गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-41
गीता का छठा अध्याय और विश्व समाज
अब पुन: हम उस आनन्द के विषय में ‘ब्रह्मानन्दवल्ली’ (तैत्तिरीय-उपनिषद) का उल्लेख करते हैं। जिसका ऋषि कहता है कि यदि कोई बलवान युवावस्था को प्राप्त वेदादि शास्त्रों का पूर्ण ज्ञाता सम्पूर्ण पृथ्वी का राजा होकर राज भोगे तो उसे उस राज से जो आनन्द प्राप्त होगा वह एक राजा का (मानुषिक) आनन्द है। ऐसे 100 मानुषिक आनन्दों से एक गन्धर्वानन्द बनता है और ऐसे सौ गन्धर्वानन्दों से एक देव गन्धर्वानन्द, सौ देव गन्धर्वानन्दों से एक पितरों के आनन्द की, सौ पितरों के आनन्द से एक आजानन आनन्द की, सौ आजानन देवों के आनन्द से एक कर्म देवों के आनन्द की, सौ कर्म देवों के आनन्द से एक इन्द्र का आनन्द, सौ इन्द्रों के आनन्द से एक बृहस्पति आनन्द की, सौ बृहस्पति आनन्द से एक प्रजापति आनन्द की और सौ प्रजापति आनन्द से एक ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है। ब्रह्मानन्द की कोई गणना नहीं है। हमारे ऋषियों के बौद्घिक चिन्तन और चिन्तन की गणना क्षमता के सामने आज का कम्प्यूटर भी फेल हो जाएगा।
गीताकार का उद्देश्य सारे संसार को मारकाट हिंसा, छल, फरेब, लूट, डकैती, बलात्कार की घृणास्पद अवस्था से ऊपर उठाकर उसे आनन्द के उस संसार में ले जाना है जहां सर्वत्र आनन्द ही आनन्द हो। महाभारत के समय में जिन लोगों को युद्घ का उन्माद युद्घ के मैदान तक खींचकर ले आया था उनके लिए आनन्द का यह संसार मिलना सर्वथा असम्भव था। उनके कर्म उन्हें मृत्यु की ओर खींच रहे थे जबकि आनन्द तो अमरत्व का विषय है, अमृत का विषय है। अमृत में आनन्द के लिए ही स्थान है, उसमें मृत्यु के लिए कोई स्थान नहीं है, इसलिए संसार के लड़ाई, झगड़े और वाद-विवाद ये अमृत के आनन्दमयी संसार की चीजें नहीं हैं। संसार के लड़ाई झगड़े और वाद-विवाद तो इसी संसार के लोगों की तुच्छ मानसिकता को दर्शाने वाली चीजें हैं, जिन्हें मिटाकर ही आनन्दमयी संसार की प्राप्ति हो सकती है, और ये तभी मिट सकती हैं-जब युद्घ के मैदान में खड़े सभी उपद्रवकारी और युद्घोन्मादी लोगों का विनाश किया जाए। यही कारण है कि श्रीकृष्णजी के इस आध्यात्मिक ज्ञान में भी भौतिक संसार के शत्रुओं का विनाश करने का अनोखा सन्देश छिपा है। जिस आनन्द की बात हम अभी कर रहे थे उस आनन्द को ही स्वर्ग कहते हैं और वह कहीं अलग नहीं-अपितु हमारे भीतर है। आवश्यकता बाहर के पट देकर भीतर के पट खोलने की है। कृष्ण संसार को बता रहे हैं किजैसे ही बाहर के पट देकर भीतर के पट खोले जाएंगे वैसे ही आनन्द के अमूल्य कोष को पाकर हमारा जीवन धन्य हो उठेगा। हम गदगद हो जाएंगे, कृतकृत्य हो जाएंगे। इसे प्राप्त करने के लिए अर्जुन! तू अपने कत्र्तव्य कर्म को ही भूल जाए या अपने धर्म को ही भूल जाए-यह नहीं चलेगा। कत्र्तव्य कर्म कर और फिर कत्र्तव्य कर्म करते हुए भीतरी पटों को खोलने का पुरूषार्थ कर, इससे तू कर्मयोगी कहलाएगा। इस आनन्द की अवस्था को पाकर ही तू योगी की समाधि का आनन्द ले सकेगा।
क्या है समभाव ?
स्वामी वेदानन्द जी लिखते हैं-”कुटिलता रहित होकर यहां इी इन लोगों को समान मनवाला कर अर्थात दूसरे को अपने साथ मिलाने से पूर्व अपने छल छिद्र दूर करने होंगे। यदि स्वयं कुटिलता का त्याग नहीं किया जा सके, तो दूसरों से मेल कैसे होगा? कुटिलता ज्ञान से दूर होगी। अत: पहले मन और हृदय को ज्ञान से संस्कृत करना चाहिए। मान तथा हृदय का संस्कार समान रूप से करना उचित है। ऐसा न हो कि दोनों का विषय संस्कार हो। मन का अधिक परिष्कार हो और हृदय का उससे कम, तो सूक्ष्म तथा ललित भावों का पूर्ण विकास न हो सकेगा। यदि हृदय की अपेक्षा मन साधन पर कम ध्यान दिया जाएगा तो सूक्ष्म तत्वों का विवेचन न हो सकेगा, अत: मन तथा हृदय का समान परिष्कार करना चाहिए। मन तथा हृदय के परिष्कार के समान शरीर संभार का यत्न भी होना चाहिए तभी मानव समाज की उन्नति होगी।”
वास्तव में गीता के समभाव की स्थिति पैदा करने के लिए मन, शरीर और आत्मा की समता स्थापित करना अनिवार्य है। इसे विद्वानों ने चित्ति, उक्ति और कृति की एकता कहा है। चित्ति अर्थात चित्त की मन के भावों की, उक्ति अर्थात कथन की जो कहा जाए वह मन के भावों के अनुसार कहा जाए और कृति अर्थात क्रिया करना कार्य भी वैसे हो जैसा कहा जाए, यदि चित्ति, उक्ति और कृति में समता स्थापित नहीं है तो साधना भी पाखण्ड बन जाती है। साधना की पवित्रता तभी बनी रह सकती है, जब मन साधना का दास हो जाएगा, अर्थात मन हमारी साधना के अनुरूप कार्य करने लगेगा। ऐसी अवस्था को प्राप्त होते ही हमें सर्वत्र हर स्थान पर और हर वस्तु में हर कण में और हर अणु-परमाणु में भी ईश्वर की सत्ता भासने लगेगी। ऐसे साधक के लिए श्रीकृष्ण जी गीता के छठे अध्याय में कहते हैं कि सर्वत्र समभाव से देखने वाला योग युक्त व्यक्ति सब प्राणियों में अपने को तथा अपने आप में सब प्राणियों को देखता है।
इस प्रकार समभाव वत्र्तने वाले व्यक्ति की आंखों में समता का सुरमा पड़ जाता है। वह हर स्थिति में समदृष्टि का उपासक बना रहता है। श्रीकृष्ण जी ऐसे योग युक्तव्यक्ति के लिए कहते हैं कि जो व्यक्ति सर्वत्र परमात्मा का प्रकाश फैला देखते हैं या जो सर्वत्र ईश्वर को (मुझे) व्याप्त हुआ देखते हैं-वह कभी भी ईश्वर की (मेरी) दृष्टि से ओझल नहीं होते।
कहने का अभिप्राय है कि समभाव की दृष्टि उत्पन्न होते ही आत्मा का परमात्मा से शाश्वत सम्बन्ध साकार हो उठता है। जो अज्ञान का आवरण पड़ा हुआ था-वह हट जाता है, कट जाता है, फट जाता है और छंट भी जाता है। कुहासा मिट जाता है। जिससे ईश्वर की कृपा का वह पात्र बन जाता है। इसे श्रीकृष्ण जी ने ‘मेरी दृष्टि से ओझल नहीं होता,’-कहा है। पर यहां ओझल न होने का अर्थ उसकी कृपा का पात्र बन जाने से है। क्योंकि ईश्वरीय कृपा का पात्र बनना हर किसी के लिए सम्भव नहीं है। ऐसे व्यक्ति का लक्षण होता है कि वह एकनिष्ठ होकर परमात्मा का ध्यान करता है। उसकी बुद्घि सदा ईश्वर के ध्यान में मग्न रहती है। वह संसार में रहकर भी संसार में नहीं रहता।
योगीराज श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! जो व्यक्ति मेरे प्रति एकनिष्ठ बुद्घि से युक्त होकर समर्पित हो जाता है और ईश्वर की (मेरी) इसी भाव से उपासना करता है। वह सब तरह से बत्र्तता हुआ भी मुझमें ही बत्र्तता है। कहने का अभिप्राय है कि ऐसे योगनिष्ठ व्यक्ति संसार के कार्यों में लगे दीखकर भी अपने इष्ट परमात्मा के ध्यान में ही मग्न रहते हैं। उनका प्रत्येक कार्य और प्रत्येक चेष्टा ईश्वर को साक्षी मानकर सम्पन्न होती रहती है। भारत के देहात में भारतीय अध्यात्म की परम्पराओं को आज भी टूटी-फूटी स्थिति में देखा जा सकता है। वहां पर हमारा परम्परागत ज्ञान वैसे ही जीर्णशीर्ण अवस्था में बिखरा पड़ा है जैसे किसी बड़े शहर में किसी राजा के किसी किले के ध्वंसावशेष बिखरे पड़े होते हैं। भारत को चाहिए कि वह अपने किले (सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) को बचाये रखने के लिए इसका जीर्णोद्घार करे अर्थात गांव की मिट्टी से निकलने वाली परम्पराओं की सौंधी सुगंध को सहेजकर और बटोरकर रखने का प्रयास करे।
क्रमश: