चैत काहे चैत होत है? काहे बैसाख होय बैसाख?
धर्मद्रोहियों द्वारा आजकल एक विचित्र सन्देह उत्पन्न किया जा रहा है कि सनातन समुदाय अपने प्राय: सभी पर्वों, उत्सवों आदि को अनुचित समय पर मना रहा है। एतदर्थ ये धर्मद्रोही नक्षत्र-चक्र अथवा राशि-चक्र को महत्त्वहीन घोषित कर केवल ऋतुवर्ष को ही प्रतिष्ठित करना चाहते हैं तथा समस्त पर्वों, उत्सवों आदि को ऋतुवर्ष का ही अनुगामी बनाना चाहते हैं। वे स्वयं तो ज्योतिष के विषय में भ्रमित हैं ही, अन्यों को भी करना चाहते हैं।
तो फिर, तनिक ज्योतिष के मूल तत्त्वों की बात हो ही जाए !
आकाश में विद्यमान चमकते पिण्ड “खगोलीय पिण्ड” कहलाते हैं। ये प्रतिदिन पूर्वी क्षितिज से उदित होकर आकाश में उठते दिखाई देते हैं व अन्तत: पश्चिमी क्षितिज में अस्त हो जाते हैं। खगोलीय पिण्डों की इस “दैनिक गति” से पता लगता है कि पृथ्वी अपने अक्ष पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूर्णन कर रही है।
अत: ज्योतिष्मान् खगोलीय पिण्डों की गति का अध्ययन “ज्योतिष” है।
यह दृक्सिद्ध होता है।
अर्थात् भूकेन्द्रित होता है
क्योंकि दृक् (आँख/प्रेक्षक) भूस्थित है।
ज्योतिष्मान् खगोलीय पिण्ड दो प्रकार के होते हैं—
1. अचल खगोलीय पिण्ड = तारे
2. चलनशील खगोलीय पिण्ड = ग्रह
जिन खगोलीय पिण्डों की पारस्परिक दूरी परिवर्तित नहीं होती है, वे “तारे” हैं।
तारों से जिन खगोलीय पिण्डों की दूरी सतत परिवर्तित होती रहती है, वे “ग्रह” हैं।
बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, सूर्य व चन्द्रमा ग्रह हैं जो आकाश के कतिपय विशिष्ट तारों के मध्य पूर्व की ओर गति करते प्रतीत होते हैं। यद्यपि सूर्य एक तारा है किन्तु पृथ्वी से देखने पर यह विशिष्ट तारों के मध्य पूर्व की बढ़ता प्रतीत होता है, अत: भूकेन्द्रित ज्योतिष के अनुसार इसकी संज्ञा ग्रह है। सूर्य की इस प्रतीयमान गति से पता लगता है कि पृथ्वी पूर्व की बढ़ते हुए सूर्य का चक्कर लगा रही है। इसी प्रकार चन्द्रमा भी पृथ्वी का एक उपग्रह है किन्तु पृथ्वी से देखे जाने पर यह भी विशिष्ट तारों के मध्य पूर्व की ओर बढ़ता प्रतीत होता है, अत: भूकेन्द्रित ज्योतिष के अनुसार इसकी संज्ञा भी ग्रह है।
अत: वक्तव्य है कि
ज्योतिष्मान् खगोलीय पिण्डों की “पृथ्वी के सापेक्ष तथा पारस्परिक” “गति व स्थिति” एवं तज्जन्य प्रभावों का अध्ययन “ज्योतिष” है।
सूर्य जिस पथ पर बढ़ता प्रतीत होता है, उसे “सूर्यपथ” अथवा “क्रान्तिवृत्त” (ecliptic) कहते हैं। इसके दोनों ओर 9-9 अंश विस्तृत क्षेत्र से बनी पट्टी “भचक्र” (zodiac) कहलाती है। इसी पट्टी में विद्यमान 27 तारे (अथवा तारा-समूह) “नक्षत्र” कहलाते हैं जिनके विशिष्ट संयोग से “राशि” नामक 12 तारा-समूह बनते हैं। समस्त ग्रह भचक्र के इस 18 अंश के विस्तार में रहते हुए ही पूर्व की ओर गति करते रहते हैं।
अमावास्या से अमावास्या तक का समय अथवा पूर्णिमा से पूर्णिमा तक का समय 1 “चान्द्र मास” (synodic lunar month) कहलाता है जिसकी अवधि लगभग 29.530589 दिन होती है। चन्द्रकला पर आधारित होने के कारण यह “कला मास” भी कहलाता है। चान्द्र मासों के नामकरण का आधार “पूर्णिमा व नक्षत्रविशेष का संयोग” है। भचक्र पर क्रमश: पूर्व दिशा की ओर स्थित चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, अषाढा, श्रवण, भाद्रपद, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा व फल्गुनी नक्षत्र के निकट पूर्णिमा होने पर क्रमश: चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ व फाल्गुन नामक चान्द्र मास पूर्ण हो जाते हैं।
चन्द्रमा द्वारा किसी एक नक्षत्र से चलकर पुन: उसी नक्षत्र में आने में लगा समय 1 “नाक्षत्र मास” (sidereal month) कहलाता है जिसकी अवधि लगभग 27.321662 दिन होती है। इसी कारण नक्षत्रों की संख्या 27 है फलत: चन्द्रमा प्रतिदिन एक नक्षत्र पार करता है।
पृथ्वी का अक्ष क्रान्तिवृत्त द्वारा निर्मित तल के ठीक लम्बवत् न होकर उससे लगभग 66.5 अंश का कोण बनाता है। फलत: पृथ्वी का विषुवत् वृत्त भी क्रान्तिवृत्त के समान्तर न होकर उससे लगभग 23.5 अंश का कोण बनाता है। जिन दो बिन्दुओं पर विषुवत् वृत्त क्रान्तिवृत्त को काटता है वे संपात कहलाते हैं।
दो संपात होते हैं अर्थात् वर्ष में दो बार सूर्य विषुवत् रेखा पर होता है। जिन दिनों में यह घटना होती है वे विषुव दिवस कहलाते हैं। उत्तरी गोलार्ध की वसन्त ऋतु में होने वाले विषुव को वसन्त विषुव कहते हैं तथा दूसरे विषुव को शरद् विषुव कहते हैं। कुछ लोगों में यह भ्रम व्याप्त है कि विषुवों में दिन व रात की अवधि समान होती है। वस्तुत: प्रकाश के अपवर्तन (atmospheric refraction) के कारण वसन्त विषुव के लगभग 3 दिन पहले तथा शरद् विषुव के लगभग 3 दिन बाद दिन व रात की अवधि समान होती है। विषुव दिवसों में दिन की अवधि रात की अपेक्षा 6-7 मिनट अधिक होती है।
यदि क्रान्तिवृत्त व विषुवत् वृत्त समान्तर होते तो पूरे वर्ष दिन व रात की अवधि समान होती! किन्तु ऐसा न होने से वर्ष में दिन व रात का अन्तर क्रमश: परिवर्तित होता रहता है। इसी परिवर्तन को ऋतु-परिवर्तन कहते हैं। ऋतु की अवधि व तीव्रता पूरी पृथ्वी पर समान नहीं होती। यह मुख्यत: अक्षांश (latitude) व समुद्रतल से ऊँचाई (altitude) पर निर्भर होती है। अक्षांश का मान बढ़ने पर शीत ऋतु की अवधि बढ़ती है तथा ग्रीष्म ऋतु की अवधि घटती है अर्थात् अक्षांश बदलने पर अनुभूत ऋतु (felt weather) समान नहीं रह पाती। इस दृष्टि से उत्तर भारत व दक्षिण भारत की ऋतुओं में भी पर्याप्त वैषम्य है। यह भी अवधेय है कि विषुवत् वृत्त के उत्तर में जो ऋतु होती है वही ऋतु विषुवत् वृत्त के दक्षिण में उसी अक्षांश पर प्राय: 6 मास उपरान्त होती है। इसी प्रकार समुद्रतल से ऊँचाई अधिक होने पर शैत्य भी अधिक होता है।
पृथ्वी का अक्ष पूर्व से पश्चिम की ओर डोलन करता है, फलत: संपात सतत पश्चिम की ओर सरक रहे हैं तथा 1 अंश सरकने में लगभग 71 वर्ष का समय लेते हैं। पृथ्वी के अक्ष के 1 पूर्ण डोलन में लगा समय 1 मन्वन्तर कहलाता है। सूर्य द्वारा किसी एक संपात से चलकर पुन: उसी संपात में आने में लगा समय 1 ऋतुवर्ष कहलाता है। ग्रेगोरियन कैलेण्डर इसी अवधि को प्रकट करता है। स्पष्टत: यह अवधि पूर्ण परिक्रमण की द्योतक नहीं है क्योंकि संपात के पश्चिम की ओर सरकने के कारण सूर्य को वही संपात पूर्ण परिक्रमण से लगभग 50.26 विकला पहले ही प्राप्त हो जाता है जिसका मान लगभग 20 मिनट है अर्थात् ऋतुवर्ष की अवधि पूर्ण परिक्रमण से लगभग 20 मिनट न्यून है।
पूर्ण परिक्रमण को नाक्षत्र वर्ष कहते हैं। संपातों की भाँति नक्षत्र चलनशील नहीं हैं, अत: सूर्य द्वारा किसी नक्षत्र से चलकर पुन: उसी नक्षत्र में आना पूर्ण परिक्रमण का द्योतक है। यथा, मकर नामक तारा-समूह के प्रथम तारे में सूर्य की स्थिति मकर-संक्रम कहलाती है। मकर-संक्रम से पुन: मकर-संक्रम तक की अवधि 1 नाक्षत्र वर्ष अथवा पूर्ण परिक्रमण होगी। अब, यदि किसी वर्ष मकर-संक्रम में दक्षिणायनान्त (उत्तरायणारम्भ) हुआ हो तो इसके 71 वर्ष उपरान्त मकर संक्रम के 1 दिन पूर्व दक्षिणायनान्त होगा। शनै: शनै: यह अन्तर बढ़ता जाएगा और एक दिन ऐसा आएगा जब पुन: मकर-संक्रम में ही दक्षिणायनान्त होने लगेगा। इस पूर्ण चक्र को “मन्वन्तर” कहा गया है जिसकी अवधि लगभग 25800 वर्ष है। यही मन्वन्तर-गणना की विधि है। मत्स्य पुराण के अनुसार सम्प्रति सावर्णि नामक आठवाँ मन्वन्तर चल रहा है तथा सावर्णि मन्वन्तर का आरम्भ लगभग 3,578 वर्ष पूर्व हुआ था
“स्वराक्रमेते सोमार्कौ यदा साकं सवासवौ।”
अर्थात् मन्वन्तर-गणना का आरम्भ हुए
7×25,800 वर्ष + 3,578 वर्ष अथवा
1,84,178 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं।
अब, तनिक विचार कीजिए कि संवत्सर का आरम्भ तो वसन्त ऋतु से किया ही जा रहा है जिससे ऋतुवर्ष का बोध होता है किन्तु मन्वन्तर के बोधार्थ क्या उपाय है?
वस्तुत: मन्वन्तर-बोध के 4 उपाय हैं जो क्रमश: न्यून शुद्धता वाले हैं —
प्रथम उपाय»»»
ऋतुवर्ष व नाक्षत्र वर्ष दोनों का व्यवहार किया जाय। एतदर्थ इनके युगपत् आरम्भ का ग्रहण किया जाए। जब इन दोनों का पुन: युगपत् आरम्भ होने लगे तो जानना चाहिए कि मन्वन्तर पूर्ण हो गया।
द्वितीय उपाय»»»
चार घटनाएँ ऋतुवर्ष की नियामक हैं—
1. उत्तरगोलार्धवासारम्भ
2. उत्तरायणान्त
3. दक्षिणगोलार्धवासारम्भ
4. दक्षिणायनान्त
इन चारों में से किसी एक द्वारा किसी नक्षत्र से चलकर पुन: उसी नक्षत्र में आने में लगा समय 1 “मन्वन्तर” है। एतदर्थ इस लोकोक्ति को अक्षुण्ण रखना कि मृगशिर में वसन्त संपात होता था अथवा मकर-संक्रम में दक्षिणायनान्त होता था अर्थात् जब पुन: ऐसा होने लगे तो जानना चाहिए कि मन्वन्तर पूर्ण हो गया।
तृतीय उपाय»»»
अगस्त्य तारे की किसी निश्चित अक्षांश (यथा उज्जयिनी) पर दृश्यता से आरम्भ कर पुन: उसी अक्षांश पर अगस्त्य तारे की दृश्यता हो जाने पर जानना चाहिए कि मन्वन्तर पूर्ण हो गया।
चतुर्थ उपाय»»»
अभिजित् के ध्रुवत्व से उसके पुनर्ध्रुवत्व तक का समय 1 मन्वन्तर है।
अब, यदि कोई कहे कि
क्रान्तिवृत्त के जिस बिन्दु पर दक्षिणायनान्त हो वहीं से मकर राशि का आरम्भ मानिए।
अथवा
दक्षिणायनान्त के ठीक पश्चात् वाली अमावास्या पर माघ मास पूर्ण हो जाता है।
तो इसका तात्पर्य है कि वह 3 बातों का प्रस्ताव कर रहा है—
1. नक्षत्रों तथा राशियों के तारे, उनके नाम व पहचान निश्चित नहीं हैं अपितु परिवर्तनशील हैं।
2. चान्द्र मास ऋतु-अनुसारी होते हैं।
3. नाक्षत्र वर्ष अनावश्यक है, फलत: मन्वन्तर भी अनावश्यक व काल्पनिक है।
अरे भाई! किन्तु समस्या यह है कि
1. क्या गुरु को शुक्र अथवा बुध अथवा शनि कहा जा सकता है? यदि नहीं तो अचल तारों के नाम (जो किसी के एकाधिक भी हो सकते हैं) कैसे बदले जा सकते हैं?
2. उस मास को चैत्र कहने में क्या सार्थकता है जिसकी पूर्णिमा चित्रा नक्षत्र से कोई नैकट्य नहीं रखती?
3. “माघश्रावणयो: सदा” पढ़कर खूब भ्रमित हो चुके!
“नक्षत्रविशेष में पूर्णिमा” से उसी नक्षत्र के नाम वाले चान्द्र मास का “मध्य” करते थे,
और अब “अन्त” कर रहे हैं।
बहुत हो चुका!
जब ऋतु नक्षत्र से पिछड़ती है तो फिर ऋतुविशेष के वही चान्द्र मास कब तक बने रह सकते हैं?
यह चेष्टा ही व्यर्थ है!
उपर्युक्त दोनों प्रकार के चान्द्र मास तथा नाक्षत्र सौर मास अथवा राशिमास (किसी राशि में सूर्य की स्थिति) लगभग अचल प्रकृति वाले नक्षत्रों पर आधारित हैं जबकि ऋतुएँ चलनशील प्रकृति वाले संपात पर आधारित हैं। अत: किसी मास में पड़ने वाली ऋतु समय व्यतीत होने पर उस मास से पहले ही आने लगती है क्योंकि पृथ्वी द्वारा सूर्य का परिक्रमण पूर्ण होने के 20 मिनट पहले ही संपात आ जाता है। लगभग 1000 वर्ष बीत जाने पर कोई ऋतु एक पक्ष (पखवाड़े) पहले ही आरम्भ होने लगती है। अत: किसी ऋतु का वही मास बनाए रखने के लिए किसी मास को एक पक्ष में ही समाप्त कर दिया गया था जिससे अगला मास एक पक्ष पूर्व ही आरम्भ हो गया था। उत्तर भारत में 1 बार ऐसा किया जा चुका है। इसी कारण कलामास उत्तर भारत में पूर्णिमान्त तथा दक्षिण भारत में अमान्त है। एक मत यह भी है कि उत्तर भारत में 3 बार ऐसा किया जा चुका है और दक्षिण भारत में 2 बार।
4. नाक्षत्र वर्ष को अनावश्यक तथा मन्वन्तर को काल्पनिक मानने का कोई उपाय नहीं है क्योंकि वे ज्योतिषीय साक्ष्यों पर आधारित हैं!
✍🏻प्रचण्ड प्रद्योत
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