प्रकृति और प्रकत्र्ता दोनों से मिलाता है योग
शब्द प्रकृति दो शब्दों से बनता है-प्र+कृति। ‘प्र’ का अर्थ है-उत्तमता से, पूर्ण विवेक से और ‘कृति’ का अर्थ है-रचना। इस प्रकार प्रकृति का अर्थ है एक ऐसी रचना जिसे उत्तमता से, नियमों के अंतर्गत रहते हुए और विवेकपूर्वक बनाया गया है, रचा गया है। प्रकृति अपने नियमों से बंधी है, और वह उनके बाहर नही जा सकती। समझो कि प्रकृति अपने ही नियमों की परिक्रमा कर रही है। जिस समय सूर्य आज निकला है और जितना गरमी या सर्दी का तापमान इसका आज है-लगभग ऐसा ही अगले वर्ष आज के दिन रहेगा। सूर्य जहां आज निकल रहा है, वहीं अगले वर्षों में निकलेगा और वैसे ही अब से पूर्व निकलता आया है। आम के वृक्ष पर जिस मौसम में फल सृष्टि प्रारंभ में लगने आरंभ हुए थे, उसी में आज लगते हैं और सृष्टि पर्यंत उसी मौसम में वैसे ही लगते भी रहेंगे। ये सृष्टि के नियम हंै। इन नियमों को डार्विन ने नहीं पढ़ा, अन्यथा उससे अपेक्षा थी कि वह प्रकृति के लिए भी कह देता कि यह इतने काल से ऐसा करती आ रही है तो यह भी अब (विकासवाद की थ्योरी के कारण) परिवर्तित हो गयी है या आगे चलकर परिवत्र्तित हो जाएगी।
डार्विन जैसे पश्चिम के वैज्ञानिकों ने प्रकृति को चेतन माना है और उसे अपने आप में स्वतंत्र माना है। यही कारण है कि वह प्रकृति के नियमों को उसके स्वनिर्मित नियम मानते हैं। जबकि भारत के ऋषियों का चिंतन है कि प्रकृति स्वयं ही किसी की उत्तम कृति है-अर्थात उसका बनाने वाला कोई और है-उसके नियमों का नियामक कोई और है। हमारे ऋषियों का चिंतन आया कि प्रकृति का निर्माता स्वयं भी अति उत्तम ही होगा। इसलिए प्रकृति के निर्माता को उन्होंने नाम दिया-प्रकत्र्ता। प्रकत्र्ता अर्थात उत्तमता से, नियमों के अनुकूल, पूर्ण न्यायशील और पक्षपात शून्य होकर कार्य करने वाला परमपिता परमेश्वर। प्रकृति का प्रकत्र्ता पक्षपात शून्य और न्यायशील है वह हर प्राणी को उसके कर्मों का फल देने में किसी प्रकार की न्यूनता या अधिकता का प्रदर्शन नहीं करता है-सबको तोल-तोलकर देता है, पुरस्कार देता है तो भी तोलकर देता है और दण्ड देता है तो उसे भी तोलकर देता है।
जैसा जिसका आराध्य होता है-उसमें वैसे ही गुण आ जाते हैं, प्रकृति ने भी अपने आराध्य ईश्वर के इन स्वाभाविक गुणों को धारण किया है। यही कारण है कि वह हमें भी हमारे कर्मों के अनुसार फल देती रहती है। हम प्रकृति के साथ अन्याय करते हैं-पेड़ों को काटकर, जंगलों को मिटाकर, नदियों को कूड़े से अटाकर, पर्यावरण को धुएं से सड़ाकर आदि-आदि। इन सबको देखकर प्रकृति भी अंगड़ाई भरती है और भूकंप के रूप में, अनावृष्टि के रूप में, अतिवृष्टि के रूप में, अधिक गरमी या सर्दी के रूप में हमें अपने प्रकोप से कुपित या दंडित कर जाती है, या सर्दी के रूप में हमें अपने प्रकोप से कुपित या दंडित कर जाती है। वैज्ञानिक युग में जीने का दम्भ भरने वाला तथाकथित सभ्य मानव यह नहीं समझ पाता कि यह प्रकृति का प्रकोप है-क्या? वह इसे यूं ही अकस्मात घटने वाली घटना मानने की नादानी दिखाता है और अपने उन्हीं कार्यों में लगा रहता है जिन्हें वह करके प्रकृति को कुपित करता आ रहा है।
ईश्वर ने नियम बनाये-प्रकृति ने उन्हें अपनाया और हम पर लागू किया। इस प्रकार ईश्वर व्यवस्थापिका है, प्रकृति न्यायपालिका है और यह सृष्टि कार्यपालिका है। ईश्वर का विधान स्वयं में पवित्र है। प्रकृति का न्याय स्वयं में पवित्र है, पर कार्यपालिका के द्वारा उसे अपनाने में दोष है। हर व्यक्ति चाहता है कि पड़ोसी पर टैक्स लगे, मुझ पर नहीं। कानून का पालन पड़ोसी करे, मैं नहीं करूं। कानून की पकड़ से और सरकार की नजर से मैं और मेरा व्यवसाय तो बचे रहें, पर दूसरे लोग और उनके व्यवसाय उसकी गिरफ्त में आ जाएं। ऐसे कैसे काम चलेगा? बस, इस कार्यपालिका ने ही सारी व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है।
योग इस कार्यपालिका की शुद्घि का अभियान है। इसे भारत की अनोखी देन इसीलिए माना जाता है कि शेष विश्व के किसी भी देश के पास और किसी भी मजहब के पास ‘कार्यपालिका’ के परिमार्जन का कोई उपाय नहीं है। भारत ने विश्व को बताया कि मानव शरीर में मन नाम का जो तत्व है-यही कार्यपालिका में उपद्रव मचाने का दोषी है। यह संकल्पों और विकल्पों में लगा रहता है और ईश्वर के नियमों तथ प्रकृति के न्याय को तोडऩे के लिए हमें प्रेरित करता है।
हमारे ऋषियों ने अपनी योग की कक्षा में इसी ऊधमी बच्चे अर्थात मन का परिष्कार और उद्घार करने का संकल्प लिया। इसके लिए उपाय खोजे गये कि कैसे यह अनुशासन में आये? बड़ी देर के चिंतन और अनुसंधान के पश्चात पता चला कि इसे योग के माध्यम से अपने अनुकूल ढाला जा सकता है। इसे प्रकृति और प्रकत्र्ता का विषयानुयायी बनाना पड़ेगा। इसे बताना पड़ेगा कि तू ईश्वर का पुत्र और प्रकृति का मित्र है। इसलिए इनसे वैसे ही संबंध बना जैसे अपेक्षित हैं। इनके विरूद्घ कार्य करेगा तो ये दोनों तुझे अपनी संपत्ति (संसार के ऐश्वर्य) से बेदखल कर देंगे, और तब तेरी स्थिति वही होगी जो एक बेदखल पुत्र की होती है या उपेक्षित मित्र की होती है। वर्तमान में संसार के लोगों की दुर्दशा का कारण यही है कि ये सभी संपत्ति से बेदखल बेटे-बेटी हैं। इनके पास आनंद नहीं, शांति नहीं, प्रेम नहीं, विश्वास नहीं। आज संसार भारत की शरण में आ रहा है-आनंद की खोज में, शांति की खोज में, प्रेम और विश्वास की खोज में। सचमुच हम एक बहुत बड़ी क्रांति के साक्षी बन रहे हैं। सभी संस्कृति भक्तों से अनुरोध है कि लगे रहो, डटे रहो, भोर होगी। पुन: भारत का सूर्य चमकेगा, अंधकार हटेगा और प्रकाश का साम्राज्य स्थापित होगा।