*होली का पर्व एक प्राचीन वैज्ञानिक पर्व*
भाग- 3
डॉ डी के गर्ग
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प्रहलाद-कथा का सत्य :
प्रहलाद का पिता, हिरण्यकश्यप अपने समय का बड़ा प्रतापी सम्राट था, जिसका प्रभुत्व सारे भूमण्डल पर व्याप्त था। राज्य में उसका आतंक इतना प्रबल था कि हिरण्यकश्यप को यह विश्वास हो गया कि परमात्मा नाम की कोई सत्ता नहीं है और उसके विचार में यह तो मानव की केवल एक कल्पना मात्र है। इस बात पर उसका मन दृढ़ निष्ठावादी बन गया था।परमात्मा तो राजा को कहते हैं क्योंकि मैं सारी प्रजा का पालन करता हूँ और ऐश्वर्यशाली कहलाता हूँ। जब राजा की इस प्रकार की धारणा बन गई, तो एक समय उनके गुरू शौंग महाराज वहां पधारे और उन्हांेने राजा से कहा कि तुम परमात्मा को इस प्रकार अपने से दूर मत करो।
हिरण्यकश्यप ने कहा, ऋषिवर। मुझे इसका निर्णय कराइये, मैं इसे कैसे स्वीकार करूं? मेरा हृदय तो पुकार कर कह रहा है कि परमात्मा कोई वस्तु नही है, यह तो मानव की व्यर्थ की कल्पना है। मेरे राष्ट्र का निरीक्षण करिये और देखिये इसमें कितनी सुन्दर अनेक प्रकार की शालायें है, कितना उच्च कोटि का विज्ञान है, लोक लोकान्तरों में भ्रमण करने के नाना प्रकार के विमान है, यान है। परमात्मा कहाँ विराजमान रहता है? यह तो एक प्राकृतिक ऋत चेता है, एक तत्व को दूसरे से मिलाने के द्वारा, एक परमाणु का दूसरे से मिलन द्वारा चेतना का विकास हो जाता है और उनके पृथक् हो जाने से, चेतना का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। जब उसने गुरू से कहा, तो वे शांत हो गये और चले गये, पर जाते-जाते यह कहा कि हे राजन ! तुम इस विज्ञान की चकाचैंध में भ्रमित हो गये हो, परन्तु अंत में तुम्हें उस प्रभु की शरण में जाना होगा, वरना तुम मृत्यु के मुख में चले जाओगे।
हिरण्यकश्यप का एक पुत्र था जिसका नाम था प्रहलाद। प्रहलाद अन्य बालकों की भांति गुरुजी के समीप विद्या ग्रहन करने जाता था। एक दिन वह जब अन्य साथियों के संग विद्यालय जा रहा था, तो मार्ग में उसने देखा कि एक कुम्हार प्रभु की प्रार्थना कर रहा था। पूंछने पर ज्ञात हुआ कि उसने भूल से आवे में अग्नि प्रज्वलित कर दी है, जो उसमें पूर्ण रूप से फैल चुकी है और एक मटके में बिल्ली के बच्चे थे। अतः वह प्रभु से प्रार्थना कर रहा था कि हे प्रभु! मुझे इस पाप से बचा, किसी प्रकार ये बिल्ली के बच्चे बच जायें।
प्रहलाद ने उस कुम्हार से कहा कि तुम राजाज्ञा का उलंघन कर रहे हो। पर जब तुम इस आवे को खोलो, तो हमको सूचना देना क्योंकि हम देखना चाहते है कि क्या बिल्ली के बच्चे तुम्हारे प्रभु ने बचा दिये है और यदि वे जीवित नही निकले, तब तुमको मृत्यु दण्ड मिलेगा। अब तो उस कुम्हार ने प्रभु की प्रार्थना में पूरी लग्नता से अपना सारा समय बिताया और निश्चित दिन प्रहलाद के सम्मुख आवा जब खोला गया, तो जैसे ही वह घड़ा उल्टा जो बिल्कुल कच्चा ही रहा गया था, उसमें से बिल्ली के बच्चे निकल भागे। प्रहलाद यह दृश्य देखकर आश्चर्य में रह गया और उसके हृदय में दृढ़ आस्था जम गई कि मेरे पिता की धारणा गलत है, अवश्य ही कोई परमात्मा जैसी महान् शक्ति है जिसकी अपार कृपा से यह सृष्टि चल रही है।
यह समाचार सारी नगरी में तथा राज्य में पहुंचे और अग्नि की भांति फैल गया और प्रहलाद ने पाठशाला में इस बात का प्रचार किया कि निश्चय ही यह संसार एक महान् अनुपम चेतन्य प्रभु के द्वारा ही चलाया जा रहा है और उसकी सत्ता को न मानना महा कृतघ्नता है। जब राजा को यह प्रतीत हुआ कि तेरा पुत्र ऐसा निष्ठावान ईश्वरवादी बन गया है और तेरा नाम स्मरण भी नहीं करने देता, तो उसने अपनी पत्नी से कहा परन्तु रानी ने उत्तर दिया कि इसमें उसका क्या दोष है क्योंकि मुझे भी किसी काल में ऐसा ही प्रतीत होता है, और आप उच्चारण करते हैं कि ईश्वर मैं हूँ जो मुझे नास्तिकवाद का मार्ग विदित होता है। राजा ने क्रोधित होकर कहा कि तुम्हारे प्राणों का हनन कर सकता हूँ तो रानी ने कहा, ‘आप मेरे प्राणों का हनन कर सकते हैं परन्तु मेरे अन्तःकरण में जो चेतना है उसे नष्ट नहीं कर सकते।’
इससे राजा लज्जित हो गया, पर राजा के मन में बड़ा भारी दर्द था क्योंकि उसे अपने विज्ञान पर अभिमान था। उधर प्रहलाद के द्वारा नम्रता और निष्ठा आ गई थी और उसका संकल्प इतना उज्जवल बन गया था कि वह मृत्यु से भी नही डरता था। अब इस प्रकार राज्य में दो दल बन गये और अधिकांश प्रजा युवराज प्रहलाद की ओर थी, यद्यपि लोग भय के कारण खुल्लम-खुल्ला इस बात को राजा को तो नही कहते थे। इस प्रकार एक आंदोलन से जो भीतर ही भीतर, सुलग रहा था उससे राजा बड़ा क्षुब्ध और कुद्ध हुआ और उसने यह विचारा कि क्यों न आंदोलन की जो जड़ हमारे गृह में ही प्रहलाद के रूप में है, उसको समाप्त किया जाये।
ऐसा निश्चय करके राजा ने बालक प्रहलाद को कारागार की कोठरी में बन्द करवा दिया और उसी कोठरी में अनेक विषधर सर्प भी छोड़ दिये गये, जिससे कि वे उसको ड़स लें पर बालक प्रहलाद तो इतना संकल्पवादी और अहिंसा परमोधर्मः की वेदी पर इतनी दृढ़ता से आरू हो गया था कि उसको उन विषैले सर्पों ने कुछ भी नहीं किया और प्रहलाद तो प्रभुत्व के गुण में लीन रहा। जब प्रातः काल कोठरी खोलने पर उसको जीवित पाया, तो राजा को और भी अधिक क्रोध आया क्योंकि इससे उसके अभिमान को ठेस पहुंची।
उसने अपने क्रोध को काबू में करके, प्रहलाद को समझाने का प्रयास किया कि वह अभी भी परमात्मा के चक्कर को छोड़, अपने पिता को ही सर्वेसर्वा समझे नहीं तो उसको जान से हाथ धोने पड़ेंगे। प्रहलाद ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया हे पिता! तुम मेरे सांसारिक पिता हो, परन्तु जो इस संसार को रचने वाला है, वह भिन्न है, जिसने तुमको भी बनाया है, वह सच्चिदानन्द स्वरूप है, अतः उसकी सत्ता को न मानना, यह मेरे वश की बात नहीं, मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार नहीं कर सकती।
राजा ने कहा कि अरे बालक! यह तो केवल मिथ्या कल्पना मात्र है, तुझको किसने बहका दिया है। मुझे इस मिथ्या विश्वास को अपने राज्य से दूर करना है अतः या तो मेरी बात मान लो, नही तो प्राणों को खोना पडेगा। जब प्रहलाद ने अपनी असमर्थता प्रकट की, तो राजा ने सेवकों को आज्ञा दी कि इसको पहाड़ों से गिराकर मार दो। सेवक लोग तत्काल प्रहलाद को ले गये और पर्वत की चोटी से नीचे गिराया पर उसको तो तनिक भी असर नहीं हुआ, मृत्यु की तो बात दूर रही।
प्रभु की कृपा से उसका शरीर इस प्रकार का हो गया कि उस पर पहाड़ों से गिरने से भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसी दुश्चिंता में फँसा हुआ राजा एक दिन अपनी बहन होलिका के पास जा निकला, जो स्वयं भी बहुत ही विचित्र उच्च कोटि की वैज्ञानिक थी और अनेक लोक लोकान्तरों पर भ्रमण कर चुकी थी। वह उस समय शांत मुद्रा में विराजमान थी क्योंकि उसके मन में यह विचारधारा आ रही थी कि प्रहलाद जो कहता था कि प्रभु एक महान चेतना है, क्या वास्तव में यह बात ठीक है? उसके मस्तिष्क में यह विचार कुछ घर करता जा रहा था कि हिरण्यकश्यप ने कहा कि तुम क्या व्यर्थ चिन्तन कर रही हो, इनमें कोई सार नही है। मुझे तो अपने पुत्र प्रहलाद की ही चिन्ता सताती रहती है, वही मेरा शत्रु बन गया है और मेरी आज्ञा मानने को राजी नहीं है। मैं चाहता हूँ कि वह किसी प्रकार मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो अच्छा। महात्मा प्रहलाद का जीवन कितना अनुपम और आदर्श था। मानव में नाना प्रकार के संस्कार होते हैं और उन्हीं संस्कारों के आधार पर मानव निष्ठा होती है।
होलिका दहन की वास्तविकता :
होलिका जो बहुत ही अच्छी वैज्ञानिक थी, कुछ इस प्रकार की औषधि आदि जानती थी जिनके मलने से शरीर पर अग्नि का कोई प्रभाव नहीं होता था। इसलिये उसने कहा कि वह प्रहलाद को गोद में बिठाकर अग्नि में बैठेगी और इस प्रकार प्रहलाद मर जायेगा, अग्नि में भस्म हो जायेगा पर वह जीवित निकल आयेगी। इस योजना के अनुसार उसने शरीर पर कुछ औषधियों का लेपन कर लिया और फिर प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश किया, पर वह तो देखते ही देखते अग्नि में भस्म हो गई और प्रहलाद जीवित निकल आया।
यह क्या माजरा था। जैसा कि पहले भी लिख आये हंै राष्ट्र दो विचारधाराओं में विभक्त हो गया था। एक प्रहलादवादी और दूसरा हिरण्यकशिपुवादी अर्थात् अधिकांश प्रजा युवराज के विचार वाले थे।
उन्होने “नृसिंह” नाम की एक संस्था बना ली थी, एक समाज निर्मित कर लिया था और प्रहलाद को ही अपना राजा मानते थे, वे नास्तिक राजा हिरण्यकशिपु को राष्ट्र में नहीं रहने देना चाहते थे। प्रजा में आस्तिकता की एक तरंग उत्पन्न होने लगी थी, तो यह भी संभव है कि इन सभी अवसरों पर प्रजा के लोगों का राष्ट्र के सेवकों के प्रहलाद को बचाने मे हाथ रहा हो, दूसरी विचारधारा ये है कि वायु का प्रवाह विपरीत दिशा से था और होलिका का उपाय काम नहीं आया। अग्नि ने उसको जकड़ लिया और प्रह्लाद उसके चंगुल से छूट गया और जनता ने बचा लिया।
कुछ भी हो, यह भी तो प्रभु की कृपा ही थी कि प्रहलाद बच गया। परिणाम स्वरूप प्रहलाद की साधना से प्रजा के अन्दर जो ईश्वर भक्ति की लौ थी, वह पुनः प्रज्वलित हो उठी, क्योंकि उन्हें राजा के पुत्र के रूप में प्रहलाद के व्यक्तित्व में, अपना प्रतिनिधि मिल गया और वे संगठित होकर हिरण्यकशिपु का सामना कर सके।
जब आस्तिकवाद का प्रसार होता है तो कोई न कोई महान् आत्मा, संस्कारी प्राणी आकर मार्गदर्शन करता है जिससे वह इस संसार का उद्धार कर जाता है।
राजा जब इस प्रकार के प्रहलाद को मरवाने के प्रयत्नों में असफल रहा तो उसने क्रोधित होकर स्वयं ही उसको मारना चाहा तब उसी समय प्रजा में जो ‘नृसिंह’ नामक समाज था जिसके अनेक व्यक्ति राष्ट्र में कार्य करते थे, उन्होने मिलकर एक ऐसी महान् विकट क्रान्ति पैदा की कि प्रजा ने अर्थात् उस नृसिंह समाज ने हिरण्यकशिपु को ही नष्ट कर दिया, उसको चारों और से लोगो ने घेर कर मार डाला। राजा को इस प्रकार नष्ट करके, प्रहलाद को राजा घोषित किया गया और प्रहलाद के राजा बनने के पश्चात प्रजा पुनः आनन्दपूर्वक रहने लगी।
यही है वास्तविक नृसिंह अवतार की कथा कि जब प्रजा के लोग राष्ट्र के कार्यों से अथवा नियमों से तंग आकर विद्रोह कर उठें और जो राष्ट्र के अधिकारी हों उन्हें हनन कर दें, तो यही तो आश्य है ‘नृरसिंह’ का। जब प्रत्येक नर परेशान होकर सिंह का रूप धारण कर लेता है। सत्य तो यह है कि जब प्रभु की कृपा और प्रेरणा प्राप्त होती है तो असंभव दिखने वाले कार्य भी सहज हो जाते हंै। ठीक ही कहा हैः-
जाको राखे साईयां, मार सके न कोय।
बाल न बाँका कर सके, जो जग बैरी होय।।
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