ईश्वर पूजा का वैदिक स्वरूप-
कृष्ण कान्त वैदिक, देहरादून
महर्षि के अनुसार ‘‘जो ज्ञानादि गुणवाले का यथायोग्य सत्कार करना है उसको पूजा कहते हैं।’ परमेश्वर की पूजा की क्या विधि हो सकती है? वेद कहता है कि परमात्मा आत्मिक, मानसिक, शारीरिक, सामाजिक आदि बलों का देने वाला है। इसी कारण से सकल देव एवं समस्त विश्व उसकी उपासना-पूजा- सेवा सत्कार, सम्मान करता है। पूजा का प्रकार क्या हो? उसकी आज्ञा के अनुसार चलना ही उसकी पूजा है क्योंकि इसमें पूजक का भी कल्याण है। ईश्वर की आज्ञाओं के अनुकूल चलने में ईश्वर की पूजा है। ईश्वर पूजा का वैदिक स्वरूप परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना ओर उपासना करना है।
1) स्तुति- महर्षि के अनुसार ‘‘जो ईश्वर वा किसी दूसरे पदार्थ के गुण, ज्ञान, कथन, श्रवण और सत्य भाषण करना है वह स्तुति कहाती है।’ यथार्थ में जैसा ईश्वर है गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरूपतः उसे वैसा ही जानना, सुनना-कहना और सुनना-सुनाना तथा सत्य भाषण करना ही स्तुति कहाती है। महर्षि सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं कि-
गुणेषु गुणारोपणं दोषेषु दोषारोपणमिति स्तुतिः।
गुणों में गुणों का आरोपण करना तथा दोषों में दोषों का अर्थात् जो जैसा है उसे वैसा ही जानना, सुनना, कहना ही स्तुति है।
2) प्रार्थना- महर्षि के अनुसार ‘‘अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मों की सिद्धि के लिए परमेश्वर वा किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य के सहाय लेने को प्रार्थना कहते हैं। जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा ही वर्तमान करना चाहिए अर्थात् जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करें, उसके लिए जितना अपने से प्रयत्न हो सके उतना किया करें अर्थात् अपने पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है।
3) उपासना-महर्षि के अनुसार ‘‘जिससे ईश्वर ही के आनन्द में अपने आत्मा को ना होता है उसको उपासना कहते हैं।’’ उपासना शब्द दो शब्दों का संग्रह है- उप+आसन = उपासना। उप=समीप, आसन=स्थिति, बैठना, ठहरना, स्थित होना अथवा पास में होना। आध्यात्मिक जगत् में यह अर्थ ईश्वर के आनन्द स्वरूप में आत्मा को मग्न करने के अर्थ में रूढ हो गया है। महर्षि ने उपस्थान का अर्थ किया है-‘‘ मैं परमात्मा के निकट और मेरे सन्निकट परमात्मा हैं। उपासना करने वाले का नाम उपासक और जिसकी उपासना की जाये वह उपास्य तथा जो की जाये उस प्रक्रिया का नाम उपासना है।
4) मूर्ति-पूजा आदि उपासना के अवैदिक रूप-मन्दिर में जाकर या घर पर देवी-देवताओं की जड़ मूर्ति स्थापित करना उनके ऊपर पुष्प, फल, नैवेद्य आदि अर्पित करते हुए उनकी पूजा करना अवैदिक है। यह वेदानुकूल कदापि नहीं कहा जा सकता है। मूर्ति-पूजा, जागरण पीपल आदि वृक्षों की पूजा करना भी ईश्वर की वास्तविक उपासना से दूर अज्ञान के मार्ग पर भटकना है। अतः जड़ वस्तुओं की पूजा कभी भी नहीं करनी चाहिए। महर्षि ने सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में मूर्तिपूजा का खण्डन करते हुए यजुर्वेद के एक मंत्र का उदाहरण प्रस्तुत किया है कि उस परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं है।