विश्वगुरू के रूप में भारत-16
क्षत्रिय महारथी हों अरिदल विनाशकारी
ब्राह्मण लोग राष्ट्र में अज्ञानांधकार से लड़ते हैं, तो क्षत्रिय लोग अत्याचार रूपी राक्षस का नाश करते हैं। ब्राह्मण राष्ट्र के ब्रह्मबल का प्रतीक हैं तो क्षत्रिय वर्ग समाज के क्षात्रबल का प्रतीक है। ब्रह्मबल की रक्षा भी क्षत्रबल से ही की जानी संभव है। यदि कोई राष्ट्र ब्रह्मबल से तो युक्त है परंतु क्षत्रबल से हीन है तो ऐसा राष्ट्र भी संसार में अपनी संप्रभुता और स्वतंत्रता की रक्षा करने में असमर्थ हो जाता है।
संसार में राक्षसी प्रवृत्तियां ब्रह्मबल की व्यवस्था की शत्रु होती हैं। जैसे उल्लू को अंधकार ही प्रिय होता है वैसे ही संसार में दुष्टों को अत्याचार ही प्रिय होता है। वे लोगों पर अत्याचार करते हैं और उनके अधिकारों का हनन करके उन पर अपना अवैध शासन चलाते हैं। महाभारत के युद्घ के पश्चात भारत में विद्वानों का और क्षत्रियों का अभाव हो गया तो संसार में संप्रदायवाद को बल मिला। वेद विद्या लुप्त हो जाने से लूटपाट और मारकाट को प्रोत्साहन मिला। फलस्वरूप सारे संसार में अराजकता फैल गयी। उस अराजकता के फलस्वरूप देशों को अपना गुलाम बनाकर और उन पर अपना अवैध शासन स्थापित कर उनकी संपदा को लूटने की प्रवृत्ति कुछ देशों में व जातियों में बढ़ी। जिससे उपनिवेशवादी अमानवीय प्रवृत्ति ने संसार को अपनी जकडऩ में ले लिया।
विश्व जब तक भारत की वैदिक शासन व्यवस्था से शासित रहा तब तक व अनुशासित रहा। राष्ट्र के लिए वेद ने ‘अरिदल विनाशकारी क्षत्रियों’ के होने की बात इसीलिए कही है कि यदि ऐसे लोग राष्ट्र में रहेंगे तो ब्रह्मबल का सम्मान होता रहेगा और संसार में ज्ञान-विज्ञान की रक्षा होते रहने से न्यायपूर्ण पक्षपातरहित शासन-व्यवस्था बनी रहेगी। हमारा क्षत्रिय समाज किसी समुदाय पर या वर्ग विशेष पर बलात् अपना शासन थोपने की प्रवृत्ति वाला नहीं था, इसके स्थान पर वह तो समाज के उन लोगों का विनाश करने वाला था जो किसी समुदाय, वर्ग या संप्रदाय पर या किसी मानव समूह पर अमानवीय अत्याचार करते थे या उन पर अपना अवैध शासन चलाते थे, या उन्हें किसी भी प्रकार से उत्पीडि़त करते हुए उन्हें अपना गुलाम बनाकर रखते थे या उनके श्रेष्ठ याज्ञिक कार्यों में विघ्न डालते थे। जैसे कि गुरू विश्वामित्र दशरथ नंदन राम और लक्ष्मण को अपने यज्ञ कार्य में विघ्न डालने वाले दुष्टों का संहार कराने केे लिए अधिकार पूर्वक राजा दशरथ से मांगकर ले गये थे। क्षत्रिय का कार्य दूसरों की सहायता करने का ही था। दूध और पूत (पुत्र) को न बेचने की बात भारत में इसीलिए कही जाती थी कि सपूत सभी का होता है और उसे सबका ही कार्य करना चाहिए। इस प्रकार हमारा क्षत्रबल समाज की भावना का सम्मान करने वाला था न कि समाज पर अपना अवैध शासन करने वाला था।
शेष संसार में लोगों के पास क्षत्रबल तो था पर उस पर नैतिकता की या धर्म की कोई नकेल नहीं थी। ब्रह्मबल से शून्य ऐसा क्षत्रबल संसार के लिए भस्मासुर सिद्घ हुआ। जिससे संसार में एक दूसरे के अधिकारों का हनन करने की प्रवृत्ति बढ़ी और सारे संसार को दानवीय अत्याचारों का सामना करना पड़ा। वेद ने क्षत्रबल से पूर्व ब्रह्मबल की प्रार्थना इसीलिए की है कि यदि राष्ट्र में न्यायप्रिय ब्रह्मबल रहेगा तो वह अपने ज्ञान और न्याय से क्षत्रबल को नियंत्रित करने में सफल हो सकेगा। यदि ब्रह्मबल स्वार्थी हो गया तो विनाश होना निश्चित है।
वेद की इस आज्ञा को आज का विश्व भी यदि अपना ले कि ब्रह्मबल न्यायप्रिय हो और उस न्यायप्रिय ब्रह्मबल के आधीन क्षत्रबल हो तो संसार में शांति अपने आप ही स्थापित हो जाएगी।
होवें दुधारू गौवें पशु अश्व आशुवाही
जिस वेद मंत्र पर हम यहां चर्चा कर रहे हैं वह वेद का राष्ट्रगान कहा जाता है। बड़ी सुंदर चर्चा इस मंत्र में वेद का ऋषि कर रहा है। चर्चा को आगे बढ़ाते हुए ऋषि का कहना है कि आदर्श राष्ट्र की स्थापना के लिए दुधारू गौवों का और भार उठाने वाले बैल व शीघ्रगामी घोड़ों का होना भी आवश्यक है।
वेद ने राष्ट्र में ज्ञान संपदा संपन्न ब्राह्मणों और अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित वीर योद्घा क्षत्रियों के होने की बात कहकर यह सिद्घ किया है कि ज्ञान संपदा संपन्न समाज का होना और उस ज्ञान संपदा संपन्न समाज की रक्षा के लिए क्षत्रिय योद्घाओं का होना राष्ट्र के लिए आवश्यक है, वहीं राष्ट्रवासियों का आर्थिक रूप से संपन्न होना भी आवश्यक है। भूखे और लाचार नागरिकों से कभी भी उत्तम राष्ट्र का निर्माण हो पाना संभव नहीं है। प्राचीनकाल में गाय-घोड़े बैल आदि से व्यक्ति की आर्थिक स्थिति का पता चल जाया करता था। इनका संबंध सीधे हमारी आर्थिक संपन्नता से था। बैल घोड़े हमारे लिए आवागमन के अच्छे साधन थे। आज भी जब ‘गाड़ी-घोड़ा’ शब्द प्रयोग किया जाता है तो इसमें गाड़ी का अभिप्राय बैलगाड़ी से होता है-जो कि प्राचीनकाल में हमारे सामान को ढोने में सहायक होती थी, जबकि घोड़ा हमारे लिए सवारी का उत्तम साधन था।
अत: आज जब हम किसी के विषय में यह कहते हैं कि वह ‘गाड़ी घोड़ा’ से संपन्न है तो इसका अभिप्राय यही होता है कि उस व्यक्ति के पास यातायात के और सवारी के अच्छे साधन हंै। इस प्रकार यह ‘गाड़ी घोड़ा’ का शब्द वेद की सामाजिक व्यवस्था का प्रतीक है-जो इसी वेदमंत्र से निकलकर चला और करोड़ों वर्ष से भारतवासियों की आर्थिक समृद्घि को बताने में प्रयुक्त किया जा रहा है। ‘गाड़ी घोड़ा’ जैसे अनेकों शब्द भारतीय समाज में बिखरे पड़े हैं जिन्हें हम परंपरा से बोल लेते हैं, यदि उनकी गंभीरता और वास्तविकता पर चिंतन किया जाए तो ये शब्द भारतीय संस्कृति के गौरवपूर्ण भव्य भवन के ध्वंसावशेष हैं। जिन्हें आज भी यदि जोडऩे का प्रयास किया जाए तो बहुत सुंदर सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया जाना संभव है।
वेद मंत्र कहता है कि राष्ट्र में दूध देने वाली गायें होनी चाहिएं। इसका अभिप्राय है कि गायों में बांझपन ना हो, उनके रहने-सहने, खाने-पीने आदि की उचित व्यवस्था हो। जिससे वे समय पर गर्भ धारण करती रहें और किसी प्रकार के रोग की शिकार ना हों। आजकल गायों के लिए हरी घास की कमी पड़ रही है और उन्हें चराने के लिए जंगल नहीं रहे, तो उसका परिणाम ये आ रहा है कि गायें गर्भवती नहीं हो रही हैं। उनमें बांझपन आ रहा है। जिसका प्रभाव हमारे बच्चों पर पड़ रहा है, क्योंकि उन्हें गाय का दूध पीने को नहीं मिल पा रहा है। वेद इसी अवस्था या स्थिति को रोकने के लिए संकेत दे रहा है कि राष्ट्र के निर्माण में दुधारू गायों का होना आवश्यक है।
आज तो राष्ट्र निर्माण में गायों के योगदान की बात सुनकर लोगों को हंसी आती है, पर वेद अपनी बात को गंभीरता से कहता है कि राष्ट्र निर्माण में दुधारू गायों का योगदान रहता है। गायें दुधारू रहें-इसके लिए वेद विशेष बल देता है। इसका अभिप्राय है कि मानव समाज को गायों के लिए उत्तम चारे की और घास के मैदानों की व्यवस्था करके रखनी चाहिए, और इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि गायें बांझपन का शिकार ना हों अन्यथा राष्ट्र का यौवन नष्ट हो जाएगा।
आज हमने गाय की उपयोगिता को राष्ट्र निर्माण में कोई स्थान न देकर देश में दूध के स्थान पर विदेशी पेय पदार्थों और तथाकथित पौष्टिक बनावटी खाद्य-पदार्थों को अपने बच्चों को खिलाकर देख लिया है। जिनके उल्टे परिणाम भोगने पड़ रहे हैं। अच्छा हो कि वेद की बात को मानकर हम यथाशीघ्र गाय के राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान को स्वीकार करें और वेद के राष्ट्रगान को समझकर तदनुरूप कार्य करें।
आधार राष्ट्र की हों नारी सुभग सदा ही
‘पुरन्धिर्याेषा’ अर्थात अतिबुद्घिमती नगर धारिका स्त्रियों का होना राष्ट्र निर्माण के लिए वेद ने आवश्यक माना है। वेद ने स्त्री को नगरधारिका कहकर बहुत बड़ा सम्मान दिया है और उससे अपेक्षा की है कि समय आने पर राष्ट्र का संचालन या प्रबंध करने के लिए उन्हें तत्पर रहना चाहिए, अर्थात नारी इतनी बुद्घिमती और निर्णय लेने में कुशल हों कि राष्ट्र प्रबंध करने से भी पीछे न हटें। भारत में गार्गी, मैत्रेयी, मदालसा, अनुसूया, कौशल्या, कैकेयी, गांधारी, कुन्ती जैसी अनेकों सन्नारियां विभिन्न कालों में उत्पन्न हुई हैं। जिन्होंने अपने वैदुष्य और बुद्घिमत्ता की छाप छोड़ी है। क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत