विमान शास्त्र के रचयिता महर्षि भारद्वाज

चिंतन जिसका उच्च है , होता वही महान।
आदर्श बने संसार का, भासता उसमें ज्ञान।।

वैज्ञानिक चिंतन और वैज्ञानिक सोच के आधार पर सर्वोच्च स्थान को प्राप्त करने वाले भारत के महान ऋषियों में ऋषि भारद्वाज का नाम आज अग्रगण्य है। उन्होंने अपनी गहरी साधना और अध्यात्म विद्या के बल पर प्राचीन काल में भारत के ऋषि मंडल में अपना सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त किया। इसके साथ साथ तत्कालीन क्षत्रिय समाज में भी उनके प्रति बड़े-बड़े राजा महाराजाओं की श्रद्धा भक्ति देखते ही बनती थी। कई लोगों को यह भ्रांति होती है कि ऐसी श्रद्धा भक्ति केवल एक अंधविश्वास मात्र है, जबकि भारत के ऋषियों के संदर्भ में सच यह है कि उनकी उत्कृष्टतम साधना के कारण निर्मित होने वाले उनके आभामंडल के समक्ष चक्रवर्ती सम्राट नतमस्तक होते थे। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि पूजा सर्वत्र ज्ञान की होती है। ज्ञानहीन व्यक्ति को तो हमारे शास्त्रों में पशु के समान माना गया है। हमें श्रद्धा के विषय में यह ध्यान रखना चाहिए कि संकल्प विकल्प में से, तर्क की उलझन में से, निकल कर सत्य की खोज के लिए डट जाने का नाम श्रद्धा है।
यदि इस चतुर्युगी के त्रेता काल में रामचंद्र जी का जन्म हुआ था तो रामायण काल को बीते हुए लाखों वर्ष हो चुके हैं। यह हम भारतीयों के लिए बहुत ही गर्व और गौरव का विषय है कि उस समय भी हमारे यहां पर विमान हुआ करते थे। ‘पुष्पक विमान’ इसका उदाहरण है। उस समय ऋषि भारद्वाज जैसे वैज्ञानिक ऋषि विद्यमान थे। जिन्होंने ‘वृहदविमान-भाष्य’ की रचना कर उसमें विमान बनाने की सारी तकनीकी का उल्लेख किया है। ऋषि भारद्वाज जी के इसी ग्रंथ को पढ़कर मुंबई के रहने वाले बापूजी तलपदे ने आधुनिक विश्व में सबसे पहले विमान जैसी चीज का आविष्कार कर जब उसका प्रदर्शन अंग्रेजों के सामने किया तो अंग्रेजों ने उनसे इस तकनीक को छीनकर राइट ब्रदर्स को दे दिया। इतना ही में बापूजी तलपदे के हाथ भी कटवा दिये, जिससे कि वह आगे कभी इस प्रकार की चेष्टा ना कर सके।
उसके बाद अंग्रेज नाम के उन चोरों ने हमारी विद्या की चोरी कर सारे संसार में यह ढिंढोरा पीट दिया कि राइट ब्रदर्स ने संसार का सबसे बड़ा चमत्कार करके दिखा दिया है। जिसके द्वारा मानव अब हवा में उड़ सकेगा। अब हमको इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि हम राइट ब्रदर्स को विमान बनाने का श्रेय न देकर अपने ऋषि भारद्वाज को इसका श्रेय प्रदान करें।
ऋषि भारद्वाज के विमान की विशेषता यह थी कि वह एक ही साथ जल, थल और नभ तीनों में उड़ान भर सकता था। यदि किसी कारण से जल में चलते हुए उसके पलटने या खराब होने या अन्य किसी प्रकार की कोई आपदा आ जाती थी तो वह ऐसी आपदा के आते ही कंप्यूटर जैसी तकनीक के माध्यम से स्वयं उड़ान भरने की स्थिति में आ जाता था और नभ मार्ग से उल्टा धरती पर आ जाता था। ऋषि भारद्वाज के वैज्ञानिक चिंतन की ऊंचाई तक वर्तमान भौतिक विज्ञान नहीं पहुंच सका है। ऋषि भारद्वाज के इस विमान शास्त्र में यात्री विमानों के साथ-साथ लड़ाकू विमान और स्पेस शटल यान का भी उल्लेख मिलता है। वर्तमान विश्व के वैज्ञानिक अभी जिन चीजों की कल्पना ही कर रहे हैं उन्हें ऋषि भारद्वाज ने अब से लाखों वर्ष पूर्व पूर्ण करके दिखाया था। उदाहरण के रूप में आज का वैज्ञानिक सोच रहा है कि एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर उड़ान भरने की स्थिति पैदा की जाए, जिससे अनेक ग्रह सीधे पृथ्वी के साथ जुड़ सकें और उनकी खबर पृथ्वीवासियों को मिलती रहे। इस व्यवस्था को हमारे ऋषि भारद्वाज ने उस समय पूर्ण करके दिखाया था। ऋषि भारद्वाज के विमान शास्त्र को पढ़ने से पता चलता है कि उन्हें वायुयान को अदृश्य कर देने की तकनीक काफी ज्ञान था।

बुद्धि बड़ी ही उच्च थी, ह्रदय में पवित्र भाव थे।
कल्याणार्थ मनुष्य मात्र के थे काम करते चाव से।।
थे पूर्वज महान अपने, जिन पर हमको गर्व है।
हर कर्म उनका मनुजता का आज भी तो पर्व है।।

          महर्षि भारद्वाज व्याकरण, आयुर्वेद संहिता, धनुर्वेद, राजनीतिशास्त्र, यंत्रसर्वस्व, अर्थशास्त्र आदि अनेक ग्रंथों के रचयिता हैं। 'चरक संहिता' की साक्षी है कि उन्होंने आत्रेय पुनर्वसु को कायचिकित्सा का ज्ञान प्रदान किया था। ऋषि भारद्वाज ही ऐसे पहले वैज्ञानिक ऋषि हैं जिन्होंने प्रयाग को बसाया था। इस नगर को उस समय पूर्णतया वैज्ञानिक आधार पर बसाया गया था। हमारे यहां पर तीर्थ स्थानों पर जाने की जो परंपरा रूढ़िगत  ढंग से देखी जाती है उसके पीछे कारण केवल यही रहा है कि लोग ऐसे ऋषियों की तप:स्थली पर उनके जाने के बाद भी श्रद्धावश आते जाते रहे और उन्हीं के अनुसार वहां पर यज्ञ अनुष्ठान करके शांति प्राप्त करते रहे। धीरे-धीरे यह परंपरा रूढ़ हो गई और फिर अंधविश्वास में परिवर्तित हो गई।

ऋषि भारद्वाज के पिता का नाम बृहस्पति और माता का नाम ममता था। ऋषि भारद्वाज को आयुर्वेद और सावित्र्य अग्नि विद्या का भी ज्ञान था। आयुर्वेद के ज्ञान से उन्होंने अपने स्वास्थ्य को चिरस्थाई रखते हुए आयु को भी दीर्घ कर लिया था।
प्रयाग में बार-बार यज्ञ – याग कराने की परंपरा ऋषि भारद्वाज द्वारा ही स्थापित की गई थी। इसी से इसका नाम प्रयाग हो गया था। ऋषि भारद्वाज के द्वारा ऐसे ही यज्ञ यागादि के कार्यक्रम संसार की भलाई के लिए किए जाते थे। दान आदि लेकर लोग दूर-दूर से चलकर उन यज्ञों में उपस्थित होते थे । उनकी सुगंधी से वायुमंडल शुद्ध होता था। जिससे प्राणी मात्र का कल्याण होता था। ऐसी पवित्र भावना को लेकर हमारे इस महान ऋषि के द्वारा उस समय धार्मिक और पुण्य कार्य करने की सतत प्रेरणा लोगों को दी जाती रही । जिससे लोगों में धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा उत्पन्न हुई। ऋषि भारद्वाज के बाद जब उन जैसे महात्मा ऋषियों का अभाव हुआ तो कुछ तो उनके अभाव के कारण और कुछ लोगों की अंधश्रद्धा के कारण प्रयाग में जाकर लोग मुंडन संस्कार आदि न जाने कैसे-कैसे कार्य करवाने लगे। कालांतर में लोगों की इस श्रद्धा भावना का लाभ कुछ मक्कार लोगों ने उठाना आरंभ किया।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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