एक देश एक टैक्स का सपना सपना ही रह गया!

-डा. भरत मिश्र प्राची

टैक्स लेने की कोई नई परम्परा नहीं है। आदि काल से यह परम्परा चली आ रही है। राजतंत्र में राजा भी राज्य के काम काज, लोकहितार्थ आम जनता से टैक्स विभिन्न रूप में वसूल किया करते। लोकतंत्र में भी यह परमपरा कायम है। प्रशासनिक व्यवस्था बनाये रखने, राजकाज चलाने एवं आम जन को सुविधाएं मुहैया कराने में टैक्स सबसे बड़ा आय स्त्रोत है जो जरूरी भी है पर आम जन से वसूला गया टैक्स स्वहित में , ऐशो आराम में ज्यादा प्रयोग होने लगे, अनुचित प्रक्रिया है जिससे आम जन पर टैक्स का बोझ बढ़ता ही जाता है। आज यहीं हो रहा है । टैक्स के रूप में आमजन से वसूली गई राशि का प्रयोग ज्यादातर राजनेताओं के ऐशोआराम में व्यय होता नजर आ रहा है जिससे देश में आज अनेक प्रकार के टैक्स वसूले जा रहे है। आय हो या नहीं, आयकर देना ही पड़ता है। रोड टैक्स देने के बाद रोड पर चलने के लिये टोल भी देना पड़ता हे। एक ही सामान पर उत्पादन से लेकर उपभोग तक उपभेक्ताओं को आज भी अनेक प्रकार के टैक्स चुकाने पड़ रहे है।

एक देश एक टैक्स , सुनने में कितना अच्छा लगा था जब वर्तमान केन्द्र सरकार ने जीएसटी लाते वक्त कहा था। देश में जीएसटी लागू भी हो गया पर एक देश एक टैक्स का सपना सपना ही बनकर रह गया। जीएसटी के बाद भी देश में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष टैक्स देने का सिलसिला आज भी जारी है जिसके तहत सेल्स टैक्स, वैट, रोड टैक्स, इनकम टैक्स आदि आज भी देय है जिसके चलते सामान के भाव दिन पर दिन बढ़ते जा रहे है। महंगाई बढ़ने में इस तरह के टैक्स ज्यादा सहायक है। आयकर का स्वरूप इस तरह निर्धारित है जहां सकल आय मापदंड है पर घरेलू आवश्यक खर्च की कोई चर्चा नहीं। इस हालात में आय हो या नहीं, आयकर देना जरूरी है जिससे वेतन भोगी एवं लघु व्यवसायी टैक्स देते – देते सदा परेशान रहते है। ‘एक देश एक टैक्स’ के नाम आये जीएसटी से एक देश एक टैक्स का स्वरूप उजागर तो हो नहीं पाया, देश के आमजन पर एक और नये टैक्स का भार आ पड़ा । आम आदमी को टैक्स के बोझ से राहत तो नहीं मिली, सरकार के कोष की आमदनी जरूर बढ़ गई।

आज अमीर एवं गरीब के बीच का फासला पहले से काफी बढ़ चला है । अमीर और अमीर होता जा रहा है तो गरीब और ज्यादा गरीब। गरीब को राहत देने के नाम पर केन्द्र एवं राज्य सरकारों के बीच तरह तरह की योजनाओं के माध्यम से प्रतिस्पर्धा का दौर जहां जारी है, वहीं महंगाई को कम करने का सार्थक प्रयास कहीं नजर नहीं आता जिसे मात्र छलावा ही कहा जा सकता है। इस तरह के उभरते परिवेश में देश का मध्यमवर्गीय सबसे ज्यादा परेशान देखा जा सकता है जहां ऐसे वेतनभोगी लोगों की संख्या बहुत ही कम है, जो आज के बाजार का सामना कर सके। इस तरह के लोगों की दिनचर्या के आधार पर यहां के आम आदमी के जीवन की दिनचर्या की तुलना कभी भी नहीं की जा सकती। आज भी देश की अधिकांश आबादी अल्प वेतनभोगी है जो आज के बाजार में कतई टिक नहीं सकती। वैसे भी वेतनभोगी का वेतन जिस अनुपात में बढ़ता दिखाई देता है , बाजार भाव कई गुणा बढ़ जाता है तथा सहन सभी को करना पड़ता है। इस तरह के परिवेश के पीछे तरह – तरह के लगे टैक्स भार मुख्य कारण है।(युवराज)


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