धार्मिक आस्था के विरुद्ध नहीं है वंदेमातरम्
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में योगी आदित्यनाथ सरकार के फैसले पर मुहर लगा दी है। अदालत ने कहा है कि राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज का सम्मान करना प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्तव्य है, इसलिए राष्ट्रगान गाना और झंडा फहराना सभी शिक्षण संस्थाओं और अन्य संस्थाओं के लिए भी अनिवार्य है। यह आदेश मुख्य न्यायाधीष डीबी भौंसले एवं यशवंत वर्मा की खंडपीठ ने मऊ के अलाउल मुस्तफा की याचिका निरस्त करते हुए दिया है। यह याचिका उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 3 अगस्त के शासनादेश और 6 सितंबर 2017 को जारी परिपत्र को चुनौती देते हुए दाखिल की गई थी। याचिकाकार्ता ने इस आदेश को मदरसों में पढऩे वाले छात्रों पर देशभक्ति थोपने का पर्याय मानने के साथ छात्रों की धार्मिक आस्था और विश्वास के विरुद्ध भी माना था।
इस समय राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम्’ महाराष्ट्र और तमिलनाडु के विद्यालयों में अनिवार्य करने के कारण भी चर्चा में है। वंदे मातरम् को लेकर मुसलिम समुदाय के एक वर्ग और राजनीतिक दलों ने विरोध जताया है। खासतौर से ऑल इंडिया मजलिसे-इत्तेहादुल मुसलमीन के विधायक वारिस पठान ने कहा था कि मेरे सिर पर रिवॉल्वर भी रख दें ंतो भी राष्ट्रगीत नहीं गाऊंगा। इसी तर्ज पर समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आसिम आजमी ने कहा था कि यदि मुझे देश से बाहर भी फेंक दिया जाए, तो भी मैं इसे नहीं गाऊंगा। राष्ट्रगीत का बहिष्कार संसद और विधानसभाओं में होना कोई नई बात नहीं है। संविधान के इस प्रावधान का अपमान अलगाववादी मानसिकता का प्रतीक है।
यह मामला तब और गंभीर हो जाता है, जब निर्वाचित सांसद और विधायक वंदे मातरम् की उपेक्षा करें। क्योंकि कोई भी जनप्रतिनिधि न केवल बहुधर्मी और बहुजातीय मतदाताओं के बहुमत से संसद में पहुंचता है, बल्कि धर्म व जातीयता से ऊपर उठकर संविधान, देश व जनहित की शपथ लेकर अपने कर्तव्य का पालन शुरु करता है। लिहाजा यह मुद्दा धर्म और राजनीति से परे राष्ट्रीय गरिमा और सोच से जुड़ा मसला है। यदि राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान करने वाले लोगों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई नहीं की गई तो इससे अलगाववाद की संकीर्ण मानसिकता को विस्तार मिलेगा और जनता में गलत संदेश जाएगा। इसलिए इस्लाम के बहाने वंदेमातरम् का विरोध करने वाले सांसद और विधायकों को सदस्यता से तो बर्खाष्त किया ही जाए, पूर्व सांसदों व विधायकों को मिलने वाले विशेषाधिकार व सुविधाओं से भी वंचित किया जाए। अदालत के आए इस फैसले के बाद अब राष्ट्रगान व राष्ट्रध्वज का अपमान करने वाले लोगों के साथ नरमी नहीं बरतनी चाहिए।
बंकिमचंद्र चटर्जी के बांग्ला भाषा में लिखे उपन्यास ‘आनंद मठ’ से राष्ट्रगीत के रुप में स्वीकारा गया यह गीत कोई मामूली गीत नहीं है। भारत को उसकी व्यापक राष्ट्रीयता की पहचान और स्वाभिमान इसी गीत से प्राप्त हुए। नागरिक सभ्यता की विरासत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानव सेवा के मूल्यों के उत्स इसी गीत के समवेत स्वर की उपज हैं। अंग्रेजों के विरुद्ध भिन्न जातीय और धर्म-समुदायों को संगठित करने के अभियान में इसी गीत की भूमिका बुलंद थी। तय है, वंदे मातरम् क्रांति के स्वरों में नींव का पत्थर था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की रक्त धमनियों में विद्रोह की उग्र भावना इसी गीत की देन है। 1942 में महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन को देशव्यापी धरातल इसी गीत के बूते मिला था। और वह यही आंदोलन था, जिसमें गांधी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज के फौजियों ने भी इसी गीत को गाते हुए मातृभूमि की बलिवेदी पर प्राण न्यौछावर किए।
14 अगस्त 1947 की मध्य-रात्रि में जब देश आजाद हो रहा था, तब इस मंत्र गीत का गायन श्रीमती सुचेता कृपलानी ने किया और वहां उपस्थित लोग इस गीत के सम्मान में गीत खत्म न हो जाने तक खड़े रहे। 15 अगस्त 1947 को जब स्वतंत्रता का सूर्योदय हो रहा था, तब आकाशवाणी पर पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने इसे बड़े ही रोचक ढंग से गाया। आखिरकार 24 अगस्त 1948 को जन-गण-मन के साथ इस गीत को भी राष्ट्र गीत की प्रतिष्ठा मिली। लेखक और दार्शनिक युगदृष्टा होते हैं, इसलिए बंकिम बाबू ने इस गीत को लिखे जाने के वक्त ही अपनी दिव्यदृष्टि से अनुभव कर लिया था कि यह गीत राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनकर लोकप्रियता के शिखर चूमेगा, इसीलिए उन्होंने इसे बंगाली भाषा में न लिखते हुए संस्कृत में लिखा। मूल और संपूर्ण गीत की केवल नौ पंक्तियां बंगाली में हैं। इस गीत का जो संपादित अंश राष्ट्रगीत के रुप में स्वीकार किया गया है, वह केवल आठ पंक्तियों का है।
वंदे मातरम् को इस्लाम विरोधी जताया जाना कोई नई बात नहीं है। जब कांग्रेस ने इसे प्रार्थना गीत के रुप में स्वीकार किया था, तब भी इसकी खिलाफत हुई थी। 1937 में कांग्रेस कार्यकारिणी ने आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। इसमें मौलाना आजाद, पंडित नेहरु और सुभाषचन्द्र बोस जैसे प्रखर संस्कृति मर्मज्ञ सदस्य थे। समिति को जिम्मेबारी सौंपी गई थी कि वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर से मषविरा कर वंदे मातरम् के संबंध में दो टूक सलाह दें। समिति द्वारा रवीन्द्रनाथ से परामर्ष के बाद जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया, उसके उपरांत कांग्रेस कार्यकारिणी ने फैसला लिया कि हरेक राष्ट्रीय व सार्वजनिक सभा में वंदे मातरम् के केवल दो पद गाये जाएं। ऐसे अवसरों पर भारत विभाजन के जनक मोहम्मद अली जिन्ना भी इस गीत को आदर के साथ खड़े होकर गाया करते थे। तय है, गीत पर विवाद का समाधान स्वतंत्रता से पहले ही हो चुका था।
बाद में देश-विभाजन के लिए जिम्मेबार मुस्लिम लीग के नेताओं ने जरूर वंदे मातरम् को बुतपरस्ती, मसलन मूर्तिपूजा मानते हुए इसका विरोध किया। इस बहाने लीगियों ने अल्पसंख्यकों को खूब उकसाया। नतीजतन 1938 तक कांगेस के जो प्रमुख मुस्लिम नेता इस गीत की राष्ट्रीय गरिमा का ख्याल रखते चले आ रहे थे, वे भी दबी जुबान से इसका विरोध करने लगे। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप बहुसंख्यक हिंदू और सिख हठपूर्वक इस गीत की महिमा के बखान में लगे रहे। बाद में साझा सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने के नजरिये से उर्दू के उदारवादी कवियों व राजनीतिकों ने वंदे मातरम् का अनुवाद ‘ऐ मादर, तुझे सलाम करता हूं’ किया, अर्थात हे माता, तुझे प्रणाम करता हूं। मुल्क को गुलामी से आजाद कराने की इस इबादत में गलत क्या है ? अरबी फारसी के अनेक कवियों ने भी देश को ‘मां’ कहकर संबोधित किया है। लिहाजा राष्ट्र के प्रति अपनी भावनाओं व उद्गारों को प्रचलित रूपकों अथवा प्रतीकों में प्रगट करना मूर्तिपूजा या बुतपरस्ती कतई नहीं है।
वंदे मातरम् एक मौलिक रचना है, इसकी व्याख्या धर्म नहीं, केवल साहित्य के संदर्भ में होनी चाहिए। इसे यदि कोई सांसद या विधायक इस्लाम विरोधी जताता है, तो उसका मकसद धर्म के बहाने राजनीतिक रोटियां सेंकना है, जो अलगाववादी राजनीति की संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक है।
खुद बंकिमचन्द्र ने लिखा है कि ‘हिन्दू होने पर ही कोई अच्छा नहीं होता है, मुसलमान होने पर कोई बुरा नहीं होता और न ही मुसलमान होने पर कोई अच्छा होता है या हिन्दू होने पर कोई बुरा होता है। अच्छे बुरे दोनों जातियों में हैं। गोया, निर्वाचित चंद मुस्लिम प्रतिनिधि इस्लाम के बहाने जिस राष्ट्रीयता का अपमान करते हैं, उसी राष्ट्रीयता के सम्मान में अन्य मुस्लिम प्रतिनिधी सुर में सुर मिलाते हैं। ऐसे ही चंद सिरफिरे मुस्लिमों ने आजाद हिंद फौज के नारे, ‘जय हिंद’ का भी विरोध किया था, जब दैनिक अखबार ‘डान’ ने वंदे मातरम् की आलोचना की तो महात्मा गांधी को कहना पड़ा, ‘वंदे मातरम् कोई धार्मिक नारा नहीं है, यह विषुद्ध राजनीतिक नारा हैं।’ यही नारा था, जिसने सोये हुए भारत को जगाने का काम करके, आजादी हासिल कराई थी।
राजनीतिक स्वार्थ के लिए राष्ट्र हितों को दरकिनार करना राष्ट्रघाती सोच है। कुछ सांसद और विधायक वंदे मातरम् का विरोध करने के आदी हो गए हैं। जबकि कुछ साल पहले देश के दिग्गज सांसदों ने सर्व-सम्मति से निर्णय लिया था कि संसद के सत्र का शुभारंभ राष्ट्रगान यानी जन-गण-मनज्से होगा और सत्रावसान राष्ट्रगीत वंदे मातरम् से। इस फैसले के वक्त कोई एक धर्म विशेष के सांसद संसद में मौजूद नहीं थे, बल्कि सभी धर्मों के थे, लिहाजा यह फैसला सब धर्मावलंबियों के जन प्रतिनिधियों को मान्य होना चाहिए।
ऐसे में जरुरी हो जाता है कि संविधान की गरिमा को पलीता लगाने वाले और राष्ट्रीयता के प्रतीक गीत का अपमान करने वाले प्रतिनिधियों को कानून के दायरे में सबक सिखाया जाए। जिससे सदनों में संकीर्ण सोच का विस्तार न हो। प्रतिनिधि बहुुमत से लिए निर्णयों का आदर करने के लिए हैं, न कि निरादर के लिए ?