बौद्ध पंथ = सनातन समाज के विध्वंश की साजिश* पार्ट-9
क्या महात्मा गौतम बौद्ध नास्तिक थे?
Note -यह आलेख महात्मा बुद्ध के प्रारम्भिक उपदेशों पर आधारित है। ।और विभिन्न विद्वानों के विचार उपरांत है।ये कुल 9 भाग में है।
इसको पढ़कर वे पाठक विस्मय का अनुभव कर सकते हैं जिन्होंने केवल परवर्ती बौद्ध मतानुयायी लेखकों की रचनाओं पर आधारित बौद्ध मत के विवरण को पढ़ा है। अमूमन वह पुस्तके अंग्रेजों द्वारा,कांग्रेसियों द्वारा, वामपंथियों द्वारा या निहायत ही भ्रमित तथाकथित विद्वान कहलाने वाले लोगों द्वारा लिखी गई थी जिनका एक ही उद्देश्य था सनातन हिंदू समाज संपूर्ण एशिया में ना दिखाई देने लगे,उसका स्वरूप विराट न दिखाई देने लगे। इसके लिए वे पूरा परिश्रम करके हिंदू धर्म के अंतर्गत आने वाले हजारों पंथ्यों को अलग-अलग धर्म साबित करने के लिए अपना पूरा जोर लगा रहे थे। इसलिए वे लगातार बौद्ध समाज को पंथ कहने की जगह धर्म साबित करने में लगे हुए थे।
आजकल बहुत से विश्वविद्यालय में जैसे जेएनयू, गौतम बौद्ध यूनिवर्सिटी आदि अपने यहां बौध विचार पर शोध पर बहुत पैसा खर्च करती है लेकिन सच लिखने वाले का शोध पत्र स्वीकार नहीं होता ताकि भ्रम बना रहे।
भारत में बौध पंथ किसी धार्मिक ज्ञान वा श्रद्धा से नही पनपा बल्कि हिंदू समाज को विभाजित करने और समाज को बांटने के लिए हुआ जिनका काम राम कृष्ण मनु आदि के लिए विष उगलना और कुछ नहीं।
आगे…..
भारत में दार्शनिकों को दो भागों में बांटा जाता है; एक नास्तिक तो दूसरे आस्तिक। चार्वाक, जैन व बौद्ध दर्शनों को नास्तिक कहा जाता है। भारत में ‘आस्तिक’ एवं ‘नास्तिक’ शब्दों की विस्तृत व्याख्या होती आई है। ये व्याख्याएं भी दो प्रकार की हैं। सामान्य भाषा में ‘नास्तिक’ उसे कहते हैं, जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानता। और ‘नास्तिक’ वह है जो वेदों को ईश्वरकृत व स्वत: प्रमाण नहीं मानता व उन्हें ऋषियों द्वारा रचित मानता है।
बुद्ध को दोनों ही दृष्टियों से नास्तिक माना जाता है। उन्होंने न वेदों को ईश्वरकृत माना और न स्वत: प्रमाण। उन्होंने ब्रह्म व ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया। जिस प्रकार बुद्ध ने ब्रह्म, आत्मा व उसके पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं किया, उसी प्रकार उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को भी नकार दिया था। इसलिए बुद्ध को अनीश्वरवादी भी कहा जाता है।
समीक्षकों का एक वर्ग का मानना है कि गौतम बुद्ध ने आचरण की शुद्धता को मुख्य उद्देश्य बनाया था , अतः ईश्वर , आत्मा और सृष्टि जैसे जटिल विषयों को अपना विवेच्य विषय नहीं बनाया । इन विषयों पर वे मौन रहे , विरोधी नहीं थे । विरोध का विवाद परवर्ती अनुयायी विद्वानों ने खड़ा किया है । उत्तर काल में आकर कई बौद्ध सम्प्रदाय स्वयं भी ईश्वरवादी बन गये और बुद्ध को ही ईश्वर मानकर पूजा करने लगे । बुद्ध के उपदेशों में कई स्थल ऐसे मिलते हैं जहाँ वे ईश्वर और जीवात्मा की सत्ता को स्वीकार करते हुए दिखाई पड़ते हैं । इसकी पुष्टि में दो गाथाओं के चरणों को प्रस्तुत किया जा सकता है –
“गहकारं गवेसन्तो दुक्खा जाति पुनप्पुनं ।”
गहकारक दिट्ठोसि पुन गेहं न काहसि । ”
( धम्मपद ११ . ८ , ९ )
अर्थात् – ‘ हे मेरे शरीर रूपी घर के स्रष्टा ! तुम्हारी खोज की चाहत में मैंने दुःख-पूर्ण जन्म पुनः – पुनः लिया है । हे मेरे शरीर रूपी घर को बनाने वाले ! अब मैंने तुम्हारा साक्षात् कर लिया है , अब मैं इस शरीर को धारण नहीं करूंगा । ‘ भाव बड़ा स्पष्ट है । शरीर का स्रष्टा ईश्वर होता है । और उसके दर्शन से जन्म – मरण रूप दुःख से द्रष्टा मुक्त हो जाता है । इसी प्रकार बुद्ध के उपदेशों में आत्मा , प्रज्ञा , मन , चित्त का पृथक् और स्पष्ट उल्लेख है । वैदिक शास्त्रों में आये _
“आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मा तथात्मनः
” ( मनु . ८ . ८४ ) ” उद्धरेदात्मनात्मानम् ” आदि वाक्यों की आत्मा परमात्मा – परक सही व्याख्या की हुई मिलती है , किन्तु बौद्ध साहित्य में इनके पालि में रूपान्तरित पद्यों “अत्ता हि आत्मनो नाथो अत्ता हि आत्मनो गतिः “( २५ . २१ ) , ” अत्तना चोदयेदत्तानम् ” ( २५ . २० ) की उपव्याख्या की जाती है ।
बौद्ध मत को अनीश्वरवादी अनात्मवादी दिखाने के लिए ‘ आत्मा ‘ शब्द की ‘ अपना ‘ यह गलत व्याख्या की जाती है , ‘ आत्मा ‘ को लुप्त कर दिया जाता है । बहुत समय तक आर्य , पौराणिक हिन्दू और बौद्ध साथ – साथ रहे । बुद्ध के सुधारों से पौराणिकों की आजीविका , इन्द्रियलिप्सा , विलासिता , वर्चस्व पर दुष्प्रभाव पड़ने लगा , दलितों – पिछड़ों , स्त्रियों की समानता , शिक्षा आदि से पौराणिक आहत हुए । दूसरी ओर बौद्ध स्वयं को आर्य समुदाय से पृथक् स्वतन्त्र समुदाय बनने के उपाय कर रहे थे । दोनों वर्गों के मध्य हुए वैचारिक , दार्शनिक , सामाजिक , आहंकारिक संघर्षों ने दो बड़े समुदायों को विघटित कर दिया । आर्य समुदाय में बने रहते तो इसकी विखण्डन की क्षति नहीं होती । एक समुदाय होता , एक संगठनात्मक . शक्ति होती , एक समुदाय के सहभागी अनेक राष्ट्र होते , किन्तु अदूरदर्शिता और संकुचित विचारों के कारण ऐसा न हो सका । इसके हानिकारक परिणामों को भविष्य में दोनों समुदायों को भुगतना पड़ेगा । उससे बचने के लिए आज भी फिर से एक समुदाय बनकर संगठित रह सकते हैं ।
साभार : डॉ . सुरेन्द्र कुमार
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