कोऊ नृप होइ हमें का हानि-क्यों बनी ऐसी सोच?
देखिये गीता में श्रीकृष्ण जी अर्जुन से कहते हैं-
‘वीरता, तेज, धीरता, चतुरता, युद्घ में पीठ न दिखाना, दानशीलता और शासन करना ये क्षत्रिय के स्वाभाविक गुण हैं।’
श्री कृष्ण जी कहते हैं कि अपने स्वभाव के अनुसार अपने-अपने कर्म में जो व्यक्ति लगा रहता है, वह सिद्घि को प्राप्त करता है। सभी व्यक्तियों का अपने-अपने कार्य में रत रहना अच्छे समाज के लक्षण हैं, तथा स्वस्थ सामाजिक स्थिति के लक्षण हैं। जितनी देर यह स्थिति रहेगी उतनी देर समझिये कि मर्यादा का कहीं न तो हनन हुआ और न ही उल्लंघन हुआ। संत संतत्व की सौम्यावस्था में मग्न है तो राजा अपने राजधर्म के पालन में व्यस्त है, और जनसाधारण अपने-अपने कार्यों में मग्न है।
ऐसी अवस्था में संत इसलिए संत है कि उसे पता है कि समाज से कुछ लेना नहीं है, अपितु उसे कुछ देना है। राजा इसलिए राजा है कि उसे अपने स्वयं के भव्य किले और राज प्रासाद ही तैयार नहीं करने हैं-अपितु जनकल्याण करना ही उसकी मर्यादा है। इसी प्रकार जनसाधारण अपने-अपने कार्यों मस्त रहता है। ऐसी स्थिति का समाज पद-प्रतिष्ठा और पैसे की भूख और इनके लिए होने वाली मारा-मारी से अछूता रहता है। इसलिए वह स्वस्थ, सुंदर और मर्यादित समाज कहलाता है। उनके लिए कोई राजा हो न हो-इससे उनमें कोई विशेष अंतर नही आता। क्योंकि जो भी राजा आएगा वह जनसेवा ही करेगा, उसका जनसेवा ही लक्ष्य है। हमारा प्राचीन भारत ऐसी ही राजकीय व्यवस्था से शासित और अनुशासित रहा। समाज के लोगों को इस बात से कोई अंतर पडऩे वाला नहीं था कि राजा कौन हो? और कौन नहीं? इसलिए निजी स्वार्थ की बात सोचना भी उनके लिए मूर्खता की बात के सोचने के बराबर है। इस मर्यादित समाज का कोई व्यक्ति यह कहे कि-
‘कोऊ नृप होई हमें का हानि’ तो उनकी बात समझ में आती है। क्योंकि उन्हें पता है कि जो भी व्यक्ति राजा होगा वह वीर होगा, तेजस्वी होगा, धीर होगा, चतुर होगा, युद्घ में पीठ न दिखाने वाला होगा, शासक के गुणों से युक्त दानशील होगा, जनसेवी और लोककल्याण की नीतियों को लागू करने वाला, पक्षपातशून्य हृदयी और न्यायप्रिय होगा, जिसमें ये गुण होंगे शासक होने का प्रत्याशी वही होगा।
जो व्यक्ति चोर होगा, कमीशनबाज, लफंगा, हत्यारा और अपराधी होगा वह क्योंकि समाज का कोढ़ होगा इसलिए इस सर्वोच्च (राजा के) पद का प्रत्याशी ही नहीं होगा। ऐसी स्थिति में कोई भी व्यक्ति राजा हो जाए तो सचमुच किसी को हानि नही होती।
हानि कब होती है
प्रत्येक सिद्घांत की सीमाएं हैं। सीमा से बाहर निकल जाना अमर्यादाओं को जन्म देना है। बिना समीक्षा के समाज की स्वस्थ और मान्य मर्यादाओं का पालन करते जाना भी समाज के लिए घातक सिद्घ होता है, समाज को अस्वस्थ करता है। मर्यादाओं के पालन के प्रति अतिवादी दृष्टिकोण ने भी हमारे मस्तिष्कों में जंग लगा दी है। फलस्वरूप निष्क्रियता और अकर्मण्यता जनित, रूढि़वाद में भारतीय समाज फंस गया है। राजा का पद कुछ विशिष्ट परिवारों और व्यक्तियों के हाथ में चला गया और जन साधारण अपनी सत्ता (राजा चुनने की शक्ति) को गंवा बैठा।
इस अवस्था में भी वह कहता रहा कि-‘कोऊ नृप होई हमें का हानि।’ जब ऐसी स्थिति आ जाए तो उस समय समझना चाहिए कि अब समाज को हानि ही हानि हो रही है। जिन लोगों के अंदर राजनीति में रहकर आज ये गुण नहीं हैं (जो कि श्रीकृष्ण जी ने बताये हैं) वे भारतीय राजनीति और समाज के लिए बोझ हैं। देखिये इन्हीं पापियों के लिए कृष्ण जी आगे कहते हैं-
‘अपना धर्म-स्वधर्म यदि ठीक प्रकार से पालन न किया जा सके और दूसरे का धर्म-परधर्म यदि पालन करने में आसान हो तो भी स्वधर्म का पालन करना अधिक अच्छा है। स्वभाव के अनुसार ‘नियत’ कर्म को करने वाले व्यक्ति को पाप नहीं लगता।’ यहां कृष्ण जी का धर्म शब्द से एक अर्थ स्वाभाविक कर्म से है। अर्थात जैसा जिसका वर्ण है वैसे उसके कर्म हैं और जैसे जिसके कर्म हैं वैसा ही उसका वर्ण है।
क्रमश:
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715