरा नही है उसके जाने का शोक ही मैं क्यों करूं? आपकी मीमांसा में जो रस आ रहा है, उसके समक्ष ये सारे धन-ऐश्वर्य तुच्छ हैं, इसलिए इनकी मुझे कोई चिंता नही है। आप मीमांसा निरंतर जारी रखें।’
अध्यात्म आनंद की अनुभूति करते समय किसी भी महापुरूष को अपने प्राणों की चिंता ना रहे यह तो विश्व के अन्य देशों के इतिहास में भी उपलब्ध हो सकता है, परंतु एक सांसारिक व्यक्ति को भी राष्ट्रभक्ति और स्वराज्य के समक्ष निज प्राण भी तुच्छ और नगण्य लगने लगें, यह परंपरा तो केवल भारत की है। बस, केवल इसीलिए हमने यहां राजा जनक की उपरोक्त आनंदाग्नि का उल्लेख किया है। जैसी मस्ती राजा जनक को अपनी आनंदाग्नि में अनुभव हो रही थी वैसी ही मस्ती हमारे बलिदानियों को राष्ट्र की बलिवेदी पर अपने प्राण न्यौछावर करते समय हो रही थी।
मुगलों से युद्घ
इसी परंपरा का निर्वाह करने वाला छत्रसाल बलदाऊ से बल प्राप्त कर आगे बढ़ा। बलदाऊ उनके साथ थे। जिन्हें छत्रसाल ने अपनी सेना का सहायक सेनापति नियुक्त कर लिया था। जबकि वह स्वयं मुख्य सेनापति बनाये गये थे। यह भी निश्चित हो गया कि मुगलों से जो संपत्ति प्राप्त की जाएगी उसमें से 55 प्रतिशत भाग छत्रसाल का तथा 45 प्रतिशत भाग बल दीवान का होगा। दोनों ने मिल बैठकर संघर्ष के लिए कुछ प्रतिज्ञाएं निर्मित कीं। तब छत्रसाल ने अपना विजय अभियान आरंभ किया। इस समय छत्रसाल के पास केवल तीस घुड़सवार तथा तीन सौ पैदल सैनिक ही थे। इस वीर योद्घा ने इतनी सी शक्ति को लेकर ही विशाल मुगल साम्राज्य के विरूद्घ संग्राम की घोषणा कर दी।
बांकी खां बन गया भारत भक्त
छत्रसाल की वीरता, गंभीरता और धीरता शत्रु पक्ष को भी प्रभावित कर रही थी। मुट्ठी भर सैनिकों को लेकर कोई साहसी योद्घा मुगल साम्राज्य के पहाड़ से टकराने के लिए चले और स्वतंत्रता का उद्घोष करे-यह बात उस समय हास्यास्पद लगती थी, परंतु जो लोग छत्रसाल को समझ रहे थे या समझ गये थे उनके लिए उसका साहस और वीरता के ये गुण अनुकरणीय हो गये थे।
बांकी खां नामक एक लुटेरा अफगान सरदार उसके गुणों से इतना प्रभावित हुआ कि वह ‘भारत भक्त’ ही बन गया। उसने अपने नाम के साथ बुंदेला शब्द भी जोड़ लिया। इस सरदार ने इसके पश्चात छत्रसाल का हर युद्घ में साथ दिया। उसकी वीरता से बुंदेलखण्ड उसका ऋणी हो गया। ऐसे मित्र और ‘भारतभक्त’ सरदार बांकी खां को हम सब का नमन।
धंधेरों ने की छत्रसाल से संधि
धंधेरखण्ड में उस समय कुंवरसेन धंधेरा का शासन था। इस राज्य ने भी राजा चंपतराय के साथ विश्वासघात किया था। छत्रसाल ने इस राज्य से दो-दो हाथ करने का निर्णय लिया और धंधेरों को परास्त कर उनसे कभी भी मुगलों की दासता स्वीकार न करने का वचन लिया। धंधेरों ने भी अपनी एक राजकन्या का विवाह छत्रसाल से करके संधि करने में ही अपना लाभ समझा।
विजय अभियान आगे बढ़ा
छत्रसाल ने 1671 ई. में अपना स्वाधीनता अभियान आरंभ किया। केवल वर्ष भर में ही उसने नौगांव से चार मील दक्षिण में मऊ सहामियां तक का क्षेत्र जीतकर अपने आधीन कर लिया था।
जब छत्रसाल यहां से आगे औडेर की ओर बढ़े तो मौहम्मद हाशिम शाह ने उनका मार्ग रोकने का प्रयास किया। जिसके लिए छत्रसाल ने अपना तोपखाना आगे कर शत्रु को अपनी युद्घनीति का ऐसा मजा चखाया कि सिरोंज का पतन हो गया। सिरोंज के आसपास से लूट का सामान लेकर छत्रसाल पुन: औंडेर की ओर चल पड़ा। वहां पहुंचकर छत्रसाल ने औंडेर के पटेल (जमींदार) को पकडक़र मंगवा लिया। उसके पास मुगलों का खजाना था। उसने भयभीत होकर राजकोष की कुंजी छत्रसाल को दे दी।
यहां से छत्रसाल को बड़ी संपत्ति हाथ लगी इसके पश्चात स्वतंत्रता के लिए सैनिक भर्ती अभियान में छत्रसाल को सुविधा हो गयी। इसके पश्चात पिपरहट झांसी का मडोरा परगना और धौरा सागर में भी छत्रसाल ने प्रवेश किया और इस क्षेत्र से भी पर्याप्त धन उसे मिला। बहुत से वीरों ने छत्रसाल की सेना में प्रवेश किया।
इसके पश्चात धामौनी के फौजदार खालिक को बंदी बनाकर उससे भी 30,000 रूपया प्राप्त किया। छत्रसाल ने उसकी सेना और सत्ता दोनों छीनकर उसे मुक्त कर दिया। अभी छत्रसाल का विजय अभियान और आगे बढ़ा तो रानिगिरि पहुंचा। जिसे उसने जीत लिया तब रीवा राज्य के अंतर्गत पडऩे वाले मैहर राज्य के जागीरदार माधवसिंह गुर्जर को भी परास्त कर दिया। माधवसिंह ने तीन सौ रूपया वार्षिक नजराना देना स्वीकार किया। अत: छत्रसाल ने माधवसिंह को मुक्त कर दिया।
इस प्रकार छत्रसाल मुगल साम्राज्य के भीतर स्थित जागीरों को ध्वस्त कर उन पर अपना नियंत्रण स्थापित करता जा रहा था। इसी क्रम में उसने बांसा के जागीरदार केशवराव रांगी को जा घेरा। वह बड़ा ही अभिमानी शासक था। जिसे परास्त किया जाना उस समय नितांत आवश्यक था। जब छत्रसाल उसके राज्य में पहुंचा तो वह युद्घ के लिए सेना सहित आ धमका। छत्रसाल की ओर से बलदीवान को केशवराय से द्वंद्व युद्घ करने की बात छत्रसाल के मंत्रियों ने कही, पर केशवराय के अहंकार को मिटाने के लिए छत्रसाल स्वयं ही आगे बढ़े और केशवराय से संघर्ष करने लगे। दोनों ओर की सेनाएं इस संघर्ष को देखती रहीं। कुछ ही देर के रोमांचकारी संघर्ष के पश्चात केशवराय को सदा-सदा के लिए छत्रसाल ने शांत कर दिया। इस युद्घ में मिली सफलता के पश्चात केशवराय का पुत्र विक्रम सिंह छत्रसाल की शरण में आ गया। छत्रसाल ने उसे अपनी सेना का अधिकारी बनाकर बोसा का राजा बना दिया। यहां तक कि उससे मिला खजाना भी उसे लौटा दिया गया। इस समय छत्रसाल की अवस्था मात्र 23 वर्ष की थी।
अदभुत युद्घनीति थी छत्रसाल की
‘शक्तिपुत्र छत्रसाल’ के लेखक सोमदत्त त्रिपाठी ‘पथिक’ हमें बताते हैं कि छत्रसाल की युद्घनीति चमत्कारिक और अद्भुत थी। एक बार मुगल सेना के सेनापति बहादुर खां ने अचानक छत्रसाल को जंगल में घेर लिया। तब छत्रसाल ने सोचा कि इस जंगल में इस मुगल सेनापति से युद्घ करके कुछ मिलना तो है नही, तो अपनी शक्ति का अपव्यय क्यों किया जाए? इसलिए वह अपनी सेना को एक गुप्त रास्ते से निकालकर अपने मित्र बांकी खां की जागीर में ले गये। योजना इतनी गोपनीय थी कि शत्रु पूर्णत: छला गया, वह छत्रसाल को जंगल में ढूंढता रह गया और छत्रसाल कहीं ढूंढ़े नही मिला।
लेखक का कथन है-”बहादुर खां धीरे धीरे अपना घेरा छोटा करता चला गया। उसे पूरा भरोसा था कि छत्रसाल की सेना बीच जंगल में पकड़ ली जाएगी तथा उसे बुरी तरह से कुचल दिया जाएगा, हमेशा की तरह झंझट समाप्त हो जाएगा, परंतु सारा जंगल छानते हुए जब उसकी सेना ने अपना घेरा समेटा और बीच में पहुंची तो उसे न तो कहीं छत्रसाल मिले न ही छत्रसाल की सेना का कोई चिह्न। वह चकित रह गया। बहादुरखां ने अपनी सेना को घाटी में उतार दिया। वहां भी ठोकरें खाने के अतिरिक्त उसके साथ कुछ नही लगा।”
सैयद बहादुर को भी मिली असफलता
सैयद बहादुर एक पठान फौजदार था। छत्रसाल इस समय अपने विश्वसनीय साथी बांकी खां बुंदेला के यहां विश्राम कर रहे थे। तब सैयद बहादुर ने उनके पीछे गुप्तचर छोड़ दिये। एक दिन उसे ज्ञात हुआ कि छत्रसाल जंगल में अपने पांच-सात साथियों के साथ मिलकर शिकार खेलने जा रहे हैं, तो उसने छत्रसाल को जंगल में ही घेरने की रणनीति बनायी। वह औरंगजेब की प्रशंसा और पुरस्कार पाने केे लिए छत्रसाल को छल-कपट से मार देना चाहता था। जब उसकी चढ़ाई की जंगल में छत्रसाल को जानकारी हुई तो उन्होंने ऐसी व्यूह रचना की कि शत्रु यह नही समझ पाया कि उनके सैनिकों की संख्या कितनी है? अलग-अलग मोर्चों से गोलीबारी होती और सैयद बहादुर के सैनिक मारे जाते जिससे दुखी होकर सैयद बहादुर मैदान छोडक़र भाग गया। इस विजय के पश्चात छत्रसाल ने बसवा, पवायां आदि कई मुगलाधीन गांवों को लूटा।
आगे की योजना
1673 ई. में औरंगजेब ने छत्रसाल से निपटने के लिए रणदूल्हा खां नामक सरदार को भेजा। वह एक बड़ी सेना लेकर आया, पर छत्रसाल की वीरता और पराक्रम को देखते हुए उसका साहस छत्रसाल पर आक्रमण करने का नही हुआ। छत्रसाल ने उससे निपटने की तैयारी की, पर जब देखा कि वह आक्रमण नही कर पा रहा है-तो वह ग्वालियर की ओर अपने विजय अभियान पर निकल गया। यहां का सूबेदार मुनौव्वर खान था।
छत्रसाल के आक्रमण से वह अत्यंत भयभीत हो गया था। पर वह युद्घ के लिए बाहर आ गया। युद्घ आरभ हो गया। मुनौव्वर खान को ज्ञात हो गया कि आज किस वीर से पाला पड़ा है? उसके सैनिक मरने लगे। मुनौव्वर खान की सेना निरंतर घटती जा रही थी-कुछ ही समय में मुनौव्वर खान की सेना में भगदड़ मच गयी। छत्रसाल यहां से पर्याप्त धनराशि लेकर आगे बढ़ा। मुनौव्वर खान पर छत्रसाल की यह विजय बहुत ही महत्वपूर्ण थी।
संयुक्त सेना को भी किया परास्त
इसके पश्चात सिरौज के थानेदार मुहम्मद हाशिम मुनौव्वर खान और चौधरी आनंदराय बंका की संयुक्त सेनाओं ने छत्रसाल को घेरने की योजना बनाई। इन तीनों को भी युद्घ में छत्रसाल ने परास्त किया और स्वतंत्रता का यह परम आराधक मां भारती का सच्चा सपूत अपने शत्रुओं को परास्त कर पुन: अपने विजय अभियान पर आगे बढ़ चला। अब उसकी वीरता और पराक्रम का सामना करना हर किसी के वश की बात नही रही थी।
इसके पश्चात वह हनूटेक पहुंचा, जहां के स्वतंत्रता प्रेमी लोगों ने उसका हार्दिक स्वागत किया। हमारे देश में उस समय जनसाधारण को सदा ऐसे जननायक की इच्छा बनी रहती थी-जो स्वतंत्रता का ध्वजवाहक हो और जो उन्हें किसी भी आपत्ति में पूर्ण सहायता प्रदान कर सके और उनकी रक्षा कर सके। ये गुण छत्रसाल के भीतर इन लोगों को दिखाई दिये, इसलिए जब छत्रसाल यहां पहुंचे तो उन लोगों ने इस वीर क्षत्रिय का हार्दिक अभिनंदन किया।
मोहार के धंधेरे हरिसिंह ने अपनी कन्या उद्देत कुंवरि का विवाह छत्रसाल के साथ करके उसकी आधीनता स्वीकार की। इस प्रकार के कई प्रमुख वैवाहिक संबंधों से छत्रसाल की शक्ति में निरंतर वृद्घि होती जा रही थी और शत्रु उसकी बढ़ती शक्ति से भयभीत होते जा रहे थे।
मुझे ही अपना पुत्र मान लो
जब छत्रसाल हनूटेक में था, तो एक पड़ोसी गांव पर कुछ मुगल सैनिकों ने आक्रमण कर दिया। छत्रसाल उस समय मृगया (शिकार) पर था। उस पड़ोसी गांव में मुगल सैनिकों ने जमकर लूटपाट की। धन-संपदा को तो उन्होंने परस्पर बांट लिया पर एक रूपसी हिन्दू कन्या को नही बांट पा रहे थे-इसलिए उसे लेने के लिए परस्पर झगडऩे लगे। तब निर्णय हुआ कि उसका सब मिलकर कौमार्य भंग करें।
वह कन्या अपनी अस्मिता की रक्षार्थ चीखती-चिल्लाती रही पर उन दुष्टों पर कोई प्रभाव नही हुआ।
छत्रसाल उस चीख-चिल्लाहट और आत्र्तनाद को सुनकर वहां जा पहुंचे। उस कन्या की अस्मिता की रक्षा उन्होंने की। वे दुष्ट आततायी जो उस कन्या का कौमार्य भंग करने पर आतुर थे-छत्रसाल को देखकर भाग गये। कन्या ने छत्रसाल को बताया कि मेरे पिता संपन्न क्षत्रिय थे। जो अब मारे गये।
इसके साथ ही उसने छत्रसाल के सामने अपनी समस्त संपदा को देने और स्वयं को पत्नी रूप में अपनाने का प्रस्ताव रखा। परंतु छत्रसाल ने हाथ जोडक़र उससे निवेदन किया कि देवी ऐसा ‘पाप’ मुझसे मत कराओ। इस पर उस कन्या ने कहा कि-मैं आप जैसा पुत्र चाहती हूं, मुझे वह आपसे ही मिलेगा। इस पर उस धर्मवीर योद्घा ने कह दिया कि-‘आप चाहें तो मुझे ही अपना पुत्र मान लें।’
वह देवी मौन हो गयी। पर हमें इस घटना से छत्रसाल के उच्च चरित्र का पता चलता है, इसे जिसने भी सुना-वही उस समय उसकी प्रशंसा किये बिना नही रहा।
हिन्दू योद्घा का छत्रसाल के प्रति समर्पण भाव
इसका परिणाम यह हुआ कि बहुत से हिंदू योद्घा छत्रसाल से आकर मिलने लगे और उनके स्वराज्य प्राप्ति हेतु किये जा रहे प्रयासों में सहायता के लिए स्वयं को प्रस्तुत करने लगे।
‘वीर छत्रसाल’ के लेखक कृष्ण रमाकांत गोखले से हमें पता चलता है कि-इस प्रकार उनसे आकर मिलने वाले शूरवीरों में सबसे प्रथम तो उनके भाई रतनसिंह ही थे। उसके पश्चात दीवान राम जू, पृथ्वीरनजू माधोराव, बसंत, उदयभान, दीवान अमरसिंह, प्रतापसिंह, चंद्रसिंह, कर्णसिंह आदि वीर बुंदेलों ने भी अपने आपको छत्रसाल के साथ मिला लिया। इनके अतिरिक्त सबलसिंह, केशवराय, परिहार धारूशाह परमार, दीवानचंद बुंदेला, अमीरसिंह, राव इंद्रमन, उग्रसेन कछवाहा, जगतसिंह, एकतसिंह, छत्रसाल के चाचा, जामशाह, बखतसिंह धंधेरे, देव दीवान, भरतशाह, अजीतराय, जसवंत सिंह व चित्रांगाव (बलदीवान के पुत्र) राजसिंह, जयसिंह, यादवरनय, गाजीशाह और गुमानसिंह दौवा आदि भी छत्रसाल की सेना में आकर अपने सहयोगियों सहित मिल गये।
ऐसे और भी बहुत से वीर बुंदेले थे जो अब छत्रसाल के साथ स्वतंत्रता का बिगुल फूंकने को उद्यत थे। उनके लिए स्वतंत्रता का सुरीला संगीत उतना ही आनंदानुभूति कराने वाला था, जितना राजा जनक के लिए वेदव्यास का मीमांसा पाठ आनंद उत्पन्न करने वाला था। बड़ी तन्मयता और देशभक्ति की भावना के साथ इन वीर योद्घाओं ने इस समय की मुगल सत्ता से अपने प्राणों को छत्रसाल के हाथों वैसे ही सौंप दिया-जैसे आगे चलकर सुभाषचंद्र बोस को ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’-के उनके आवाह्न पर देश के वीरों ने अपना सर्वस्व उन्हें समर्पित करने का निर्णय ले लिया था।
लोग थे कि खून देने के लिए स्वयं को ऐसे प्रस्तुत कर रहे थे जैसे वह गिलास में पानी भरकर उसे उनकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हों। देशभक्ति का रोमांचोत्पादक दृश्य था यह। स्वतंत्रता की देवी फूली नही समा रही थी। इतनी बड़ी संख्या में अपने रक्षकों को देखकर उसका आनंद भी द्विगुणित हुआ जा रहा था। चारों ओर एक निर्मम सत्ता को उखाड़ फेंककर ‘स्वतंत्र हिंदू राज्य’ के निर्माण का सपना लोगों की आंखों में तैर रहा था। छत्रसाल शत्रुसाल बनते जा रहे थे-चहुं ओर उनकी जय-जयकार हो रही थी। निर्मम औरंगजेब की क्रूर और निर्दयी सत्ता को उसके नाम से ही पसीना आने लगा था।
छत्रसाल का ओजस्वी संबोधन
अपने साथ मिलने वाले अनेकों हिंदू शूरवीरों को देखकर छत्रसाल का उत्साह भी बढ़ता जाता था। भारत की स्वतंत्रता के लिए एकत्र हो रहे इन पराक्रमी साथियों को संबोधित करते हुए छत्रसाल ने अपना मंतव्य और गंतव्य स्पष्ट करते हुए उसे केवल मुगल सत्ता से मुक्ति के रूप में चिन्हित किया। उसके ओजस्वी भाषण और तेजस्वी विचारों को सुनकर लोगों की भुजाएं फडक़ने लगीं और उनके भीतर क्रांति की ज्वाला धधक उठी थी।
छत्रसाल के विचारों को शब्द देते हुए अनेक विद्वानों और इतिहासकारों ने अपने-अपने ढंग से उस समय के दृश्य का चित्रण करने का प्रयास किया है। श्री पथिक लिखते हैं-”बुंदेल भूमि के वीरो! अपनी वीर प्रस्विनी मातृभूमि आज पराधीन है। उस पर परकीयों की सत्ता है। वह पदाक्रांत है। हमारी भीरूता के कारण ही हमारी मातृभूमि आज अपने मुंह पर आंचल डाले अपमान के आंसुओं से नहा रही है। हम उसके रणबांकुरे पुत्र परस्पर कलह करते हुए एक दूसरे के रक्त को निरर्थक बहा रहे हैं। अपने पुत्रों की इस आत्म विस्मृति और पारस्परिक द्वेष ज्वाला से मां का शरीर झुलस रहा है। ऊपर से मुगल सत्ता उसके घावों पर नींबू और नमक निचोड़ रही है। क्या यह मातृभूमि का मस्तक हम सब के रहते हुए लज्जा से यों ही झुका रहेगा? हम अपनी मातृभूमि को संसार में सबसे अधिक प्रसन्न रखने में समर्थ होते हुए भी असमर्थ ही बने रहेंगे?”
जब औरगंजेब को छत्रसाल के इस प्रकार के दुस्साहसपूर्ण कार्यों की जानकारी मिली तो उसने 22 वजीर और 8 सरदारों को सेना तैयार करने का आदेश दिया। फौजदार रणदूला को इस सेना का सेनापतित्व प्रदान किया गया। रणदूला ने तीस हजार की मुगल सेना के साथ छत्रसाल का विनाश करने के लिए प्रस्थान किया। उसने इस बार एक अच्छा तोपखाना भी साथ में लिया। उसके साथ ओरछा, दतिया, धामौनी, और चंदेरी के कुछ बुंदेले भी छत्रसाल को दंडित करने के लिए चल दिये।
मुगलों को फिर किया परास्त
छत्रसाल ने ‘गढ़ाकोटा’ नामक स्थान पर पहुंचकर शत्रुसेना का सामना करना चाहा। इस स्थान पर मुगलों का ही नियंत्रण था-इसलिए मुगल सेना के आने से पूर्व गढ़ाकोटा को छत्रसाल ने अपने आधीन कर लिया। जब रणदोला की सेना वहां पहुंची तो उसे शाहगढ़ की पहाडिय़ों पर घेर लिया गया। चारों ओर से उस पर भयंकर तीर व गोली चलायी जाने लगी। कहा जाता है कि तीव्र प्रहार से मुगल सेना की बहुत भारी क्षति हुई। उसका पांचवां भाग समाप्त हो गया। तब मुगल सेना गढ़ा कोटा की ओर बढ़ी। जहां छत्रसाल का पहले ही आधिपत्य हो चुका था, पर छत्रसाल ने गढ़ा कोटा से मुगलों का झण्डा नही उतारा था। जिससे मुगल सेना को भ्रांति हो गयी कि छत्रसाल की सेना अभी यहां नही पहुंची है। इस भ्रांति से मुगलों को यहां ऐसी मार पडी कि उनकी तीस हजार की सेना में से सात सौ सैनिक मार डाले गये, उनके दस सरदार भी युद्घ में काम आये। छत्रसाल ने मुगलों की दस तोपें भी छीन लीं। रणदूला सेना सहित भाग लिया, पर छत्रसाल की सेना भी उसका पीछा करती रही। वह हनूटेक की ओर भागा वहां से ललितपुर की ओर, और फिर नरवर की ओर दौड़ लगाई।
छत्रसाल ने रणदूला की चकली घुमा दी। नरवर में छत्रसाल ने दक्षिण की ओर से आ रहे मुगल खजाने को लूट लिया। रणदूला को इस प्रकार भागते-फिरने का दण्ड औरंगजेब ने भी दिया। इस प्रकार बेचारे रणदूला पर दोहरी मार पड़ गयी।
औरंगजेब ने फिर रणदूला को युद्घ के लिए भेजा
रणदूला की इस कायरता को देखकर औरंगजेब को बड़ा क्रोध आया, उसने रणदूला को पुन: छत्रसाल से युद्घ के लिए भेजा। इस बार जब रणदूला बसिया पहुंचा तो उसे वहां छत्रसाल ने अचानक घेर लिया रणदूला के लिए घटना अप्रत्याशित थी। छत्रसाल ने रणदूला की सेना के पृष्ठ भाग के रक्षक गनीबेग से ऐसा समन्वय स्थापित किया कि वह टूटकर उसके साथ ही काम करने लगा। छत्रसाल ने अपनी सेना को युद्घ से अचानक हटा लिया और गनीबेग की सेना पर गोली चलाने का नाटक कराने लगे। गनीबेग ने अपनी सारी गोलियां मुगल सेना की बारूद में आग लगाने में प्रयोग करनी आरंभ कर दीं। इससे मुगल सेना में भगदड़ मच गयी। तब बुंदेले वीरों ने पुन: प्रबल प्रहार किया। मुगल सेना परास्त होकर लौट गयी। छत्रसाल के सैनिकों ने दौड़ा-दौड़ा कर मुगलों को मारना आरंभ कर दिया। कहते हैं कि मुगलों के जिस दस्ते ने छत्रसाल की सहायता की थी केवल वही सकुशल दिल्ली लौट पाया था।
इस प्रकार पराक्रम और प्रताप का प्रतीक बनकर छत्रसाल भारत की ढाल बनता जा रहा था। उसका सूर्योदय हो चुका था जो तेजी से भारत के राजनीतिक गगनमंडल पर चढ़ता जा रहा था, और अपने दिव्य प्रकाश से ऐसा तेज उत्कीर्ण कर रहा था जिससे हर भारतीय को गर्व और गौरव की अनुभूति हो रही थी।
क्रमश: