भारतवासियों का पराभव और महर्षि दयानंद सरस्वती जी महाराज
भारतीयों का पराभव
महर्षि दयानंद सरस्वती जी की दृष्टि में भारतीयों का राजनीतिक पराभव और उसके प्रमुख कारक
जब भी किसी देश, जाति या समाज का पराभव होता है, वह एक सुखद अवसर नहीं होता। भारतीय इतिहास में अनेक ऐसे अवसर आये हैं, जब हमने अपने को पराजित, पददलित और शोषित अनुभव किया है। इस पराजय में हमने केवल राजनीतिक सत्ता का ही अपहरण कराया हो, ऐसी बात नहीं है, अपितु हमारी सांस्कृतिक विरासत भी अक्षुण्ण नहीं रह सकी है।
महाभारत से लेकर अंग्रेजों के शासन काल तक हमें अनेकों बार अपने आत्मसम्मान और आत्मगौरव की भावना का परित्याग करना पड़ा है। इतना सब कुछ सहने का आखिर कोई तो कारण है।
महर्षि दयानन्द की दृष्टि में उपर्युक्त समस्या का मूल कारण आपसी फूट रही है। वे कहते हैं कि ‘स्वायम्भुव राजा से लेकर पाण्डव पर्यन्त आर्यों का चत्रवर्ती राज्य था। तत्पश्चात् आपस के विरोध से लड़कर नष्ट होगये।’[1] आगे वे कहते हैं कि ‘जब भाई को भाई को मारने लगे तो नाश होने में क्या सन्देह है?[2] महाभारत के युद्ध के पश्चात् भी भारतीय इस घटना से कोई सबक नहीं ले सके, इसका महर्षि को बहुत दुःख है। एक अन्य स्थल पर वे कहते हैं कि ‘आपसी फूट से कौरव-पाण्डव और यादवों का सत्यानाश होगया, सो तो होगया, परन्तु अब तक भी वही रोग पीछे लगा है। न जाने यह भयङ्कर राक्षस कभी छूटेगा वा आर्यों को सब सुखों से छुड़ाकर दुःख सागर में डुबा मारेगा।’[3] वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि ‘परमेश्वर कृपा करे कि यह राजरोग हम आर्यों में से नष्ट हो जाये।’[4]
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महर्षि दयानन्द की दृष्टि में भारतीय पराभव का मूल कारण आपसी कलह और विद्वेष की भावना रही है।
महर्षि दयानन्द के उपर्युक्त विश्लेषणपरक विवेचन के सन्दर्भ में हम भारतीय इतिहास का एक संक्षिप्त मूल्याङ्कन करने का प्रयास करेंगे।
16वीं सदी के प्रारम्भिक भाग में मुगल आत्रान्ता बाबर ने भारत पर आत्रमण करके दिल्ली-आगरा प्रदेशों के एक बड़े भूभाग पर अपना राज्य स्थापित कर लिया। बाबर ने तुर्क-अफगानों के शासन का अन्त कर किस प्रकार अपने राज्य की नींव रक्खी, इस सबको प्रतिपादित करने की आवश्यकता नहीं है।1530ई0में जब बाबर की मृत्यु हुई, तब तक मुगलों का शासन पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक, उत्तर में हिमालय तक तथा दक्षिण में मालवा तक फैल चुका था।[5]
भारत में मुगल सत्ता को स्थिरता प्रदान करने का श्रेय अकबर को है, जिसका शासन काल1556-1605ई0था। बाबर ने जिस मुगल साम्राज्य की स्थापना की थी, वह हुमायूँ के शासन काल में छिन्न-भिन्न होने लग गया था। हुमायूँ का शासन इतनी दीनहीन स्थिति में पहुँच गया था कि अफगान शक्ति का नेतृत्व करते हुए भार्गव वंशी एक हिन्दू सेनापति हेमू ने वित्रमादित्य की उपाधि धारण कर अपने को दिल्ली का सम्राट् घोषित कर दिया था।
ऐसी स्थिति में अकबर ने अद्भुत कुशलता और नेतृत्व का प्रदर्शन करते हुए मुगल शासन की नींव को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया। अकबर को दो राजशक्तियों से संघर्ष करना था- एक ओर स्वधर्मावलम्बी अफगान सैन्य शक्ति और दूसरी ओर विधर्मी आर्य राजपूत सैन्यशक्ति। उनमें से द्वितीय आशय का आश्रय अकबर ने ग्रहण किया। इसका कारण था कि आर्य वंशीय राजपूत आपसी फूट के कारण स्वधर्मावलम्बी किसी भी राजा का आधिपत्य स्वीकार करने को तैय्यार नहीं थे। ये अपने ही भाई शत्रु राजा का अपमान कराने के लिये मुगलों के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध रख सकते थे, परन्तु अपने भाई का प्रभुत्व स्वीकार नहीं कर सकते थे।
दूसरी ओर अफगान और मुगलों का धर्म एक था, परन्तु धर्म भी उनमें एकता स्थापित कराने में सफल नहीं हो पा रहा था। इसलिये अकबर ने राजपूतों से सम्बन्ध स्थापित करना अधिक उचित समझा। उसने राजपूतों को अपने साम्राज्य में उढँचे पद प्रदान किये और उनकी सैन्यशक्ति का प्रयोग करके उसने उत्तर भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। राजपूतों में मेवाड़ के राजा राणा प्रताप उसके अपवाद बने रहे, उन्होंने जीवन पर्यन्त मुगल शासन के विरुद्ध युद्ध जारी रक्खा।
अकबर ने आर्य जनता के प्रति उदारता की नीति का अनुसरण किया। तीर्थों की यात्रा पर लगने वाले कर को, अकबर ने समाप्त कर दिया, साथ में जजिया कर लेना भी बन्द कर दिया गया। सत्यकेतु विद्यालङ्कार की दृष्टि में अकबर का शासन ‘किसी सम्प्रदाय विशेष या किसी विशिष्ट वर्ण का न होकर सब जातियों व सम्प्रदायों का सम्मिलित शासन था।’[6]
इसके अतिरिक्त अकबर की एक व्यक्तिगत विशेषता थी कि वह सब धर्मों का सम्मान करता था तथा सम्बन्धित धर्मों के आचार्यों को बुलाकर उनके प्रवचनों को सुना करता था। इसका परिणाम यह हुआ कि उसने एक ऐसे धर्म को विकसित करने का प्रयास किया, जिसमें सभी अच्छे तत्त्वों का समावेश हो। इसका नाम उसने ‘दीने इलाही’ रक्खा, परन्तु अकबर के साथ ही यह धर्म समाप्त होगया।
यह तथ्य विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि भारत ने अन्यत्र जहाँ-जहाँ भी इस्लाम धर्म गया, सीरिया, ईरान, ईराक, मिस्र आदि देशों में शासकों के इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेने पर सारी की सारी प्रजा कुछ दिनों में इस्लाम के रंग में रंग गयी, परन्तु भारत में स्थिति इससे विपरीत रही। सैकड़ों वर्षें तक शासक वर्ग इस्लाम धर्म का अनुयायी रहा, परन्तु भारतीय जनता वैदिक धर्म के प्रति निष्ठावान् बनी रही। इतना ही नहीं, मुस्लिम वर्ग को भी वैदिक धर्म और संस्कृति ने प्रभावित किया। जनता का भारतीय धर्म के प्रति आग्रह बने रहने का कारण मध्य युग में आने वाला भक्ति-युग रहा है। इसके अतिरिक्त भारतीय धर्म की उदारता ने भी इस्लाम के प्रसार को रोकने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया।
अकबर के बाद जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी लगभग उसी नीति का अनुसरण किया, जो अकबर ने प्रवर्तित की थी। ये दोनों बादशाह उदार थे और उन्होंने सबको साथ लेकर चलने की नीति का पालन किया आाwर इसी कारण मुगल साम्राज्य लगातार इतने दिनों तक विना किसी विशेष समस्या के चलता रहा और जनता का विश्वास उसे प्राप्त होता रहा।
शाहजहाँ के उत्तराधिकारी औरंगजेब ने अपने पूर्वजों की चली आती हुई नीति और रीति का परित्याग कर दिया और वह मुगल साम्राज्य को इस्लामी राज्य बनाने का प्रयास करने लगा। उसने इस्लाम के अनुसार शासन करने के लिये आर्य जाति पर जजिया कर लगाया तथा विश्वनाथ(काशी), सोमनाथ(गुजरात), केशवराय(मथुरा) आदि प्रसिद्ध मन्दिरों को तोड़ने के आदेश दे दिये। उसके साथ ही आर्यों को उनके पर्व सार्वजनिक रूप से मनाने से रोका, इस्लाम धर्म स्वीकार करने वालों को पुरस्कार दिये जाने लगे तथा आर्य धर्मावलम्बियों को राजकीय उच्च पदों से हटाकर, उनके स्थान पर मुसलमानों को नियुक्ति की जाने लगी।
उनकी इस साम्प्रदायिक विद्वेषपूर्ण नीति का प्रभाव मुगल शासन की स्थिरता पर बहुत बुरा हुआ। मथुरा में जाटों ने, पंजाब में सिक्खों ने, राजपूताने में दुर्गादास राठौर ने, दक्षिण में मराठों ने औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह को स्वर दिया। इस सबका परिणाम यह हुआ कि औरंगजेब भारत में न तो इस्लामी राज्य की स्थापना करने में सफल रहा, वरन् उसका अपना पैतृक परम्परा से प्राप्त राज्य खण्ड-खण्ड होने के कगार पर पहुँच गया।1707ई0में औरंगजेब की मृत्यु हुई, उसके उत्तराधिकारी निर्बल और बुद्धिहीन थे, अतः, वे आर्यों का सहयोग व समर्थन प्राप्त करने में असफल रहे। इस प्रकार मुगलों के प्रताप का सूर्य अवसान होने के कगार पर पहुँच गया।
मुगल शासन के अन्तिम दिनों में, भारत के बहुत बड़े भूभाग पर अनेक आर्यदेशीय राजाओं का आधिपत्य स्थापित होगया।1739ई0में पर्शिया के नादिरशाह ने भारत पर आत्रमण किया, परन्तु मुगल शासन उसका आत्रमण रोकने में असफल रहा और नादिरशाह ने दिल्ली पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया, लेकिन नादिरशाह ने स्थायी रूप से अपना आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास नहीं किया, परन्तु उसके आत्रमण से मुगल शासन की शेष बची शक्ति भी अवसान के बिन्दु पर पहुँच गयी। इसके पश्चात् मुगल बादशाह नाम के ही शासक रह गये थे, शक्ति का वास्तविक केन्द्र मराठों के हाथों में पहुँच गया था।
12वीं सदी के अन्तिम वर्षों से18वीं सदी के प्रारम्भ तक लगभग पाँच सौ वर्षों तक, भारत का अधिकांश भूभाग ऐसे राजवंशों के अधिकार में रहा, जो इस्लाम धर्म के अनुयायी थे। उसमें से डेढ़ सौ वर्षों का शासन काल ऐसा रहा है, जिसमें मुस्लिम बादशाह, बिना विशेष प्रतिरोध के, अपनी सत्ता बनाये रख सके। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण यह रहा है कि उन्होंने भारतीयों की सद्भावना को प्राप्त कर लिया था और दूसरा कारण यह था कि भारतीय भारतीयों का आधिपत्य स्वीकार करने में अधिक अपमान का अनुभव करते थे। दास रहते-रहते उनकी मनोवृत्ति अपने स्वामियों जैसी हो चली थी।
18वीं शताब्दी के मध्यकाल तक मराठे ही भारतीय राजशक्ति के प्रधान स्तम्भ थे। मुगलों का तेज उनके समक्ष बिल्कुल मन्द पड़ गया था। लेकिन मराठों का यह उत्कर्ष बहुत देर तक स्थिर नहीं रह सका।1761ई0में अहमदशाह अब्दाली ने पंजाब के मराठा सूबेदार को पराजित कर दिल्ली पर अपना शासन स्थापित कर लिया। अहमदशाह का मुकाबला करने के लिये मराठे राजा अपनी सेनायें लेकर पेशवा के नेतृत्व में इस युद्ध में आये, पहले दिल्ली विजय की गयी, उसके पश्चात् पानीपत के रणक्षेत्र में अब्दाली की सेनाओं के साथ युद्ध हुआ, जिसमें मराठों की पराजय हुई। इस युद्ध में अनेक प्रमुख मराठे भी मारे गये, जो मराठों का नेतृत्व और उन्हें सङ्गठित किया करते थे। इस पराजय के साथ ही मराठा युग का स्वर्णकाल समाप्त हो जाता है।
मराठों की उक्त पराजय का कारण यह था कि उन्हें भारतीय राजाओं का पूर्ण सहयोग प्राप्त नहीं हुआ था या यह कह सकते हैं कि मराठे भारतीय राजाओं का सहयोग प्राप्त करने में असफल रहे या मराठों को सहयोग प्राप्त करने की कला नहीं आती थी या फिर भारतीय भारतीय का सहयोग करने में अपमान अनुभव करते थे। चाहे जो वास्तविकता हो, पर इतना निश्चित है कि भारतीय राजा अपने व्यापक हित की पहिचान करने में हमेशा असफल सिद्ध हुए हैं। उन्हें अपने और पराये का ज्ञान कभी नहीं हो पाया। बदला लेने के आवेश में वे उचित-अनुचित का बोध भी भूल जाते रहे हैं।
औरंगजेब की साम्प्रदायिक नीति का सिक्खों के नवें गुरु तेग बहादुर ने घोर विरोध किया। परिणामस्वरूप राज्यद्रोह करने के आरोप में उनका निर्दयतापूर्वक वध कर दिया गया। लेकिन इस घटना से सिक्ख दबे नहीं। उनमें एक ऐसा वीर पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसने इन्हें सङ्गठित कर एक प्रबल शक्ति का रूप दिया। इस वीर पुरुष का नाम गुरु गोविन्द सिंह है।1761ई0में पानीपत युद्ध में मराठों की पराजय के बाद, उन्हें, अपनी शक्ति विकसित करने का एक सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने अहमदशाह अब्दाली को परास्त कर अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिये।18वीं शताब्दी के अन्त तक सिक्ख पंजाब और उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रदेशों की एक प्रमुख राजशक्ति बन गये। महाराजा रणजीतसिंह(1792-1839ई0) के नेतृत्व में सिक्खों की राजशक्ति अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँच गई और प्रायः सम्पूर्ण उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र पर उनका स्वतन्त्र शासन स्थापित होगया।
मुगल साम्राज्य की शक्ति के क्षीण होने पर18वीं शताब्दी के मध्य तक दिल्ली और आगरा के समीपवर्ती क्षेत्रों में जाटों ने अनेक छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिये। औरंगजेब के बाद जब मुगलों की शक्ति लगभग नष्ट प्रायः हो गयी, तो अनेक राजपूत राज्य व्यावहारिक रूप से स्वतन्त्र हो गये। लेकिन आर्य शक्ति का यह सूर्य बहुत देर तक आकाश में टिक नहीं सका। इस स्थिति का मूल्याङ्कन करते हुए सत्यकेतु विद्यालङ्कार कहते हैं कि ‘इस समय एक अन्य विदेशी व विधर्मी जाति भारत में अपनी शक्ति का विस्तार करने में तत्पर थी। इस जाति ने हिन्दुकुश माला को पारकर उत्तर-पश्चिम की ओर से भारत में प्रवेश नहीं किया था। यह समुद्र के मार्ग से भारत में आयी थी। यह जाति अंग्रेजों की थी और ईसाई धर्म को मानने वाली थी। भारत की राजनैतिक दुर्दशा के लाभ उठाकर उसने इस देश में अपने पैर जमाने प्रारम्भ कर दिये और उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में प्रायः सम्पूर्ण भारत में उसने प्रभुत्व स्थापित कर लिया।’[7]
मुगलों की पराजय के बाद उगा हुआ आर्य जाति का उत्कर्ष स्थायी क्यों नहीं हो सका, का विवेचन करते हुए सत्यकेतु विद्यालङ्कार कहते हैं कि ‘आर्य राजशक्ति, जो भारत में स्थायी नहीं हो सकी, उसके अनेक कारण थे। विकेन्द्राrकरण की जो प्रवृत्तियाँ भारत को राजनीतिक दृष्टि से निर्बल बनाती रही हैं, वे इस काल में भी बलवती थीं। मराठे लोग राजपूतों, जाटों और सिक्खों का सहयोग प्राप्त करने में तो असमर्थ रहे ही, साथ ही वे अपना भी एक सुदृढ़ केन्द्राrय शासन स्थापित नहीं कर सके। उनका अपना ‘स्वराज्य’ भी एक सुसङ्गठित राज्य का रूप नहीं प्राप्त कर सका। सिक्खों, जाटों और राजपूतों के राज्यों में भी आन्तरिक झगड़ों का बोलबाला था। राजनीतिक एकता और राष्ट्रीय भावना के महत्त्व का उन लोगों को कोई परिज्ञान नहीं था, जिनके हाथों में उस समय शक्ति राजशक्ति थी। उस दशा का परिणाम यह हुआ कि आर्यों की राजशक्ति रूपी चिंगारी18वीं सदी में प्रकट अवश्य हुई, पर वह एक ज्वाला का रूप प्राप्त नहीं कर सकी।’[8]
महाकवि दिनकर भारतीय चरित्र की दुर्बलता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि ‘वैयक्तिता का विष, जो भारत में बहुत दिनों से चला आ रहा था, इस काल में आकर और भी बढ़ गया था। समाज और देश के प्रति भी हमारा कोई कर्तव्य है, इस बात को लोग भूल बैठे थे।’[9]
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत युद्ध के बाद जो विकेन्द्राrकरण की प्रवृत्ति प्रारम्भ हुई, जिसके कारण लगभग पाँच सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि की दासता का दुःख भोगना पड़ा, भारतीय संस्कृति का चीरहरण हुआ, आत्मसम्मान और आत्मगौरव मात्र मुगलों की दासता के पर्याय बन कर रह गये, आत्मशक्ति कुण्ठित होकर जडता को प्राप्त होगयी, फिर भी बीमारी को पहिचाना नहीं जा सका। हम जिस शाखा पर खड़े थे, उसीको काटने में लगे रहे। एकता और राष्ट्रीयता हमें अपने अहम् से छोटे प्रतीत होते रहे। सामान्य व्यक्ति भी बहुत प्यासे रहने के उपरान्त प्राप्त पानी की एक-एक बूँद का हिसाब रखता है, उसका अपव्यय नहीं होने देता, परन्तु हमारी राजशक्ति और उसके सलाहकार इतना भी नहीं समझ सके कि मराठों की जीत राष्ट्रीय शक्ति की विजय है या सिक्खों का उत्कर्ष भारतीय चेतना का उत्कर्ष है। अहमदशाह अब्दाली को अकेले सिक्ख पराजित कर लेते हैं तो क्या वे सब मिलकर समस्त विदेशी राजशक्ति के दम्भ को चकनाचूर नहीं कर सकते थे? जैसे युधिष्ठिर को प्रथम तो द्यूत त्रीडा में भाग लेना नहीं चाहिये था और एक बार के अनुभव के आधार पर तो पुनः प्रवृत्ति सर्वथा अवांछित थी, परन्तु युधिष्ठिर को जिस प्रकार हारकर भी द्यूत त्रीडा में रस आता है, उसी प्रकार हमारे देश की राजशक्ति को दास रहने के बाद पुनः दासता में चले जाने में कोई परेशानी अनुभव नहीं होती। हमारा देश दार्शनिकों का देश है, वह अन्धकार और प्रकाश दोनों का महत्त्व बखूबी प्रतिपादित कर सकता है। वह जानता है कि दासता में ही अहङ्कार का नाश होता है और अज्ञान ही अहङ्कार का मूल है। इस प्रकार हम दास होकर, जहाँ सेवा का अवसर प्राप्त करते हैं, वहीं मुक्ति में बाधक अहङ्कार का लय करने में भी समर्थ हो जाते हैं। जिसमें स्व और पर का हित निहित हो, वही श्रेय मार्ग है।
भारतीय चिन्तन की इस दुःखद नियति का अवसान किस बिन्दु पर आकर होगा,
कुछ कहा नहीं जा सकता। भारतीय चेतना के समग्र उत्कर्ष के लिये महर्षि दयानन्द निम्न दोषों का निराकरण अपेक्षित समझते हैः-
आपस की फूट।मतभेद।ब्रह्मचर्य का सेवन न करना।
बाल्यावस्था में अस्वयंवर विवाह। विषयासक्ति।
मिथ्याभाषणादि कुललक्षण।वेदविद्या का अप्रचार।[10]
वे आगे कहते हैं कि उपर्युक्त दोषों के हेने पर ही ‘तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है।’[11] अब तो हम लोग विदेशी प्रभाव में इतने अधिक आ गये हैं कि सब कुछ विदेशी विद्वानों के दृष्टिकोण से देखने के अभ्यस्त हो गये हैं। हम उसके पीछे निहित विदेशी दुरभिसन्धि को भी को नहीं पहिचान पा रहे हैं। उचित-अनुचित और न्याय तथा अन्याय को परखने को मापदण्ड हमारा वही है, जो हमें आयात से प्राप्त होता है।
एक समय था, जब हमारे लिये मुगल, तुर्क आदि विदेशी थे, फिर एक समय ऐसा आया कि हम सभी ने अंग्रेजें के एक विदेशी के रूप में पहिचान की और अब ऐसा समय आ गया है कि जब हम अपने(आर्यों) को विदेशी समझने लग गये हैं। यदि आज हम8वीं कक्षा तक के किसी भी छात्र से पूछें कि आर्य कौन हैं? तो वह सीधा उत्तर देता है कि आर्य विदेशी आत्रान्ता हैं। यहाँ के मूल निवासी द्रविड़ हैं, उनको पराजित कर, उन्होंने अपनी संस्कृति सभ्यता उन पर लाद दी है। आज हम अपने ही घर में विदेशी हैं और वह भी विना किसी प्रमाण के। है न आश्चर्य की बात?
विश्व का शायद ही कोई समाज हमारे जैसा मूर्ख और अशिक्षित होगा, जो बिना प्रमाण के अपने घर को दूसरे का मानने लगे। सत्य की परख हम कर ही नहीं सकते और न करना ही चाहते हैं। हम तो ऐसा कुछ भी सुनने को तैय्यार नहीं है, जो विदेशी बोतल में सील बन्द होकर हमारे पास न पहुँचता हो।
जिस काल में महर्षि ने विदेशी राज्य से मुक्ति पाने के लिये उक्त दुर्गुणों का परिहार आवश्यक समझा था, ऐसा प्रतीत होता है कि आज भी हम उस स्थिति से उढपर नहीं उठ पाये हैं, भले ही हम शिक्षित होगये हों, पर हमारी मानसिकता उसी स्तर की है। जैसे मन्द बुद्धि प्रौढ अपना भला-बुरा कुछ नहीं जान सकता, वैसे ही हम हैं।
जो कारक देश के पराभव के पहले सत्रिय थे, वे आज इस विषाणु युग में और अधिक सत्रिय होगये हैं। महर्षि के आविर्भाव के समय यह देश सोया हुआ था, इसलिये उसे जगाना कहीं अधिक सरल था, परन्तु आज यह पश्चिमी सङ्गीत के बधिर कर देने वाले कोलाहल में मग्न है। वहाँ तक तो चिल्लाकर भी अपनी आवाज को नहीं पहुँचाया जा सकता। इसलिये महर्षि दयानन्द द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनुसरण करने की हमें पहले से अधिक आवश्यकता है। अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब भारतीय स्वतन्त्रता का सूर्य अपनी आभा खो बैठे।
[1] सत्यार्थप्रकाश, एकादश समु0, पृ0,429.
[2] सत्यार्थप्रकाश, एकादश समु0, पृ0,434.
[3] सत्यार्थप्रकाश, एकादश समु0, पृ0,414-15.
[4] सत्यार्थप्रकाश, एकादश समु0, पृ0,415.
[5] सत्यकेतु विद्यालङ्कार, आर्यसमाज का इतिहास, भा0,1. पृ0,102.
[6] सत्यकेतु विद्यालङ्कार, आर्यसमाज का इतिहास, भा0,1. पृ0,103.
[7] सत्यकेतु विद्यालङ्कार, आर्यसमाज का इतिहास, भा0,1. पृ0,110.
[8] सत्यकेतु विद्यालङ्कार, आर्यसमाज का इतिहास, भा0,1. पृ0,110-11.
[9] दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, पृ0,505.
[10] सत्यार्थप्रकाश, दशम समु0, पृ0,414.
[11] सत्यार्थप्रकाश, दशम समु0, पृ0,414.
लेखः :- ज्ञान प्रकाश शाश्त्री
प्रस्तुति:- आर्यवीर
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