स्वामी दयानंद की चिंतन शैली और भारत देश
भारत के लोग अपने आप को सनातनधर्मी कहने और मानने में इसीलिए गर्व और गौरव की अनुभूति करते हैं कि उनका ज्ञान का खजाना शाश्वत है , सनातन है । वेदज्ञान जब सृष्टि दर सृष्टि चलता है तो इसका अर्थ यही है कि यह ज्ञान कभी समाप्त होने वाला नहीं है , यह कभी पुरातन नहीं होता , यह सदा अधुनातन रहता है। यदि यह पुरातन पड़ता तो स्वाभाविक रूप से यह मिट जाता , क्योंकि जिसके भीतर पुरातन या पुराना हो जाने का रोग होता है , वह जरावस्था को प्राप्त होता है और फिर मिटता भी है , जैसे हमारा शरीर है। हम सनातन के उपासक हैं । इसका अभिप्राय यह है कि हम आत्मा और परमात्मा के रहस्यों को खोजने और समझने वाले लोग हम इतिहास के मरणशील लोगों की मरणधर्मा प्रकृति के उपासक नहीं हैं ।
वेद इतिहास बनाने के लिए व्यक्ति को प्रेरित कर सकता है अर्थात ऐसे उत्कृष्ट कार्य करने के लिए व्यक्ति की साधना को बलवती कर सकता है जो उसे उसकी आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनाए । परंतु वह उस व्यक्ति के कार्यों को कभी अपने किसी नए संस्करण में समाविष्ट नहीं करता , क्योंकि सनातन संसार के खेलों से सदा निरपेक्ष रहता है। जिन लोगों ने वेदों में इतिहास माना है , उनकी यह भी मान्यता है कि रामचंद्र जी महाराज को जिस प्रकार इस सृष्टि में वनवास भोगना पड़ा है , वैसे ही उन्हें हर सृष्टि में वनवास भोगना पड़ा है ,और पड़ता रहेगा । यह सारी बातें युक्तियुक्त नहीं हैं । वेदों में इतिहास मानने की बात करने वाले लोग मनुस्मृति के इस श्लोक को भी अपने पक्ष में उदधृत करते हैं :—
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।
वेद शब्देभ्यः एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे।।
अर्थात ब्रह्मा ने सब शरीरधारी जीवों के नाम तथा अन्य पदार्थों के गुण, कर्म, स्वभाव नामों सहित वेद के अनुसार ही सृष्टि के प्रारम्भ में रखे और प्रसिद्ध किये और उनके निवासार्थ पृथक् पृथक् अधिष्ठान भी निर्मित किये।
यदि इस श्लोक का भी गहराई से अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि मनु महाराज भी वेदों में इतिहास नहीं मान रहे , अपितु केवल इतना संकेत मात्र दे रहे हैं कि जब यह सृष्टि प्रारंभ हुई तो ब्रह्मा जी ने वेद में आए शब्दों के आधार पर स्थानों के नाम रखे । ऐसा होना संभव है और यह स्वाभाविक भी है , परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं कि वेद में पहले ही इतिहास रच दिया गया था।
सायणचार्य आदि भाष्यकारों ने अपने भाष्यों में वेदों में इतिहास होने की बातों को अधिक हवा दी है।
इन भाष्यकारों ने वेदों के मंत्रों की ऐसी व्याख्याऐं की हैं जैसे उनमें किन्हीं कथा कहानियों का वर्णन किया जा रहा हो । कालांतर में इन किस्से कहानियों को आधार बनाकर वेदों में इतिहास खोजने की मूर्खता का क्रम आरंभ हुआ। यह अलग बात है कि इन किस्से कहानियों ने वेदों की गरिमा को कम किया और वेदों के बारे में अनेकों भ्रान्तियों को भी जन्म दिया। यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि विदेशी विद्वानों जैसे मैक्समूलर, ग्रिफ्फिथ आदि ने सायण आचार्य जैसे वेद भाष्यकारों के इन किस्से कहानियों को पकड़कर ही वेदों में इतिहास होने का प्रचार किया।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने वेदों में इतिहास माननीय मूर्खता ओं का विरोध किया । उन्होंने इस विषय में सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है – “इतिहास जिसका हो, उसके जन्म के पश्चात लिखा जाता है। वह ग्रन्थ भी उसके जन्में पश्चात होता है। वेदों में किसी का इतिहास नहीं। किन्तु जिस जिस शब्द से विद्या का बोध होवे, उस उस शब्द का प्रयोग किया हैं। किसी विशेष मनुष्य की संज्ञा या विशेष कथा का प्रसंग वेदों में नहीं है । “
ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में भी स्वामी जी वेदों में इतिहास ने होने की अपनी मान्यता का प्रबल समर्थन करते हुए लिखते है- ” इससे यह सिद्ध हुआ कि वेदों में सत्य अर्थों के वाचक शब्दों से सत्य विद्याओं का प्रकाश किया है, लौकिक इतिहास का नहीं। इससे जो सायणाचार्य आदि लोगों ने अपनी अपनी बनायीं टीकाओं में वेदों में जहाँ-तहाँ इतिहास वर्णन किये हैं, वे सब मिथ्या हैं । “
यजुर्वेद का उदाहरण देकर स्वामी जी सिद्ध करते है कि वेदों की संज्ञाएँ यौगिक हैं, रूढ़ नहीं हैं। इस मंत्र में जमदग्नि, कश्यप मुनियों और इन्द्रादि देवों का उल्लेख मिलता है। दूसरे भाष्यकर्ता इस मंत्र में इतिहास की खोज करते हैं।जबकि स्वामी दयानंद जमदग्नि से चक्षु, कश्यप से प्राण एवं देव से विद्वान मनुष्यों का आशय प्रस्तुत करते हैं। स्वामी जी अर्थ करते हैं कि हमारे चक्षु और प्राण तिगुनी आयु वाले हों और देव विद्वान लोग जैसे ब्रह्मचर्य आदि द्वारा दीर्घ आयु को प्राप्त करते हैं , वह हमें भी प्राप्त हो। इसी क्रम से स्वामी दयानंद ने सभी वेद मन्त्रों का भाष्य किया है , जिनका पठन-पाठन करने से स्पष्ट होता है कि वेदों में कहीं पर भी किसी भी मंत्र में इतिहास नहीं है । स्वामी दयानंद ने अपने वेदभाष्य में यह स्पष्ट कर दिया कि वेदों में व्यक्तिवाचक लगने वाले शब्द वस्तुत: विशेषणवाची हैं तथा किन्हीं गुण-विशेषों का बोध कराते हैं।
यूँ तो वेदों में इतिहास ढूंढने वाले लोगों ने वेदों के अनेकों स्थलों की ऐसी मनमानी व्याख्या की है जिनसे वेदों के अर्थ का अनर्थ तो होता ही है साथ ही वेदों के बारे में भ्रांतियां भी फैलाते हैं । हम यहां पर एक दो उदाहरण देकर यह स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे कि वेदों में इतिहास मानने वाले लोगों ने किस प्रकार वेदों के अर्थ का अनर्थ करते हुए भारतीय संस्कृति के बारे में भ्रांतियां फैलाने का काम किया है ?
ऋग्वेद के मंत्र में इंद्र और वृत्रासुर का उल्लेख मिलता है , जिसका अर्थ का अनर्थ करते हुए लोगों ने इसे एक कहानी का रूप दे दिया । जिसके अनुसार त्वष्टा के पुत्र वृत्रासुर ने देवों के राजा इन्द्र को युद्ध में निगल लिया। तब सब देवता भयभीत होकर कांपने लगे और वे अपनी प्राण रक्षा के लिए विष्णु के पास गए । उनकी व्यथा कथा को सुनकर विष्णु ने उन्हें एक उपाय सुझाया कि मैं समुद्र के फेन में प्रविष्ट हो जाऊंगा। तुम लोग उस फेन को उठा कर वृत्रासुर को यदि मारोगे तो वह मर जायेगा।
स्वामी दयानंद इस मंत्र का तार्किक और बुद्धि संगत अर्थ करते हुए कहते हैं कि इन्द्र सूर्य का ही एक नाम है और वृत्रासुर मेघ को कहते हैं। आकाश में मेघ कभी सूर्य को निगल लेते हैं तो कभी सूर्य अपनी किरणों से मेघों को हटा देता है। दोनों के बीच लुकाछिपी का यह खेल तब तक चलता रहता है जब तक मेघवर्षा बनकर पृथ्वी पर बरस नहीं जाते हैं । फिर उस जल की नदियाँ बनकर सागर में जाकर मिल जाती हैं। स्वामी जी ने इंद्र तथा वृत्र, सूर्य तथा मेघ के दृष्टान्त से राजा के गुणों का उल्लेख किया हैं।
स्वामी जी के द्वारा किए गए इस प्रकार के अर्थ से वेदों की वास्तविक मान्यता का बोध होता है और साथ ही वेदज्ञान की गहराई और गंभीरता का भी पता चलता है कि उसने विज्ञान को भी किस प्रकार हमारे समक्ष प्रस्तुत कर दिया है ?
ऋग्वेद के आधार पर एक कथा प्रसिद्द हैं की एक बार वृत्र नामक राक्षस ने सारी त्रिलोकी में उपद्रव मचा रखा था। देवता भी उससे तंग आ गए थे। तब सभी देवता विष्णु जी की शरण में गए। उन्होंने बताया की दधीचि ऋषि की हड्डियों से बने वज्र से वृत्र को मारा जा सकता है। तब देवो की प्रार्थना पर दधीचि ने अपना शरीर त्याग दिया। इन्द्र ने उनकी हड्डियों से वज्र तैयार किया जिससे वृत्र मारा गया।
स्वामी दयानंद द्वारा इस मंत्र का आधिदैविक अर्थ करते हुए स्पष्ट किया गया है कि दधीचि सूर्य का ही दूसरा नाम है जबकि किरणें उसकी हड्डियां हैं और वृत्र का अर्थ है मेघ। ऋषि दयानंद जी कहते हैं कि जब सर्वत्र मेघ आच्छादित हो जाते हैं , तब सूर्य अपनी किरणों से मेघों को छिन्न-भिन्न कर वर्षा कर डालता है । इसी मंत्र का एक और अर्थ है , जो इसकी आध्यात्मिक गहराई का बोध कराता है। जिसके अनुसार इन्द्र का अर्थ है आत्मा, दधिची का अर्थ है मन, दधिची की हड्डियां हैं उच्च मनोवृत्तियां । वृत्र का अर्थ है पाप वासना रूपी विचार। आत्मा अपने मन के उच्च विचारों से पापवासना आदि कुविचारों का नाश कर देता है।
जब हम विज्ञान संगत इन अर्थों पर विचार करते हैं तो वेद की वास्तविकता का पता चलता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि वेद विज्ञान कितना परिमार्जित शुद्ध और सनातन है ?
हमारे देश में प्राचीन काल से विज्ञान की अनेकों खोजें हुई हैं । जितने आविष्कार भारतवर्ष में हुए उतने संसार के किसी अन्य देश में आज तक नहीं हुए। यह तभी संभव हुआ जब हमने वेद के मंत्रों के वैज्ञानिक और बुद्धि संगत अर्थ समझे , निकाले और उनके अनुसार काम करने का या अनुसंधान आदि करने का संकल्प लिया । भारत ने बौद्धिक नेतृत्व देते हुए संसार का मार्गदर्शन किया और अपने इसी महान संस्कार के कारण भारत विश्वगुरु के सम्मानपूर्ण स्थान पर विराजमान हुआ । इस प्रकार विज्ञानवाद में विश्वास रखना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर वैज्ञानिक अनुसंधान और आविष्कारों में रत रहना भारत की मौलिक चेतना का एक विशेष गुण है।
हमने सदैव प्रकाश की अर्थात ऊर्जा की साधना की। हमने तेज को अपना आदर्श माना और सत्य को अपने जीवन का आधार बनाया । वैज्ञानिक उन्नति के साथ – साथ हमने आध्यात्मिक उन्नति भी की। आध्यात्मिक उन्नति का परिणाम यह निकला कि हमारा विज्ञान हमारे लिए कभी भस्मासुर नहीं बना और वह सदा सकारात्मक ऊर्जा के साथ प्रवाहित होता रहा । कहने का तात्पर्य है कि हमने विनाशकारी भौतिक विज्ञान को नहीं अपनाया जैसा कि आज का यूरोप अपना रहा है।
इसका कारण यह है कि भारतीय मनीषा सदा सात्विक रही । उसने सात्विक आहार-विहार तथा आचार – विचार पर ध्यान दिया । अपने आहार – विहार व आचार – विचार को सात्विक बनाकर सात्विक विज्ञान के माध्यम से भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का समन्वय कर जीवन जीने की कला विकसित की । विज्ञान को सात्विकता के साथ मानव हित और प्राणी मात्र के हित में प्रयोग करना और उस पर मनुष्य का नियंत्रण भी स्थापित रखना यह केवल भारतीय मनीषा का और भारतीय चेतना का ही विषय है । शेष संसार आज तक विज्ञान पर शासन नहीं कर पाया । विज्ञान ने ही संसार पर शासन किया और विनाश मचाया ।
आज के संसार को भी हिंदुत्व की मौलिक चेतना के इस संस्कार स्वर को स्वीकार करना होगा कि विज्ञान को सात्विकता के साथ समन्वित कर प्राणीमात्र के हितानुकूल प्रयोग करना मनुष्यमात्र का उद्देश्य होना चाहिए । हमारे ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि भारत ने दुष्ट और पापाचारी का विनाश करने के लिए अस्त्र-शस्त्र की खोज की। उसने कभी शरीफ और गरीब को सताने के लिए तलवार का प्रयोग नहीं किया । ये ही विज्ञान का सात्विक सदुपयोग करना है। जितना जिसका अपराध हो उसको उसके अपराध के अनुपात में उतना ही दण्ड हो । विज्ञान अपराध के अनुपात में दंड देने में सहभागी हो ना कि निर्बल और सज्जन शक्ति के विनाश के लिए आइंस्टीन के परमाणु बम की भांति विनाशकारी स्वरूप में लोगों के सामने आए । विज्ञान भय दूर करने वाला हो न कि भय फैलाने वाला हो। विज्ञान आतंकी के हृदय में भय पैदा करने वाला और सज्जन शक्ति के हृदय में से भय को भगाने वाला हो। जब इस प्रकार का विज्ञान हमारे सामने आता है तो वह सात्विक बौद्धिक शक्तियों के द्वारा दोहा गया विज्ञान होता है और यह तभी संभव है जब वेद जैसे पवित्र शास्त्रों की यौगिक व्याख्या हो और इस यौगिक व्याख्या के आधार पर विज्ञान को सहज रूप में प्रवाहित होने दिया जाए। यदि वेद में इतिहास ढूंढने की मूर्खता की गई तो विज्ञान के सात्विक स्वरूप का मनुष्य के सात्विक आहार – विहार और आचार – विचार के साथ समन्वय स्थापित नहीं हो पाएगा और विज्ञान हृदयहीन होकर विनाश मचाने के लिए उद्दंड हो जाएगा।
स्वाधीनता के अमृत काल में अब जबकि सारा देश स्वामी दयानंद जी की 200 वीं जयंती के मनाने के कार्यक्रमों का शुभारंभ देश के यशस्वी प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा दिए गए ओजपूर्ण भाषण के माध्यम से कर चुका है, तब स्वामी जी महाराज की इस प्रकार की चिंतन शैली को राष्ट्र की चिंतन शैली बनाने की दिशा में काम करने की आवश्यकता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य