पूजनीय प्रभो हमारे……भाग-70
इदन्नमम् का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो
क्या कोई ऐसा इतिहासकार है जो यह बता सके कि विदेशियों को इस देश से खदेडऩे का वीरतापूर्ण संकल्प इस देश में अमुक तिथि और अमुक वार को अमुक स्थान पर अमुक राजा के नेतृत्व में लिया गया था? निश्चित रूप से ऐसा बताने वाला या स्पष्ट करने वाला कोई भी इतिहासकार नहीं होगा, और हमारा मानना है कि हो भी नहीं सकता। पर फिर भी यह सत्य है कि इस देश ने ऐसा संकल्प लिया और वह किसी विशेष तिथि को या विशेष वार को विशेष राजा के नेतृत्व में विशेष स्थान पर नहीं लिया था। ऐसा इस देश ने स्वाभाविक रूप से लिया और अपने मूल संस्कार-‘परमार्थ के लिए जीओ’ -की धारणा के वशीभूत होकर लिया। ‘परमार्थ के लिए जीओ’ की इसी भावना ने इस देश में मानवतावाद का प्रचार-प्रसार और विस्तार किया और इसी विचार ने यहां राष्ट, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की उत्कृष्ट भावना का सृजन किया। राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की जैसी भावना भारत में है वैसी अन्यत्र मिलना असंभव है।
यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि भारत में राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता मानव, मानवतावाद और मानवीय संवेदनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले पावन पवित्र शब्द हैं। राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता और मानव, मानवतावाद और मानवीय संवेदनाओं के ये पवित्र शब्द ही भारत की संस्कृति के ‘इदन्नमम् का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो’ इस आदर्श को पूरा करने वाले ऐसे शब्द हैं जो इस देश के लोगों को परस्पर सम्मैत्री और सहयोग का पात्र बनाते थे। यही कारण था कि भारत के राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता में विखण्डन नहीं था, संपूर्ण भूमंडल एक राष्ट्र था, उसकी प्रजा पर हमारा एक ही कानून लागू होता था और वह था -मानवतावाद का कानून।
विश्व को खण्ड-खण्ड करने और इस मानवजाति को सम्प्रदायों में विभाजित करके देखने की प्रवृत्ति उन लोगों की बनी जिनकी सोच लूट-खसोट की थी और मानवता पर अत्याचार करके राज करना जिनका उद्देश्य था। आप देखें कि जिस दिन से विश्व से भारत का मूल संस्कार ‘परमार्थ’ लुप्त होकर लुटेरी जातियों का ‘स्वार्थ’ प्रभावी हुआ उसी दिन से संसार में विखण्डन आरंभ हो गया। ये देशों की, राष्ट्रों की, प्रदेशों की सीमाएं हमारी उन्नति का नहीं अपितु हमारे पतन की प्रतीक हैं, हमारे चिंतन की विशालता का नहीं अपितु उसकी संकीर्णता की प्रतीक हंै। हमारे विकास की नहीं अपितु हमारे विनाश की प्रतीक हैं।
इसका अभिप्राय है कि शांति और विकास, स्थिरता और सुव्यवस्था ये सभी ‘इदन्नमम् के सार्थक व्यवहार’ से ही उपलब्ध हो सकती हैं। स्वार्थ के द्वारा इन्हें प्राप्त किया जाना संभव नहीं है। स्वार्थ में स्वार्थ ही जुड़ता जाएगा और हम देखेंगे कि हम टूटते ही जाएंगे। कण-कण से अणु-अणु में बिखर जाएंगे हमारा संघटन नही बन पाएगा। उधर परमार्थ से हम जुड़ते जाएंगे, कण-कण से कंकर बनेगा और अंत में ‘शंकर’ अर्थात एक पूरा विश्व-राष्ट्र बनेगा। अणु-अणु को जोड़ो तो कोई मनोहारी चित्र बनेगा और अणु-अणु को तोड़ो तो कोई कृति, कोई रचना आत्महत्या के लिए विवश हो जाएगी। कण-कण को जोड़ो तो कोई ‘कंकर’ बनेगा और वही कंकर विराट पुरूष शंकर राष्ट्र के रूप में हमारे सामने आएगा। इस विश्व की एक मूल भावना (राष्ट्र एक अदृश्य भावना ही तो है) परमार्थ के रूप में सामने आएगा।
इस प्रकार जब हम यह कहते हैं कि ‘कंकर-कंकर में शंकर हैं’-तो उसका अभिप्राय यही है कि हर कंकर शंकर का निर्माण करने में सहायक है। इसे आप यूं भी कह सकते हैं कि जब हर ‘कंकर’ की एक दूसरे के साथ जुडऩे की भावना होती है तो वह एक विशाल चित्र का रूप बन जाता है, पर जब वह टूटने लगता है, उसका क्षरण होने लगता है तो वह विशाल चित्र टूटते -टूटते विनाश को प्राप्त हो जाता है। वर्तमान विश्व इसी दुर्दशा को प्राप्त होता जा रहा है।
वर्तमान विश्व की इस दुर्दशा पर चिंता व्यक्त करते हुए और उसे इस दुर्दशा से उबारने के लिए ही कहा गया है :-
यावत्स्यथमिदम् शरीरमरू जं यावज्जरा दूरतो,
यावच्चेन्द्रियशक्तिर प्रतिहता यावत्क्षयो नायुष:।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्य: प्रयत्नो महान
प्रोददीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यम: कीदृश:।।
(वै. श. 75)
कहा गया है कि-”हे मनुष्य ! जब तक तेरा भगवान का दिया हुआ शरीर स्वस्थ है, इसमें कोई रोग नहीं है-किसी भी कार्य के करने में और प्रभु भजन में जब तक इसे कोई कष्ट नहीं हो रहा है, अर्थात जब तक इससे वृद्घावस्था पूर्णत: दूर है, अथवा जब तक यह बुढ़ापे के आक्रमण से अपने आपको सुरक्षित अनुभव कर रहा है, जब तक तेरी इंद्रियों की शक्ति भी बनी हुई है और तेरे नियंत्रण में है, आयु का किसी भी प्रकार से क्षय नहीं हुआ है, तब तक संसार के किसी भी बुद्घिमान व्यक्ति को चाहिए कि आत्मकल्याण का उपाय करे, ऐसा मार्ग अपनाये जो अपना और संसार का कल्याण कराये।” संसार में आकर जोडऩे-जोडऩे की आत्मघाती नीति का परित्याग करे और ‘छोडऩे-छोडऩे’ की आत्मकल्याणी और सर्वकल्याणी नीति अर्थात इदन्नमम् की नीति का पालन करे जीवन को सार्थक बनाये, नहीं तो घर जल जाने पर कुआं खोदने से क्या लाभ होगा। जो लोग सार्थक जीवन जीते हैं वे संसार में हर क्षण प्रसन्नता को खरीदते-बांटते रहते हैं। उनका व्यापार हो जाता है-खुशियां खरीदना और बांटना। व्यापार भी कैसा लेते हैं- बड़ा मूल्य देकर और बांटते हैं नि:शुल्क। पर फल पाते हैं-अप्रत्याशित लाभ का। एक विद्वान या ब्राह्मण जीवन भर नि:स्वार्थ भाव से ज्ञान बांटता रहा, पर ज्ञान बांटने से पूर्व ज्ञान प्राप्ति का अथक परिश्रम किया और जब अपनी झोली पूर्णत: भर गयी तो फिर उसे बांटने लगा, बांटता गया, बांटता गया, ज्ञान था कि समाप्त भी नहीं हो रहा था..मानो वह ऐसा कुंआ बन गया था-जो नीचे सीधे समुद्र से जुड़ गया था।
क्रमश: