मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 18 ( ख ) महाराणा उदय सिंह और उनकी शौर्य गाथा
महाराणा उदय सिंह और उनकी शौर्य गाथा
मेवाड़ की यह भी एक परंपरा रही है कि जब किसी महाराणा का देहांत होता था तो उसका उत्तराधिकारी उसके अंतिम संस्कार में सम्मिलित नहीं होता था। उसे मेवाड़ के उत्तराधिकारी के रूप में राजभवन में ही रहना होता था। मेवाड़ की इस परंपरा का निर्वाह करने के दृष्टिकोण से सभी सरदारों ने यह निर्णय लिया कि महाराणा प्रताप सिंह महाराणा उदय सिंह के उत्तराधिकारी होने के कारण अंतिम संस्कार में सम्मिलित न होकर राजभवन में ही रहेंगे। जब महाराणा उदय सिंह की इच्छा के अनुरूप जगमल ने राजभवन में रहने की इच्छा व्यक्त की तो सभी राजदरबारियों को राणा उदय सिंह द्वारा लिए गए गुप्त निर्णय की जानकारी हुई। इस पर महाराणा प्रताप सिंह ने तत्काल यह निर्णय लिया कि यदि पिता जी की ऐसी इच्छा थी तो वह अब राजभवन को सदा के लिए छोड़कर वनों में जाकर तपस्या करेंगे। महाराणा प्रताप सिंह की इस बात को सुनकर सभी राजदरबारियों ने एकमत से निर्णय लिया कि वे अभी कहीं नहीं जाएंगे और जब हम महाराणा का अंतिम संस्कार करके लौट आएंगे तो इस बात का निर्णय हम करेंगे कि उनका उत्तराधिकारी जगमल होगा या महाराणा प्रताप सिंह होंगे ?
जब राजदरबारी और सरदार लोग महाराणा उदय सिंह का अंतिम संस्कार करके लौटे तो उन्होंने राजसिंहासन पर विराजमान जगमल को उतारकर उनके उसके स्थान पर महाराणा प्रताप सिंह को बैठा दिया। इस प्रकार मेवाड़ के राज दरबार में एक मौन क्रांति हो गई। हमारा मानना है कि राजदरबारियों की कृपा से महाराणा प्रताप सिंह को सत्ता मिली और इसके बाद वह मेवाड़ाधिपति कहलाए। तब उनके मानस को समझकर कई कवियों और लेखकों ने महाराणा संग्राम सिंह और महाराणा प्रताप के बीच खड़े राणा उदय सिंह की उपेक्षा करनी आरंभ कर दी। जिससे राणा उदय सिंह के साथ कई प्रकार के आरोप मढ़ दिये गये। जिससे इतिहास में उन्हें एक विलासी और कायर शासक के रूप में निरूपित किया गया है। परंतु इतिहास की घटनाओं का सूक्ष्मता से अनुशीलन करने की आवश्यकता है। सौभाग्य की बात है कि नये अनुसंधानों से यह बात स्पष्ट हो रही है कि राणा उदय सिंह के साथ जो कुछ किया गया है उसमें अति हो गयी है।
स्वामी आनंद बोध सरस्वती जी ने 'महाराणा प्रताप' नामक अपनी पुस्तक के पृष्ठ 32 पर हमें बताया है कि राणा उदय सिंह का जब कोमलमीर दुर्ग में राज्याभिषेक हो रहा था, तभी झालावाड़ के एक सरदार ने अपनी पुत्री का विवाह राणा से करने का प्रस्ताव किया था। झालावाड़ के सरदार के इस प्रस्ताव को बहुमत से स्वीकार कर लिया गया था। इसी रानी से राणा उदय सिंह को महाराणा प्रताप सिंह नाम के पुत्र रत्न की प्राप्त हुई थी। इसके पश्चात महाराणा उदय सिंह का औपचारिक राजतिलक चित्तौड़गढ़ के दुर्ग में ही संपन्न हुआ था। उस समय महाराणा प्रताप का जन्म हो चुका था। तब राजधात्री पन्ना गूजरी इस नवजात शिशु अर्थात प्रताप को अपनी गोद में लेकर आई थी और उसे एक अनमोल भेंट के रूप में उस समय राणा उदय सिंह की गोद में दिया था।
1567 ईस्वी में जब महाराणा उदय सिंह और अकबर का युद्ध हुआ तो उस समय चित्तौड़ के सेनानायकों और मंत्रियों के आग्रह पर राणा उदय सिंह युद्ध के बीच से निकलकर सुरक्षित स्थान पर चले गए थे । उनके सेनानायक और सरदारों का मानना था कि उदय सिंह को मेवाड़ ने बड़ी कठिनता से प्राप्त किया है। यदि इस युद्ध में वे मारे गए तो यह स्थिति राणा वंश के लिए अति संकटदायी होगी। यही कारण था कि उन्होंने अपने महाराणा को सुरक्षित रूप से निकाल दिया था। इतिहासकार हीराचंद ओझा के विवरण के अनुसार 1567 में अकबर की मुगल सेना द्वारा किले को घेरने के बाद सभी सरदारों की सहमति से राजपरिवार को किले से निकालकर एक सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया। जिस समय अकबर ने चित्तौड़ पर अपना पहला आक्रमण 1563 ईस्वी में किया था उस समय उसने महाराणा उदय सिंह से अपने लिए शाही परिवार की कन्या का डोला मांगा था। जिसे स्वाभिमानी महाराणा उदय सिंह ने सिरे से नकार दिया था। इससे पहले अकबर कई राजपूत परिवारों से विवाह संबंध स्थापित कर चुका था। इसके उपरांत भी राणा उदय सिंह ने उसे अपने राज्य परिवार की कोई कन्या देने से स्पष्ट इनकार कर दिया था। ऐसा निर्णय भी राणा उदय सिंह की वीरता को ही स्पष्ट करता है। यदि उनके भीतर कायरता होती तो वह अकबर के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते।
वैसे अकबर के चित्तौड़ पर किए गए इस पहले आक्रमण के संदर्भ में यह बात भी सच है कि राणा उदय सिंह की एक रानी ने इस युद्ध में अपने वीरांगना होने का परिचय दिया था। वह युद्ध क्षेत्र में शत्रु की सेना को चीरती हुई अकबर तक पहुंचने में भी सफल हो गई थी। यद्यपि वह अकबर को मारने में सफल नहीं हो सकी थी। इस घटना से अकबर अत्यधिक लज्जित हुआ था। महाराणा उदय सिंह भी अपनी रानी के रण कौशल की प्रशंसा उस समय खुले दिल से करते थे । रानी के लिए उनकी ऐसी प्रशंसा उनके सरदारों को अच्छी नहीं लगती थी । महाराणा के सरदारों का मानना था कि उनके पराक्रम को नकार कर महाराणा इस युद्ध को एक महिला के नेतृत्व में जीतने की बात कहकर उनका अपमान कर रहे हैं। इसी कारण जब अकबर से 1567 में महाराणा उदय सिंह का फिर संघर्ष हुआ तो उस समय उनके कई लोगों ने उनसे मुंह फेर लिया था।
1567 में जब चित्तौड़गढ़ को लेकर अकबर और महाराणा उदयसिंह के बीच संघर्ष हुआ उसके संदर्भ में हमें यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि उस समय वह राणा उदय सिंह की सूझबूझ बहुत ही कारगर रही थी। इस बार की चढ़ाई के समय अकबर ने महाराणा उदय सिंह के किले का लगभग 6 माह तक घेराव किया था। इस दौरान अकबर ने महाराणा उदय सिंह के लिए समस्याएं खड़ी करते हुए उन्हें कई प्रकार से उत्पीड़ित किया था। महाराणा के लिए भी कई प्रकार की कठिनाइयां खड़ी हो गई थीं। उनमें से एक यह भी थी कि किले के भीतर के कुओं तक में पानी समाप्त हो गया था। जिससे किले के भीतर के लोगों की ओर सेना की स्थिति बड़ी दयनीय होने लगी थी। इस समय करो या मरो की स्थिति आ गई थी। तब मेवाड़ के सरदारों और सेना के अधिकारियों ने मिलकर राणा उदय सिंह से निवेदन किया कि राणा संग्राम सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में आप ही हमारे पास हैं, इसलिए आपकी प्राण रक्षा इस समय आवश्यक है। अत: आप को किले से सुरक्षित निकालकर हम लोग शत्रु सेना पर अंतिम बलिदान के लिए निकल पड़ें। मेवाड़ के अधिकारियों का यह बहुत ही संतुलित निर्णय था। जिसे मान लेने के अतिरिक्त महाराणा के पास भी कोई अन्य विकल्प नहीं था।
इसके उपरांत भी महाराणा उदय सिंह ने बड़ी सावधानी से काम लिया। वह किसी हड़बड़ी में किले से बाहर नहीं निकले। उन्होंने किले से निकलने के साथ-साथ यह भी प्रबंध किया कि किले में स्थित सारे राजकोष को ही सुरक्षित बाहर निकाल दिया जाए। उन्होंने सारे राजकोष को चित्तौड़गढ़ से बाहर निकालने के लिए अपने विश्वसनीय साथियों को नियुक्त किया और शत्रु की आंखों में धूल झोंकते हुए किले को छोड़कर जाने में सफल हो गए। इसके पश्चात अगले दिन महाराणा उदय सिंह के वीर सरदारों ने अकबर के साथ घोर युद्ध किया। उसमें हमारे वीर देशभक्तों ने अपना अनुपम बलिदान दिया। अपने इस अनुपम और अंतिम बलिदान को देते समय हमारे वीर बलिदानियों के भीतर जहां बलिदानी भावना काम कर रही थी वहीं इस बात का आत्म संतोष भी उन्हें था कि मेवाड़ की रक्षा करने वाले महाराणा उदय सिंह सुरक्षित स्थान पर पहुंच गए हैं।
हमारे अनेक वीर उस युद्ध में बलिदान हो गए थे। जब अकबर जब हमारे बलिदानी वीरों की छाती पर पैर रखता हुआ किले में प्रवेश करने में सफल हुआ तो उसे शीघ्र ही पता चल गया कि वह युद्घ तो जीत गया है, लेकिन कूटनीति में हार गया है, किला उसका हो गया है परंतु किले का कोष राणा उदय सिंह लेकर चंपत हो गये हैं। महाराणा उदय सिंह की समझदारी और सावधानी ने इस मुगल बादशाह को जीत कर भी पराजय का स्वाद चखा दिया था। अकबर झुंझलाकर रह गया। कभी-कभी युद्ध में हारी हुई बाजी भी उस समय जीत में परिवर्तित हो जाती है जब व्यक्ति धैर्य ,संयम और विवेक से काम लेता है । इसके लिए हमें युद्ध के तात्कालिक परिणामों पर ध्यान न देकर दूरगामी परिणामों पर ध्यान देना चाहिए। यदि महाराणा उस समय इस प्रकार का निर्णय नहीं ले पाते तो यह निश्चित था कि उनका बलिदान भी इस युद्ध में हो गया होता।
1567 की इस लड़ाई में यदि राणा उदय सिंह भी बलिदान हो गये होते तो क्या होता? इस प्रश्न पर कभी विचार नही किया गया। यदि राणा उदय सिंह भी बलिदान हो जाते तो हमें उदयपुर नाम की नई राजधानी कभी बसी हुई नही दिखाई देती। उदयपुर का मेवाड़ के इतिहास में विशेष स्थान है। विशेष रूप से इसलिए कि 1567 के उस युद्ध के पश्चात इसी स्थान से कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। जिन्होंने इतिहास को प्रभावित किया। यदि उस समय राणा उदय सिंह का बलिदान हो गया होता तो बहुत संभव है कि महाराणा प्रताप का स्थान भी तब आज के महाराणा से सर्वथा विपरीत ही होता।
राणा उदय सिंह ने जिस प्रकार किले के बीजक को बाहर निकालने में सफलता प्राप्त की थी वह उनकी सूझबूझ और बहादुरी का ही प्रमाण है। विपरीत और विषम परिस्थितियों में धैर्य और संयम बनाए रखना किसी कायर के बस की बात नहीं होती। ऐसे लोग ही धीर, वीर और गंभीर होते हैं जो विषम परिस्थितियों में समावस्था को बनाए रखने में सफल होते हैं। महाराणा उदय सिंह ने उस समय जो कुछ भी किया था वह किसी का हर व्यक्ति का कार्य नहीं था। इसके विपरीत वह एक धीर वीर और गंभीर व्यक्ति का कार्य था।
यदि राणा उदय सिंह कायर होते तो उन्हें उनके अपने राजदरबारी, मंत्री, सामंत आदि भी कभी पसंद नहीं करते। क्योंकि राणा परिवार की यह विशेषता रही थी कि उसने किसी कायर को कभी अपना राजा स्वीकार नहीं किया। जब हम उदय सिंह को कायर या दुर्बल मानते हैं तो हमें उनके राजवंश की इस परंपरा को भी ध्यान में रखना चाहिए। भारत ने कभी किसी कायर व्यक्ति को राजा न मानने की परंपरा प्राचीन काल से स्थापित की थी। मेवाड़ का राजवंश इस परंपरा का निर्वाह करने वाला राजवंश था।
एक कायर के रूप में महाराणा उदय सिंह यदि मेवाड़ से निकलते तो वह किले से अकेले भागते और फिर कहीं अरावली की पहाडिय़ों में भटक भटककर मर जाते। तब उनका गुणगान मेवाड़ के लोग भी कदापि नहीं करते। महाराणा उदय सिंह उस समय अपने कुछ विश्वसनीय सैनिकों , राज्यदरबारियों और साथियों को बीजक सहित बाहर निकालकर लाने में भी सफल रहे। यह बीजक या राजकोष कितना भारी था इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने इसी धन से एक नयी राजधानी ही बसा डाली और वहां रहकर अगले 5 वर्ष तक शेष बचे मेवाड़ पर शासन भी किया।
अपने बीजक की देखभाल का दायित्व उन्हेांने अपने पिता राणा संग्राम सिंह के विश्वासपात्र रहे भामाशाह को दिया। उस समय भामाशाह की अवस्था लगभग 22 वर्ष थी। समकालीन इतिहास में संभवत: ऐसे उदाहरण मिलने दुर्लभ हैं जब किसी शासक ने अपना एक किला इस प्रकार राज्यकोष से खाली किया और दूसरी जगह जाकर नई राजधानी बनाकर वहां से शासन किया।
जहां तक राणा उदय सिंह के द्वारा राजदरबारियों के परामर्श को मानकर किले को छोडऩे की घटना में उनकी दुर्बलता को देखने की बात है तो यह कोई गलत बात नही थी। महाराणा प्रताप जब 1576 में हल्दीघाटी की लड़ाई लड़ रहे थे तो उस समय सरदार झाला ने भी अपना छत्र उन्हें देकर युद्घ के मैदान से बाहर निकलने के लिए विवश कर दिया था, जिसे महाराणा प्रताप ने स्वीकार कर लिया था। ऐसी ही सलाह को यदि राणा उदय सिंह ने भी स्वीकार कर लिया था तो क्या गलत हो गया था?
राणा उदय सिंह ने 1563 में अकबर को एक बार परास्त भी किया था परंतु अगले ही वर्ष अकबर विभिन्न राजपूत शक्तियों को साथ जोड़कर जब पुन: आ धमका तो निरंतर छह माह तक इस चढ़ाई का दिलेरी से सामना करते हुए रहकर भी अंतिम विकल्प मौत ही नजर आ रही थी जिसे अपनाकर देश और मेवाड़ का लाभ होने वाला नही था।
कहने का अभिप्राय है कि हमें महाराणा उदय सिंह पर लगे कायरता दुर्बलता के आरोपों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और उन्हें इतिहास के न्यायालय से ससम्मान रिहा करना चाहिए। इसके स्थान पर यह तथ्य स्थापित होना चाहिए कि उनके शासनकाल में भी मेवाड़ आगे बढ़ने का सतत प्रयास करता रहा और अपने इस प्रयास में किसी सीमा तक उसे सफलता भी प्राप्त हुई। इस सफलता का श्रेय हमें निसंकोच महाराणा उदय सिंह को देना चाहिए। इस श्रेय को देने से पहले हमें यह समझना चाहिए कि महाराणा उदय सिंह के समय में मेवाड़ ना तो थका था, ना झुका था, ना थमा था और ना ही रुका था। उसे झुकाने के लिए अनेक प्रकार के झंझावात आए और उन झंझावातों का सामना महाराणा उदय सिंह ने एक कुशल रणनीतिकार के रूप में किया तो फिर उनके साथ अन्याय क्यों?
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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