विश्वगुरू के रूप में भारत-51
विश्वगुरू के रूप में भारत-51
(16) रैक्ण-वैध या लब्धव्य राशियों में से जो संशयित राशि है, अर्थात जिसकी प्राप्ति की आशा पर संशय है व रैक्ण कही जाती है।
(17) द्रविण-उपार्जित राशि में से जो लाभराशि हमारे व्यक्तिगत कार्य के लिए है-उसे द्रविण कहा जाता है।
(18) राध:-द्रविण में से जो भाग बचकर अपनी निधि को बढ़ाता है उसे राध: कहा जाता है।
(19) रयि-क्रम करने से लेकर द्रविण तक के गतिशील धन को रयि कहा जाता है।
(20) द्युम्न-राध: संज्ञक धनराशि से हम जिन स्वर्ण, हीरा, मोती आदि पदार्थों को खरीदते हैं, मकान आदि बनवाते हैं भू-संपत्ति आदि बाग-बगीचा बनाना या खरीदना आदि ये द्युम्न हैं (द्युम्न चमकीली धातु को कहते हैं-द्युम्न शाह का भी प्रतीक है और शाह भी चमकीला होता है-इसलिए हमारी शाही शानो शौकत को दिखाने वाले धन को द्युम्न कहा जाता है।)
(21) वसु-भू संपत्ति एवं मकान आदि की निवास संपत्ति को वसु कहा जाता है। (इस संपत्ति को आज कल बिगाड़ कर ‘बसापत’ या बसावट भी कहा जाता है।)
(22) भोग-यह वह राशि है जिससे हम सुखों की प्राप्ति करते हैं। यही भोग संज्ञान है।
(23) श्रव-जिस धन का दानादि में विनियोग हो या यज्ञादि कार्यों का जिस धन से विस्तार होता है वह श्रव: है। इसी को यश: एवं रा: भी कहते हैं।
(24) गय:-जिस धन या संपत्ति को हम अपनी संतानों के लिए प्रजा के कल्याणार्थ या राज्य के विस्तार के लिए लगाते हैं-वह गय: कही जाती है।
(25) क्षत्र:-जिस धन को हम अपनी रक्षा एवं आपातकालीन स्थिति के लिए लगाते हैं वह क्षत्र कही जाती है।
(26) वटिव:- अपने व्यापारिक प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए जो राशि विज्ञापन, प्रसिद्घि आदि के लिए व्यय की जाती है-वह वटिव: संज्ञक है।
(27) ऋक्थ-जिस संपत्ति को हम दाय भाग के रूप में प्राप्त करते हैं या दाय भाग के लिए रखते हैं-वह ऋक्थ कही जाती है।
(28) वृत:- जो राशि हम उधार रूप में किसी से प्राप्त करते हैं, वह वृत: कही जाती है।
(29) वृत्र:- यह वह राशि है जिसको हम किसी को देकर उसके व्यापार या स्वामित्व की संपत्ति पर अपना प्रभुत्व स्थापित करते हैं।
श्री वीरसेन वेदश्रमी जी की प्रसिद्घ पुस्तक ‘वैदिक सम्पदा’ में उक्त 29 प्रकार के धनों की चर्चा की गयी है। आजकल के तथाकथित सभ्य विश्व की अर्थव्यवस्था के पास भी इतने शब्द नहीं हैं जितने हमारे प्राचीन अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न प्रकार के धनों को परिभाषित करने के लिए हमें दिये हैं, और यदि हैं तो वह इतनी सूक्ष्मता से इन्हें परिभाषित नहीं करते जितना वेद ने या उसकी अर्थ व्यवस्था ने इन्हें परिभाषित किया है।
हमारा यह भी मानना है कि यदि आज की उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के पास ये सारे शब्द हैं भी तो वे सारे के सारे पहले से ही वैदिक अर्थव्यवस्था में होने से यह सिद्घ होता है कि कभी वैदिक अर्थशास्त्र ने ही इस संसार को अपना मार्गदर्शन दिया है। आज की अर्थव्यवस्थाएं चाहे कितनी ही उन्नत अर्थव्यवस्था क्यों न हों, वे भय, भूख और भ्रष्टाचार से विश्व समाज को मुक्त नहीं कर पायी हैं। जबकि भारत की अर्थव्यवस्था के पास भय, भूख और भ्रष्टाचार से मुक्ति पाने का उपाय है।
वैदिक अर्थशास्त्र और विनिमय
हमारे यहां गांव देहात में आजकल भी गाय को धन कहा जाता है। गोधन तो एक भली प्रकार प्रचलित शब्द है ही। पर वास्तव में यह एक शब्द न होकर एक व्यवस्था का प्रतीक है और यह व्यवस्था भारत की वैदिक अर्थव्यवस्था ही है। जिसमें गाय का विशेष महत्व था। गाय को यदि भारतीय वैदिक अर्थव्यवस्था की धुरी कहा जाये तो भी कोई अतिश्योक्ति न होगी। प्राचीनकाल में गाय और उसके वंश के बैलादि पशु वस्तु के विनिमय में भी प्रयोग किये जाते थे। मान लीजिये आपकी कोई वस्तु सौ स्वर्ण मुद्राओं के मूल्य के समान है तो आपको एक दूसरा व्यक्ति सौ स्वर्ण मुद्राओं के मूल्य के बराबर की गायें देकर आपसे वह वस्तु ले लेता था। इस प्रकार यहां गाय या गोवंश धन का काम कर जाता था। इसीलिए गाय को धन की संज्ञा दी जाती है। ऐसा विनिमय हमारे यहां अन्य वस्तुओं का भी होता था। जैसे आपके पास शक्कर है और मेरे पास वस्त्र हैं, तो उनका भी परस्पर समान मूल्य तक विनिमय हो जाया करता था। इस प्रकार बिना मुद्रा के लेन-देन की भ्रष्टाचार मुक्त अर्थव्यवस्था भारत ने अपनायी। यह विश्व की सर्वप्रथम और आदर्श अर्थव्यवस्था थी-जिसमें हर किसान को उसकी उपज का उचित मूल्य मिलता था और किसी प्रकार के बिचौलियों के लिए कहीं कोई स्थान नहीं था। इसी अर्थव्यवस्था की ओर विश्व आज बढऩे के लिए लालायित है। स्वयं भारत की सरकार भी मुद्राविहीन अर्थव्यवस्था अपनाने की योजना पर काम करना चाहती है।
जब से हमारे देश में बैंकिंग प्रणाली आयी है तभी से हमारे यहां भ्रष्टाचार बढ़ा है। बैंकिंग प्रणाली से पूर्व यहां की ईमानदारी के सामने सारा विश्व शीश झुकाता था। इस प्रकार की विनिमय प्रणाली को भारत के लोग ‘व्यवहार’ करते थे। इसे व्यापार का नाम नहीं दिया जाता था। इस प्रकार की विनिमय प्रणाली में वस्तुओं का आदान-प्रदान तुरन्त होता था। अत: किसी भी प्रकार के आर्थिक अपराध यथा बेईमानी आदि होने की संभावना इसमें नहीं रहती थी। इसके अतिरिक्त आप यदि वस्त्र बनाने के कुशल कारीगर हैं और दूसरा व्यक्ति एक किसान है और उसके पास आलू हैं तो वह आपसे आलू के बदले में आपका बनाया हुआ वस्त्र खरीद सकता था। इसमें किसी प्रकार के बिचौलिये की आवश्यकता नहीं थी। आज तो आलू वाले से आलू का व्यापारी पहले आलू खरीदता है और वह भी न्यूनतम मूल्य पर खरीदता है-फिर कपड़े का व्यापारी कपड़े वाले से न्यूनतम दर पर कपड़ा खरीदता है फिर वे दोनों पैसे वाले होते हैं। कम से कम मूल्य पर अपने श्रम को बेचकर फिर वह अधिकतम मूल्य पर व्यापारी से आलू और कपड़ा खरीदने निकलते हैं। बिचौलियों की इस अर्थव्यवस्था ने हमें व्यर्थ व्यवस्था के युग में जीने के लिए अभिशप्त कर दिया है। हमारी वर्तमान सरकार इस बिचौलिया संस्कृति को भी मिटाने का प्रयास कर रही है। सरकार के इस इरादे से स्पष्ट होता है कि वह वैदिक अर्थव्यवस्था की ओर लौटना चाहती है और वह यह मान चुकी है कि यह बिचौलिया संस्कृति हमारे लिए घातक है। पैसे के लेन-देन की प्रचलित अर्थव्यवस्था पूर्णत: दोषपूर्ण है। इसमें ‘व्यवहारी’ घाटे में है और व्यापारी ने लूट मचा रखी है। बिचौलिये आलू उत्पादक या वस्त्र निर्माता से कहीं अधिक लाभ कमा रहे हैं। ऐसी व्यर्थ व्यवस्था हमें पश्चिम के देशों से मिली है। इसका भारतीयता से दूर-दूर का भी संबंध नहीं है। जो लोग पश्चिम की इस व्यर्थ अर्थव्यवस्था का गुणगान करते रहते हैं उन्हें इसकी वास्तविकता का बोध होना चाहिए।
विनिमय के विषय में यजुर्वेद (3/50) में आया है-”तू मुझे दे और मैं तुझे दूं। तू मेरी यह वस्तु अपने पास रखकर इसके प्रतिरूप में जो विनिमय द्रव्य प्रदान करेगा उसे मैं सहर्ष स्वीकार करूंगा। तू मुझसे मोल खरीदने योग्य वस्तु को ले ले और मैं भी तुझको पदार्थों का मोल निश्चय करकेदूं। यह सब व्यवहार सत्यवाणी से हम करें, अन्यथा यह व्यवहार सिद्घ नहीं होंगे।”
भारतीय अर्थव्यवस्था के इस व्यवहार को देहात में आज भी लोग ‘ब्यौहार’ के नाम से पुकारते हैं। उन्हें नहीं पता कि यह ‘ब्यौहार’ उन्हें करोड़ों वर्ष पूर्व वेद ने सिखा दिया था। उसके पश्चात बीच में चाहे हमारी वैदिक अर्थव्यवस्था को और उसके सिद्घांतों को मिटाने का कितना ही प्रयास क्यों न किया गया हो-पर भारत के लोगों ने परम्परा से अपने ज्ञान को आगे देेते जाने का क्रम जारी रखा। यही कारण है कि वे आज भी ‘ब्यौहार’ की बात करते हैं, व्यापार की नहीं।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत