मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 24 ( ख ) नरसंहार नहीं कर पाया था अकबर

नरसंहार नहीं कर पाया था अकबर

वास्तव में उस समय अकबर की इच्छा थी कि युद्ध के उपरांत हिंदुओं का नरसंहार किया जाए। यद्यपि उसकी सेना इस स्थिति में नहीं थी कि वह मेवाड़ में नरसंहार कर सकती । इसका एक कारण यह भी था कि महाराणा प्रताप के सामने अकबर की सेना जीती नहीं थी। जीती हुई सेना निश्चित रूप से हिंदुओं का नरसंहार करती। इसके अतिरिक्त एक सच यह भी है कि मानसिंह ने भी हिंदू जनता के नरसंहार की अनुमति मुगल सेना को नहीं दी थी। अब अकबर के सामने दो बातें हो गई थीं ,एक तो यह कि उसे महाराणा प्रताप जीवित होने की सूचना मिली दूसरे मानसिंह ने वहां पर हिंदुओं का नरसंहार नहीं होने दिया। ऐसी परिस्थिति में उस मूर्ख बादशाह का क्रुद्ध होना स्वाभाविक था। 

अबुल फजल का कहना है कि “दूरदर्शिता के कारण शाही कर्मचारी राणा की खोज में नहीं गए और रसद पहुंचने की कठिनता के कारण वे शाही प्रदेश से बाहर निकल कर चले आए। खुशामदी लोगों ने बादशाह को यह समझाया कि राणा को नष्ट करने में शाही कर्मचारियों ने शिथिलता बरती। इस पर बादशाह उन पर क्रुद्ध हुआ, परंतु पीछे से उसका क्रोध शांत हो गया।” ( ‘अकबरनामा’ अंग्रेजी अनुवाद, जिल्द 3 ,पृष्ठ – 256 )
उस समय के लिए एक बात यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि मेवाड़ की संपूर्ण जनता अपने महाराणा के साथ थी। मानसिंह का महाराणा के प्रति व्यवहार भी वहां के लोगों को प्रिय नहीं था। जब मानसिंह की मुगल सेना गोगुंदा में पड़ी हुई थी तो मानसिंह अपने सैनिकों को अक्सर रसद आदि के लिए लोगों की बस्तियों में भेजा करता था। इसके संबंध में “वीर विनोद” ( भाग – 2 पृष्ठ ,- 155 ) से हमें ज्ञात होता है कि तब हिंदू इन मुगल सैनिकों पर धावा बोल दिया करते थे। ऐसा वह देश भक्ति की भावना से प्रेरित होकर ही किया करते थे। क्योंकि उन्हें अपने देश में विदेशी सेना के सैनिकों, हिंदूद्रोही मानसिंह के सैनिकों की उपस्थिति असहनीय थी ।
‘वीर विनोद’ के लेखक का मानना है कि ऐसी नित्य की आपदाओं से शाही सेना भयभीत होकर राजपूतों से लड़ती भिड़ती बादशाह के पास अजमेर चली गई और महाराणा बहुत से बादशाही थानों के स्थान पर अपने थाने नियत कर कुंभलगढ़ चला गया। इससे नवीन अनुसंधानकर्ता इतिहास लेखकों का मानना है कि बादशाही सेना की महाराणा प्रताप पर पहली चढ़ाई असफल रही थी। जिससे बादशाह अकबर की क्रोधाग्नि का बढ़ना स्वाभाविक ही था।

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद की महाराणा की सक्रियता

हमें यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि हल्दीघाटी की लड़ाई के एकदम पश्चात तुरंत पश्चात महाराणा प्रताप ने गुजरात पर भी आक्रमण किया था। यदि महाराणा प्रताप अकबर से हल्दीघाटी के युद्ध में पराजित हुए होते तो उनकी शक्ति पूर्णतया क्षीण हो गई होती और ऐसी परिस्थिति में भी गुजरात पर कभी हमला नहीं कर सकते थे। महाराणा प्रताप के बारे में जैसे ही अकबर को यह जानकारी हुई कि वह इस समय गुजरात में है तो अकबर ने महाराणा के राज्य क्षेत्र पर फिर से अधिकार करने के दृष्टिकोण से छल पूर्ण कार्य करते हुए शिकार खेलने के बहाने मेवाड़ में प्रवेश करने में सफलता प्राप्त की। यह घटना 13 अक्टूबर 1576 की है। महाराणा प्रताप को जब अकबर की इस चाल की भनक हुई तो वह अकबर के जाल में न फंसकर पहाड़ों की ओर चले गए । गोगुंदा से अकबर ने महाराणा की खोज के लिए कुतुबुद्दीन, राजा भगवानदास और कुंवर मानसिंह को भेजा।”( संदर्भ: ‘अकबरनामा’ का बेवरेज खत, अनुवाद 266-67)
इतिहास का यह भी एक रोमांचकारी और गौरवपूर्ण तथ्य है कि महाराणा प्रताप अकबर द्वारा भेजे गए इन सभी अकरम आंखों पर हावी रहे। फलस्वरूप इन सभी को महाराणा प्रताप से हार मानकर बादशाह के पास लौटना पड़ा। अबुल फजल ने स्पष्ट लिखा है वह राणा के प्रदेश में गए परंतु उसका कुछ पता न लगने से बिना आज्ञा ही लौट आए । जिस पर अकबर ने अप्रसन्न हो उनकी ड्योढी बंद करा दी। जो माफी मांगने पर फिर बहाल कर दी गई।” (अकबरनामा, बेवरीज का अंग्रेजी अनुवाद, पृष्ठ – 274 – 75)
जब अकबर वहां से निकल कर बांसवाड़ा की ओर चला गया तो महाराणा प्रताप ने पहाड़ों से उतरकर शाही थानों पर हमला करके कई थानों को अपने अधिकार में ले लिया।

क्या महाराणा ने घास की रोटियां खाई थीं?

हम यहां पर यह बात भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि महाराणा प्रताप के बारे में ऐसा कहना कि उन्होंने अरावली पर्वत पर रहते हुए घास की रोटियां खाई थीं, पूर्णतया अवैज्ञानिक, अतार्किक और मूर्खतापूर्ण तथ्य है। वास्तव में घास की रोटी बनाना संभव ही नहीं है। यदि घास की रोटियां बनाई जानी संभव होती तो संसार में कभी भी भुखमरी नहीं फैलती। तब कोई भी भूखा व्यक्ति घास की रोटियां बनाकर खा सकता था। वास्तव में महाराणा प्रताप के पास अपने लोगों का समर्थन इतना अधिक था कि उन्हें कभी भी आर्थिक तंगी का अनुभव नहीं हुआ। उनके सरदार, सामंत ,धनी लोग उनके साथ थे। जो हमेशा उनकी आर्थिक सहायता करते रहते थे। अरावली पर्वत पर उन्हें भी लोगों का समर्थन निरंतर मिलता रहा था। ऐसी स्थिति में भी उन्हें ऐसा दिखाना कि वे घास की रोटियां खाने के लिए मजबूर हो गए थे, संपूर्ण मेवाड़ की जनता और उसका अपने स्वामी के प्रति समर्पण के भाव का अपमान करना है।
मेवाड़ के लोगों के बारे में हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यदि हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की प्राण रक्षा के लिए उनमें से कोई झालाराव मन्ना सिंह निकल सकता था तो शांति काल में भी उनकी रक्षा के लिए निश्चय ही अनेक झाला राव निकले होंगे। यदि महाराणा को मेवाड़ के लोग हल्दीघाटी के युद्ध में मरता हुआ देखना नहीं चाहते थे तो उन्हें वे भूखों कैसे मरने देते ?
भारत के अनेक ऐसे शूरवीर रहे हैं जिन्होंने समय आने पर शत्रु की स्त्रियों का भी सम्मान करने में मर्यादाओं का पालन किया है। वास्तव में हमारा देश भारत मर्यादाओं का ही देश है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के वंशज होने के कारण हम उनका सम्मान या सत्कार नहीं करते हैं बल्कि उनके मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप को प्रतिदिन नमन कर हम उनके जैसे बनने का संकल्प लेते हैं। जिन्होंने नारी जाति के प्रति असीम श्रद्धा भावना व्यक्त की थी। कहते हैं कि एक बार महाराणा के सैनिकों को मिर्जा खान की पत्नी युद्ध के समय मिल गई। महाराणा के सैनिकों का नेतृत्व उस समय उनके पुत्र अमर सिंह कर रहे थे। जब महाराणा प्रताप को इस घटना की जानकारी हुई तो उन्होंने उस महिला को अपनी पुत्री के समान समझकर पूर्ण सम्मान के साथ उसे उसके पति के पास भिजवा दिया था। मिर्जा खान भी महाराणा प्रताप के इस उदार व्यवहार से इतना अधिक प्रभावित हुआ कि वह उनके प्रति सदा आभारी रहा था। वास्तव में ऐसे आदर्श व्यक्तित्व ही इतिहास की शोभा बढ़ाते हैं, उसका गौरव हुआ करते हैं। ऐसे महापुरुषों के आदर्श जीवन से आने वाली पीढ़ियां भी शिक्षा लेती रहती हैं।

अकबर चलता रहा नई नई चाल

अकबर महाराणा प्रताप को मरवाने या उन्हें किसी भी प्रकार से गिरफ्तार कर अपने सामने हाजिर करने के लिए नई-नई चालें चलता रहा था। वह चाहता था कि महाराणा प्रताप उसकी अधीनता स्वीकार कर ले। अपने इस उद्देश्य से प्रेरित होकर अकबर ने शाहबाज खान के नेतृत्व में 1578 ई0 के अक्टूबर माह में एक बड़ी सेना मेवाड़ भेजी। अकबर को राणा प्रताप का आजाद होकर घूमना अच्छा नहीं लग रहा था। यही कारण था कि वह उन्हें जीवित देखना नहीं चाहता था।
मुंशी देवी प्रसाद की पुस्तक “महाराणा प्रताप का जीवन चरित” से हमें पता चलता है कि शहबाज खान के साथ अकबर ने कुंवर मानसिंह, राजा भगवानदास और गजरा चौहान को भी भेजा था। शहबाज खान ने इस सेना को महाराणा का सामना करने के लिए जब अपर्याप्त बताया तो अकबर ने पीछे से और भी सेना भेज दी थी।
‘अकबरनामा’ से हमको पता चलता है कि इस अभियान में शहबाज खान ने केलवाड़ा को महाराणा प्रताप से छीन लिया था। राजपूतों ने संगठित होकर अकबर की सेना का सामना किया था। “वीर विनोद” का लेखक हमें बताता है कि राजपूतों ने संगठित होकर संघर्ष करना आरंभ किया। उन्होंने एक दिन रात्रि में मुगल सेना के चार हाथी छीनकर महाराणा को भेंट कर दिए। शाही सेना ने किले की घेराबंदी कर ली। तब महाराणा इस किले की सुरक्षा का भार राव अक्षयराज के पुत्र भाण को सौंपकर स्वयं राणपुर की ओर चले गए ।

कुंभलगढ़ का वह ऐतिहासिक दिन

पीछे से शाही सेना ने किले में बंद राजपूतों पर अचानक प्रहार कर दिया। मुगल सेना के इस प्रकार किए गए हमले का राजपूत सैनिकों ने बड़ी वीरता से सामना किया। एक दिन अचानक किले में राजपूतों की युद्ध सामग्री में आग लग गई। जिससे राजपूतों की भारी क्षति हुई। अब उनके सामने एक ही विकल्प था कि किले के दरवाजे खोल दिए जाएं और मुगलों से अंतिम युद्ध किया जाए। परिणाम स्वरूप उन्होंने 15 अक्टूबर 1578 ई0 को ऐसा ही किया और किले के दरवाजे खोलकर मुगलों से अंतिम युद्ध करना आरंभ कर दिया। कुंभलगढ़ के इतिहास में 15 अक्टूबर 1578 ई0 का वह दिन पावन स्मृति दिवस के रूप में अमर हो गया। भले ही शहबाज खान का इस किले पर नियंत्रण स्थापित हो गया था पर इससे पहले जिन वीर सपूतों ने मां भारती की सेवा के लिए अपना बलिदान दिया उनके बलिदान ने भी इस धरती को पवित्र कर दिया। तब यह हमें देखना है कि हम इतिहास लेखन के समय या इतिहास के अध्ययन के समय संस्कृति नाशकों के साथ खड़े हैं या अपने संस्कृति रक्षकों के साथ खड़े हैं? शहबाज खान ने गोगुंदा और उदयपुर पर भी अधिकार कर लिया। वह महाराणा का पीछा करते हुए बांसवाड़ा की ओर भी बढ़ा।
शहबाज खान की इच्छा थी कि वह महाराणा प्रताप को जीवित गिरफ्तार कर अपने बादशाह के सामने ले जाकर पटक दे। वह सोचता था कि यदि उसने ऐसा कर दिया तो निश्चय ही वह इतिहास का बहुत बड़ा काम कर जाएगा। इससे उसका बादशाह तो उससे प्रसन्न होगा ही साथ ही उसका खुदा भी उसके इस महान कार्य से अत्यंत प्रसन्न होगा। वह जन्नत में 72 हूरों के साथ समय गुजारने के लिए बड़ा लालायित था। पर सच यह था कि उसने चाहे कई किलों पर जीत प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली थी परंतु वह महाराणा प्रताप को अपने अधीन करने या उन्हें गिरफ्तार करके अकबर के सामने ले जाकर पटकने में कभी सफल नहीं हो पाया। अंत में वह निराश होकर अकबर के पास लौट गया था।
अकबर ने उसकी बात को बड़े ध्यान से सुना । उसने कई किलों पर अपना झंडा लहराने की बात को बढ़ा चढ़ाकर अकबर को बताया भी, परंतु अकबर ने उसकी इस प्रकार की जीत पर पानी फेर दिया और स्पष्ट कह दिया कि मुझे किले नहीं महाराणा प्रताप चाहिए। अकबर इस बात से आज भी बहुत दुखी था कि उसने शहबाज खान को जिस अपेक्षा के साथ मेवाड़ भेजा था अर्थात महाराणा प्रताप को गिरफ्तार करके लाने के लिए, उसमें उसका यह सेनापति भी अयोग्य ही सिद्ध हुआ। मन को दु:खी करने वाली ऐसी खबरों को सुनकर अकबर बहुत अधिक क्रोध में आ जाता था।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

(हमारी यह लेख माला आप आर्य संदेश यूट्यूब चैनल और “जियो” पर शाम 8:00 बजे और सुबह 9:00 बजे प्रति दिन रविवार को छोड़कर सुन सकते हैं।
अब तक रूप में मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा नामक हमारी है पुस्तक अभी हाल ही में डायमंड पॉकेट बुक्स से प्रकाशित हो चुकी है । जिसका मूल्य ₹350 है। खरीदने के इच्छुक सज्जन 8920613273 पर संपर्क कर सकते हैं।)

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