मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 30 ( ख ) महाराणा राज सिंह का राज्य विस्तार

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महाराणा राज सिंह का राज्य विस्तार

महाराणा ने टोडा, मालपुरा, टोंक, चाकसू, लालसोट को लूटा और मेवाड़ के खोये हुए भागों पर पुनः अधिकार कर लिया। जब इस प्रकार की सूचनाएं मुगल दरबार में पहुंची तो चित्तौड़ के विरुद्ध वहां पर फिर साजिश रची जाने लगी। वास्तव में महाराणा राज सिंह अपने खोए हुए राज्य को प्राप्त करने के लिए लालायित थे। उनकी योजना अपने पूर्वजों के सम्मान को लौटाने की थी। इसके लिए वे किसी भी मुगल बादशाह से किसी भी प्रकार की शत्रुता मोल लेने को भी तैयार थे।

राजकुमारी चारुमति और महाराणा राज सिंह

महाराणा राज सिंह का नाम किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति के साथ भी उनके बहुत ही सम्मानपूर्ण कृत्य के कारण जोड़ा है। उस प्रकरण में उनकी विशेष वीरता का दर्शन होता है। किशनगढ़ ( रुपनगर ) के राजा रुपसिंह राठौड़ की मृत्यु के पश्चात मानसिंह वहां के शासक बने। मानसिंह की बहन चारूमति राठौड़ उस समय सौंदर्य की प्रतिमूर्ति थी। इस रूपवती राजकुमारी को प्राप्त करने के लिए औरंगजेब ने उसके भाई मानसिंह पर अनुच्छेद दबाव बनाना आरंभ कर दिया था। यह रियासत बहुत छोटी थी और इसके राजा के लिए यह संभव नहीं था कि वह औरंगजेब जैसे शासक का सामना कर सके। उधर राजकुमारी चारुमति कदापि यह नहीं चाहती थी कि वह किसी मुगल की पत्नी बने।
राजकुमारी चारुमति के भाई मानसिंह के पास जब यह प्रस्ताव पहुंचा तो वह भयभीत हो गया। तब उस वीरांगना चारुमति ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए महाराणा राज सिंह के लिए पत्र लिखा कि :- “मैं आपको अपने मन में अपना पति स्वीकार कर चुकी हूं, पर औरंगजेब मुझे अपनी बेगम बनाना चाहता है। इसके लिए उसकी सेना मेरे पिता के राज्य की ओर आ रही है। मेरे पिता दुर्बल हैं। यदि समय रहते आपकी सहायता नहीं मिली तो अनर्थ हो जाएगा।”
वीरांगना चारुमति ने यह भी लिख दिया कि :- “यदि औरंगजेब के महल में मेरा डोला गया तो यह रूप नगर के राजा की कन्या का डोला न होकर महाराणा राज सिंह की पत्नी का डोला होगा।”
वास्तव में चारुमति का यह साहसिक निर्णय इस बात का प्रतीक है कि वह किसी भी स्थिति में किसी मुगल के हरम में जाकर सड़ना नहीं चाहती थी । वह अपनी संस्कृति के मूल्यों से प्रभावित थी । अतः अपने सतीत्व की रक्षा करना अपना धर्म समझती थी। दूसरी बात यह है कि उस समय उसकी दृष्टि में महाराणा राज सिंह ही एक ऐसे वीर पुरुष थे जो उसके सतीत्व की रक्षा कर सकते थे। यहां पर यह बात भी उठाई जा सकती है कि राणा तो पहले से ही विवाहित थे , फिर और विवाह करने की उन्हें क्या आवश्यकता थी? इसका उत्तर यह है कि प्रथम तो राजकुमारी स्वयं ही उन्हें अपने लिए पति रूप में वर रही है, वह स्वयं किसी की कन्या को मुगलों की भांति जबरन उठाने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। दूसरी बात यह है कि उस राजकुमारी को यह भी आभास है कि यदि महाराणा राज सिंह के पूर्व में एक -दो विवाह हो भी चुके हैं तो भी वह मुगल हरम से वहां पर बहुत अधिक बेहतर जीवन व्यतीत कर सकेगी। रानी की इस मानसिकता से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि मुगलों और उस समय के हिंदू समाज के बीच संस्कृति की टक्कर थी। सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिए हमारे लोग अपना बलिदान दे रहे थे या कहिए कि संस्कृति की रक्षा के लिए ही मुगलों को यहां से भगाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। प्रचलित इतिहास में इन चीजों को ना तो बताया जाता है और ना ही इन पर प्रकाश डाला जाता है। ऐसा क्यों?
राजकुमारी चारुमति ने अपने भाई मानसिंह से स्पष्ट कह दिया कि वह किसी भी मुगल बादशाह के हरम में नहीं जाएगी। इसके लिए यदि उसे आत्महत्या करनी पड़ी तो वह ऐसा भी कर सकती है। यह भी कहा जाता है कि उस समय महाराणा राज सिंह के लिए एक पत्र मानसिंह ने भी लिखा कि यदि आप ऐसे ही चारुमति को विवाह कर ले गए तो औरंगजेब हमें जीवित नहीं छोड़ेगा, अतः आप सेना के साथ आएं और हमें भी बंदी बनाकर साथ ले जाएं।
जब वीरांगना चारुमति का उपरोक्त पत्र महाराणा राज सिंह के पास पहुंचा तो उसे पढ़कर वह धर्म संकट में पड़ गये। जब महाराणा इस पत्र के गंभीर विषय और परिणाम पर विचार कर रहे थे तभी किसी सरदार ने साहस करके उनसे पूछ लिया कि महाराज अंततः इस पत्र में ऐसा क्या लिखा है जिसे पढ़ने के उपरांत आप इतने चिंता के सागर में डूब गए हैं ? तब महाराणा ने वह पत्र उस सरदार की ओर कर दिया। सरदार ने पत्र पढ़कर सभी को सुना दिया। पर महाराणा अभी भी वैसे ही मौन धारण किए हुए बैठे थे। महाराणा राजसिंह का इस पत्र को पढ़कर इस प्रकार चुप बैठ जाना उस सरदार को अच्छा नहीं लगा। फलस्वरुप उसने कड़ककर महाराणा राज सिंह को झकझोरते हुए कहा कि आप इस पत्र से इतने चिंतित क्यों है ? स्पष्ट है कि सरदार का इस प्रकार कड़ककर बोलना महाराणा के पौरुष के लिए एक चुनौती थी। तब महाराणा ने स्थिति को संभालते हुए कहा कि “मैं उस कन्या को लाने के लिए योजना बना रहा हूं और कोई बात नहीं है।”
इसके पश्चात महाराणा राज सिंह ने एक पान का बीड़ा दरबार के मध्य में एक तलवार की नोक पर रख कर कहा कि जिसमें साहस है वह इस बीड़े को उठा सकता है। महाराणा ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि जो इस बीड़ा को उठाएगा उसे अपनी वीरता सिद्ध करनी होगी । इसके लिए उसे औरंगजेब की सेना को बीच में रोकना होगा और हम तब तक चारुमति से विवाह कर उसे अपने यहां ले आएंगे। महाराणा राजसिंह की ऐसी शर्त को सुनकर उस समय पूरे दरबार में सन्नाटा छा गया। किसी का साहस नहीं हो रहा था कि वह महाराणा के द्वारा रखे गए बीड़े को उठा कर अपने प्राणों को संकट में डाले। यद्यपि महाराणा राज सिंह के दरबार में उस समय एक से बढ़कर एक वीर बैठा हुआ था। इससे पहले कि कोई अन्य वीर योद्धा उठकर उस बीड़ा को ग्रहण करता एक सरदार चुंडावत उस बीड़े को उठा लेता है। उस समय राजसिंह के सेनापति और सलूम्बर उदयपुर के रावत रतनसिंह चूंडावत का विवाह बूंदी के संग्रामसिंह की पुत्री सलह कँवर के साथ हुआ था। यही रावत रतन सिंह चूंडावत वह वीर योद्धा था जिसने वह बीड़ा उठा लिया था।

सरदार चूंडावत और सलह कंवर

राजसिंह के सेनापति और सलूम्बर उदयपुर के रावत रतनसिंह चूंडावत का विवाह अभी दो दिन पूर्व ही हुआ था। महाराणा राज सिंह के दरबार में उसने जो संकल्प लिया था उसकी पूर्ति के लिए वह अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार करने के लिए वहां से चला गया। युद्ध के लिए जाते हुए सरदार चूंडावत के मन में आया कि वह एक बार अपनी पत्नी को अवश्य देख ले। अपने इसी विचार को मन में संजोए वह वीर योद्धा अपने भवन में पहुंच गया। उसकी नई नवेली पत्नी सलह कंवर ने जब यह सुना कि उसका पति अमुक प्रयोजन से युद्ध के लिए जा रहा है तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अपने पति सरदार चूंडावत से स्पष्ट कह दिया कि मेरे लिए यह गर्व की बात है कि मेरा पति इतना वीर है। उस वीरांगना ने अपने पति को बड़े गर्व के साथ युद्ध के लिए विदा कर दिया। पर सरदार चूंडावत ने फिर कह दिया कि यदि मुझे कुछ हो गया तो? तब उस वीरांगना ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि महाराज आपकी यह सेविका उस समय भी अपने कर्तव्य को निभाना जानती है । अतः आप निसंकोच युद्ध के लिए प्रस्थान करें। अपनी वीरांगना पत्नी के इस प्रकार के वचनों को सुनकर सरदार चूंडावत वहां से आगे बढ़ गया। यद्यपि उसका मन अभी भी अपनी पत्नी में ही अटका हुआ था। फलस्वरूप उसने अपने एक सैनिक को फिर रानी सलह कंवर के पास भेज दिया कि कोई निशानी रानी से लेकर आओ।

अबकी बार सलह कंवर अर्थात हाड़ी रानी सैनिक के दोबारा लौट कर आने का प्रयोजन समझ गई थी। वह भीतर गई और एक थाल लेकर द्वार पर खड़े सैनिक के पास लौट कर आई। उससे कहा कि “मैं जो कुछ तुम्हें दूं, उसे अपने महाराज के लिए सम्मान पूर्वक रुमाल से ढककर ले जाना और अपने स्वामी को ससम्मान जाकर सौंप देना। मेरी ओर से कह देना कि महाराज ! रानी ने तो अपना काम कर दिया अब आप अपना काम करें।”
इतना कहकर हाड़ी रानी ने अपनी कटारी से ही अपना सिर उतारकर और गिरने से पहले उसे थाली में रखकर सैनिक की दिशा में आगे बढ़ा दिया। उस वीरांगना देवी के इस प्रकार के कृत्य को देखकर सामने खड़ा सैनिक भी दंग रह गया था। सैनिक ने रानी के कहे के अनुसार रुमाल से ढककर उस “अंतिम निशानी” को अपने सरदार चूंडावत को जाकर दे दिया। सरदार चूंडावत ने जैसे ही उस रुमाल के नीचे भेजे गए सिर को देखा तो वह वीर रस से भर गया। उसने रानी के लंबे बालों की माला बनाकर उसके सिर को अपने गले में लटका लिया और पागल होकर शत्रु सेना को काटने लगा।
उस युद्ध में चूंडावत का बलिदान हुआ पर वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल रहा। क्योंकि जब तक उसका बलिदान हुआ तब तक राणा राज सिंह रुपनगर की राजकुमारी को ले आया था। इस प्रकार एक कन्या की रक्षा के लिए एक रानी ने अपना और अपने सुहाग का बलिदान देकर एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया । बलिदानी रतनसिंह चूंडावत सरदार की ऐतिहासिक छतरी 1664 ई. में देसुरी की नाल (पाली व राजसमंद की सीमा पर) में बनी हुई। प्रसिद्ध कवि मेघराज ‘मकल’ ने इसी हाड़ा रानी पर ‘सैनाणी’ नामक कविता लिखी जिसके बोल हैं- “चूंडावत माँगी सैनाणी सिर काट दे दियो क्षत्राणी”।

महाराणा के प्रजा हितकारी कार्य

राजसिंह की पत्नी रामरसदे ने उदयपुर में जयाबावड़ी / त्रिमुखी बावड़ी का निर्माण करवाया था। अकाल अकाल जैसी स्थिति से निपटने के लिए राजसिंह ने गोमती नदी के पानी को रोककर राजसमंद झील का निर्माण करवाया था। इस झील के उत्तरी किनारे नौ चौकी नामक स्थान पर राज प्रशस्ति नामक शिलालेख लगवाया। संस्कृत भाषा में लिखित राजप्रशस्ति शिलालेख की रचना रणछोड़ भट्ट द्वारा की गई थी। इसे संसार का सबसे बड़ा शिलालेख माना गया है। राजप्रशस्ति में मेवाड़ का प्रमाणिक इतिहास और ऐतिहासिक मुगल मेवाड़ संधि 1615 का उल्लेख मिलता है।
मुगल मारवाड़ संघर्ष छिड़ने पर महाराणा राजसिंह ने राठौड़ों का साथ देकर यह सिद्ध किया कि उनके लिए मुगल शासकों को देश से उखाड़ फेंकना अनिवार्य होने के कारण अपने लोगों का समर्थन और सहयोग करना प्राथमिकता पर है। भारत के इन दोनों हिंदू राजवंशों ने परस्पर मिलकर जिस प्रकार एक संघ बनाया वह अपने आप में बहुत ही उत्साहवर्धक संकेत था। जिससे स्पष्ट हो रहा था कि हिंदू शक्ति इस समय एकताबद्ध होकर विदेशी शासकों को भारत से भगाने के लिए कृत संकल्प हो चुकी थी। सिसोदिया राठौड़ संघ के अस्तित्व में आ जाने से सम्राट औरंगजेब बड़ा चिंतित हुआ और उसने राजपूतों को नष्ट करने में अपनी सारी शक्ति लगा दी। औरंगजेब यह भली प्रकार जानता था कि मुगल कभी मेवाड़ की शक्ति को पूर्णतया नष्ट नहीं कर पाए। अब उसके साथ जब मारवाड़ की शक्ति आ जुड़ेगी तो इस संयुक्त शक्ति का वे सामना नहीं कर पाएंगे।
युद्ध से मेवाड़ के कई क्षेत्र वीरान हो गये। राजसिंह ने शाहजादे अकबर को अपनी ओर मिलाकर मुगल शक्ति को कमजोर करने का प्रयास किया, परन्तु औरंगजेब ने छल से राजकुमार अकबर और राजपूतों में फूट डलवा दी। इसके उपरांत भी महाराणा राज सिंह औरंगजेब के समक्ष झुके नहीं। 1680 ई0 में राजसिंह की मृत्यु हो गई।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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