मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 1 ( ख ) गुहिल वंश का वास्तविक संस्थापक
गुहिल वंश का वास्तविक संस्थापक
गुहिलादित्य या गुहिल को गुहिल वंश का संस्थापक माना जाता है । पर अपने शौर्य और पराक्रम से अपनी वीरता की धाक जमाने वाला बप्पा रावल ही गुहिल वंश का वास्तविक संस्थापक है। बप्पा रावल के गुरु हारीत ऋषि थे। बप्पा रावल के द्वारा ही उदयपुर के उत्तर में कैलाशपुरी में स्थित एकलिंग जी के मन्दिर का निर्माण 734 ई. में करवाया गया था। उनके साथ गुरु हारीत का होना बड़े सौभाग्य की बात थी। हमारे प्रत्येक राजा के साथ किसी ना किसी ऐसे ही महान विचारक महात्मा का समागम अवश्य है, जो अपने राष्ट्रवादी चिंतन के लिए जाना जाता रहा हो। वास्तव में मध्यकालीन भारत के इतिहास लेखकों ने द्वेषभाव के वशीभूत होकर ऐसे गुरुओं को उपेक्षित किया है, और भारत की प्राचीन परम्परा की उपेक्षा करते हुए ब्रह्मबल और क्षत्रबल के परस्पर समन्वय का उपहास उड़ाया है। ये गुरु या आचार्य लोग किसी भी राजा को उसके राजधर्म का सम्यक पाठ पढ़ाने का काम करते थे। किसी भी राजा को अपने राजधर्म से पतित नहीं होने देते थे।
नागादित्य के पुत्र कालभोज ने 727 ई0 में गुहिल राजवंश का शासन भार संभाला। अपने शासनकाल के दौरान काल पहुंचने जिस प्रकार मुसलमानों को भारत भूमि से खदेड़ कर बाहर निकालने का काम किया था उसके दृष्टिगत उन्हें धर्म रक्षक और संस्कृति रक्षक होने के कारण बप्पा रावल की उपाधि दी गई थी। संस्कृत के "वाप:" शब्द से बिगड़ कर बाप, बप्पा और बापू शब्द की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार बप्पा रावल का अभिप्राय एक प्रकार से उस समय राष्ट्रपिता था। पर यह ध्यान रखने की बात है कि हम राष्ट्रपिता उसी को मानते थे जो विदेशी धर्म ,विदेशी सोच और विदेशी लोगों को भारत भूमि से खदेड़ने का काम करता था। ऐसा कोई भी व्यक्ति हमारा राष्ट्रपिता नहीं हो सकता जो विदेशी धर्म अथवा संप्रदाय का पक्ष पोषण करे, और अपने धर्म की उपेक्षा करे।
अपने गुरु हारीत ऋषि के प्रति बप्पा रावल सदैव ऋणी रहे। इसका कारण केवल एक था कि राष्ट्रभक्ति की पवित्र भावना को उनके भीतर कूट कूटकर भरने का काम उनके गुरु ने ही किया था। भारत की इस गुरु शिष्य परंपरा के बारे में हमें यह भी जानकारी होनी चाहिए कि कोई भी गुरु अपने शिष्य की पात्रता को देखकर ही उसके भीतर राष्ट्रभक्ति के पवित्र भावों को भरता था। कहने का अभिप्राय है कि हर किसी ऐरे गैरे नत्थू खैरे को राष्ट्रभक्ति के पवित्र भाव को निभाने का दायित्व नहीं दिया जाता था।
विकिपीडिया के अनुसार मेवाड़ का शक्तिशाली राजवंंश गुुहिल के नाम से जाना जाता है। इसका प्रारंभिक संंस्थापक राजा गुहादित्य थेे, जिन्होंने 566 ई. के आसपास मेवाड़ में गुहिल वंंश की नींव रखी। इनके पिता का नाम शिलादित्य और माता का नाम पुष्पावती था।
इस्लाम के प्रति बप्पा रावल का दृष्टिकोण
मुसलमानों के इस्लाम संप्रदाय को पहले दिन से ही बप्पा रावल ने नकार दिया था। इस मजहब की सोच, चिंतन और विचारधारा सभी भारत के वैदिक धर्म से ना तो मेल खाती थी और ना ही उसके समान पवित्र भावों से युक्त थी। बप्पा रावल अपने वैदिक धर्म और संस्कारों से बड़ी गहराई से जुड़े हुए थे। यही कारण था कि वह अपने धर्म और संस्कृति को विश्व के सबसे महान धर्म और संस्कृति के रूप में जानते पहचानते थे। यदि उस संस्कृति को या उस धर्म को नष्ट करने का संकल्प लेकर कोई भारत भूमि पर आए तो उसे बप्पा रावल जैसे वीर योद्धा के द्वारा भला कैसे स्वीकार किया जा सकता था ?
इस्लाम दूसरे संप्रदाय के लोगों को मारने – काटने का काम कर रहा था। जो लोग मारने – काटने से भयभीत होकर इस्लाम को ग्रहण कर लेते थे, उन्हें अपने संप्रदाय में लेकर अपने मजहब की संख्या बढ़ाना भी इस्लाम के आक्रमणकारियों का एक प्रमुख उद्देश्य था। संसार भर में इस्लामिक विचार को फैलाना और संसार भर के अधिकांश क्षेत्र पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेना इस्लाम का उद्देश्य था। इस प्रकार की सोच न्यायपरक नहीं कही जा सकती। संसार में ईसाई लोगों के बाद यह दूसरा ऐसा मजहबी तूफान था जो अन्य धर्मावलंबियों को समाप्त करने पर तुला हुआ था।
बप्पा रावल इस बात को भली प्रकार समझ रहे थे संसार में अब तक जितनी क्षति ईसाई समुदाय ने वैदिक धर्मावलंबियों की की है उतनी किसी अन्य संप्रदाय वालों की नहीं की। जब ईसाई धर्म की मत की शिक्षाओं को मानकर इसाई लोग संसार में अपने संप्रदाय की संख्या बढ़ा रहे थे तो उस समय संसार का सबसे बड़ा धर्म वैदिक धर्म था। अब इस मानव धर्म अर्थात वैदिक धर्म को समाप्त कर अपने अपने पंथ की संख्या बढ़ाने के लिए ईसाइयत के बाद इस्लाम भी मैदान में आ चुका था। कहने का अभिप्राय है कि अब संसार भर से वैदिक धर्मावलंबियों को समाप्त करने के लिए दो शत्रु मैदान में थे। हमारे वैदिक धर्म के रक्षक बप्पा रावल और उन जैसे देशभक्त और धर्म भक्त शासक या क्षत्रिय समाज के लोग अपने धर्म की रक्षा के लिए रणक्षेत्र में उतर गए। इस प्रकार इस्लाम के प्रति बप्पा का दृष्टिकोण बड़ा स्पष्ट था। वह मानते थे कि यह संप्रदाय वैदिक धर्मावलंबियों को समाप्त करने के लिए काम कर रहा है। यही कारण था कि वह इस्लाम को मानने वालों के द्वारा भारत पर हो रहे आक्रमणों को रोकने के लिए कटिबद्ध हो गए। उनका यह भाव देश भक्ति से भरा हुआ था , इसलिए उन्हें देश, धर्म व संस्कृति का रक्षक माना जाना चाहिए।
बप्पा ने चित्तौड़ के शासक मानमोरी की ओर से सब अरबी आक्रमणों को निष्फल कर दिया था। अपनी योजना को फलीभूत करने के लिए उसने मानमोरी से चित्तौड़ का किला अधिकार में ले लिया।
बप्पा शब्द व्यक्तिवाचक नहीं
इतिहास के विद्वानों का मानना है कि “बप्पा रावल बप्पा या बापा वास्तव में व्यक्तिवाचक शब्द नहीं है, अपितु जिस प्रकार “बापू” शब्द महात्मा गांधी के लिए रूढ़ हो चुका है, उसी प्रकार आदरसूचक “बापा” शब्द भी मेवाड़ के एक नृपविशेष के लिए प्रयुक्त होता रहा है। सिसौदिया वंशी राजा कालभोज का ही दूसरा नाम बापा मानने में कुछ ऐतिहासिक असंगति नहीं होती। इसके प्रजासंरक्षण, देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही संभवत: जनता ने इसे बापा पदवी से विभूषित किया था। महाराणा कुंभा के समय में रचित एकलिंग महात्म्य में किसी प्राचीन ग्रंथ या प्रशस्ति के आधार पर बापा का समय संवत् 810 (सन् 753) ई. दिया है। एक दूसरे एकलिंग माहात्म्य से सिद्ध है कि यह बापा के राज्यत्याग का समय था।
यदि बापा का राज्यकाल 30 साल का रखा जाए तो वह सन् 723 के लगभग गद्दी पर बैठा होगा। उससे पहले भी उसके वंश के कुछ प्रतापी राजा मेवाड़ में हो चुके थे, किंतु बापा का व्यक्तित्व उन सबसे बढ़कर था। चित्तौड़ का मजबूत दुर्ग उस समय तक मोरी वंश के राजाओं के हाथ में था। परंपरा से यह प्रसिद्ध है कि हारीत ऋषि की कृपा से बापा ने मानमोरी को मारकर इस दुर्ग को हस्तगत किया। टॉड को यहीं राजा मानका वि. सं. 770 (सन् 713 ई.) का एक शिलालेख मिला था जो सिद्ध करता है कि बापा और मानमोरी के समय में विशेष अंतर नहीं है।”
बप्पा रावल ने पूरी न्याय प्रियता दिखाते हुए 20 वर्ष तक मेवाड़ पर शासन किया था। इसके पश्चात उन्होंने वैराग्य ले लिया था और वनों में जाकर साधना की थी। इस प्रकार भारत की प्राचीन परंपरा का निर्वाह करते हुए उन्होंने संन्यासी वेश में आकर आत्म कल्याण के मार्ग को चुना। बप्पा रावल का भारत की प्राचीन परंपरा के प्रति इस प्रकार का समर्पण का भाव भी प्रकट करता है कि वह भारत और भारतीयता में गहरी निष्ठा रखते थे। भारत के प्राचीन राजनीतिक मूल्यों को वह अपने समय में भी स्थापित करने की प्रक्रिया में लगे हुए थे। उनका विश्वास था कि संसार वास्तव में उन्नति और प्रगति की ओर तभी बढ़ सकता है जब वैदिक व्यवस्था को पूर्णतया लागू कर दिया जाए।
भारतीय राष्ट्रवाद और बप्पा रावल
गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अजमेर के सोने के सिक्के को बापा रावल का माना है। इस सिक्के का तोल 115 ग्रेन है। इस सिक्के में सामने की ओर ऊपर के हिस्से में माला के नीचे श्री बोप्प लेख है, बाई ओर त्रिशूल है और उसकी दाहिनी ओर वेदी पर शिवलिंग बना है। इसके दाहिनी ओर नंदी शिवलिंग की ओर मुख किए बैठा है। शिवलिंग और नंदी के नीचे दंडवत् करते हुए एक पुरुष की आकृति है। सिक्के के पीछे की तरफ चमर, सूर्य, और छत्र के चिह्न हैं। इन सबके नीचे दाहिनी ओर मुख किए एक गौ खड़ी है और उसी के पास दूध पीता हुआ बछड़ा है। ये सब चिह्न बप्पा रावल की शिवभक्ति और उसके जीवन की कुछ घटनाओं से संबद्ध हैं।”
आरवी सोमानी और रमेश चन्द्र मजूमदार ने अपने इतिहास लेखन के माध्यम से बप्पा रावल के महान कार्यों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। उनके ऐतिहासिक संस्मरणों के अनुसार, अरबों ने जब उत्तर पश्चिमी भारत में शासन कर रहे मोरी यानि मौर्य शासकों को पराजित किया, तो वर्षों से सुप्त भारतीय राष्ट्रवाद का उदय हुआ। उसे ज्ञात हुआ कि यह वह शत्रु नहीं, जिसे युद्ध के आचरण या शत्रु की संस्कृति का सम्मान करना आता हो। ये वो यवन (यूनानी) भी नहीं, जिनके लिए युद्धनीति के भी अपने शास्त्र हों।
जिस समय बप्पा रावल और गुर्जर प्रतिहार वंश के संस्थापक राजा नागभट्ट प्रथम के द्वारा अरब आक्रमणकारियों को भारत भूमि से खदेड़ा जा रहा था, उस समय कश्मीर पर भी एक वीर हिंदू राजा का शासन था। उस हिंदू राजा का नाम ललितादित्य मुक्तापीड़ था। यह राजा बहुत ही पराक्रमी, देशभक्त और साहसी था। इस प्रकार बप्पा रावल नागभट्ट प्रथम और ललितादित्य मुक्तापीड़ उस समय राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक बन चुके थे। इन राजाओं के भीतर देशभक्ति का लावा धधकता था। भारत के स्वाभिमान की रक्षक इस तिक्कड़ी ने तत्कालीन विश्व समाज में भारत का नाम रोशन करने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी थी। उस समय संसार के अन्य क्षेत्रों में इस्लाम के खूंखार आतंकवादी शासक चाहे कितना ही आतंक और उत्पात क्यों न मचा रहे थे पर भारत की ओर पैर करके सोना भी उन्होंने छोड़ दिया था। इसका कारण केवल एक था कि भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने के प्रति संकल्पित इन तीनों राजाओं के होने का भय और अरबवासियों को अपने घरों में भी सताता था।
बप्पा रावल और इस्लामिक इतिहासकार
इतिहास लेखन की प्रचलित परंपरा कुछ ऐसी है जो हमें कुछ ऐसा आभास कराती है कि इन तीनों शासकों में परस्पर संवादहीनता थी। जिसके चलते राष्ट्र धर्म के प्रति ये तीनों ही संवेदनाशून्य थे। जबकि ऐसा नहीं है। इनके व्यक्तित्व और कृतित्व से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे तीनों राष्ट्र, धर्म व संस्कृति की रक्षा के बिंदुओं पर एकमत थे। यही कारण था कि इन तीनों का सम्मिलित शत्रु इस्लाम था। ऐसे में इस्लाम के लेखकों से इन तीनों का वास्तविक उल्लेख करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। जिन लोगों ने अपने व्यक्तिगत स्तर पर या सामूहिक स्तर पर इस्लाम का विरोध किया हो, उन्हें इस्लाम का कोई भी लेखक सही ढंग से चित्रित नहीं कर सकता।
प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चन्द्र मजूमदार की पुस्तक ‘प्राचीन भारत’ के अनुसार ललितादित्य यशोवर्मन को परास्त करने के पश्चात विंध्याचल की ओर निकल पड़े, जहां उन्हें कर्णात वंश की महारानी रत्ता मिली। रत्ता की समस्या को समझते हुये कर्णात वंश की ललितादित्य ने न केवल विदेशी आक्रमणकारियों से रक्षा की, अपितु उनके समक्ष मित्रता का हाथ भी बढ़ाया। कई लोगों के अनुसार रत्ता कोई और नहीं वरन राष्ट्रकूट वंश की रानी भवांगना ही थी, और इसी बीच उनकी मित्रता मेवाड़ के वीर योद्धा बप्पा रावल से हुई जो ललितादित्य के परम-मित्र हुआ करते थे । दोनों ने साथ मिलकर कई विदेशी आक्रांताओं को धूल भी चटाई थी। इन तीनों राजाओं की वीर परंपरा का निर्वाह भारत के अगले शासक भी करते रहे। जिसके कारण आने वाले 300 वर्ष तक मुस्लिम अरब आक्रमणकारियों को भारत में किसी भी प्रकार का उत्पात मचाने से रोके जाने में बड़ी महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक सफलता हमें प्राप्त हुई। निरंतर 300 वर्षों तक विदेशी आक्रमणकारियों को भारत की पवित्र भूमि पर उत्पात मचाने से रोका जाना अपने काले की बहुत बड़ी घटना है। इस घटना के महत्व को हमने समझा नहीं है या हमें समझाया नहीं गया है। इसके विपरीत भारत के कुछ भाग पर मात्र डेढ़ सौ से पौने दो सौ वर्ष तक जबरन शासन करने वाले मुगलों को तो महिमामंडित किया गया है पर जिन लोगों ने भारत भूमि की रक्षा का संकल्प लेकर विदेशी आक्रमणकारियों को दीर्घकाल तक आक्रमण करने से रोकने में सफलता प्राप्त की , उन्हें उपेक्षित कर दिया गया।
निश्चय ही बप्पा रावल का महान कार्य हमारे लिए वंदनीय, अभिनंदनीय और नमनीय है। इतिहास के इस महान योद्धा को आने वाली पीढ़ियां इस बात के लिए स्मरण करती रहेंगी कि उन्होंने अपने समय में मां भारती की रक्षा के लिए बढ़-चढ़कर अपना योगदान दिया था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत