गीता का नौवां अध्याय और विश्व समाज

इससे अगले श्लोक में श्रीकृष्णजी कहते हैं कि इस संसार में लोग किसी को ब्राह्मïण, किसी को बड़ा, किसी को चाण्डाल तो किसी को छोटा कहते हैं। जबकि सभी मनुष्यों में ‘मैं’ ही समाया होता हूं। इसका भाव यह है कि आत्मा को ही परमात्मा मानने का व्यवहार मनुष्यों को परस्पर करना चाहिए। आत्मा का आत्मा बन परमात्मा सभी में छिपा है। इसलिए किसी को हेय, त्याज्य या छोटा मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद करना गलत है। किसी कवि ने कहा है-
सबके परमपिता जो घट-घट में रम रहे हैं।
लघु जान क्यों किसी की अवहेलना करूं मैं।।
अपने उपदेश में श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि जो परमात्मा तत्व इस प्रकार सभी मनुष्यों में समाया है-वह महेश्वर मैं हूं। वह अपने को सभी प्राणियों का महेश्वर कहते हैं। इसका अभिप्राय ईश्वर से ही है। ईश्वर ही वह तत्व है जो सभी में समाया हुआ है।
ऋग्वेद (1-67-3) में आया है कि अजन्मा परमेश्वर ही इस पृथिवी और अंतरिक्ष को धारण करता है। सूर्यों, नक्षत्रों आदि के आधारभूत द्यौ को भी वह परमेश्वर ही अपने निर्देशों के द्वारा धारण किये रखता है। उस सर्वजीवनाधार को हृदय में ही खोजा जा सकता है और हृदय में भी उसे हृदय से ही खोजना सम्भव है। भगवान को इसी मानव देह में खोजा जा सकता है और मानव देह से ही खोजा सकता है। यदि मानव देह नहीं होगी तो फिर उसे खोजना भी असम्भव है। अत: श्रीकृष्ण का कथन है किमैं सब में बस रहा हूं, सब प्राणियों का महेश्वर मैं हूं और जब सब में मैं हूं-सबका जीवनाधार मैं हूं तो फिर ऊंच-नीच, छोटा बड़ा आदि की बीमारियां समाज न पाले। जिन लोगों ने श्रीकृष्ण के ऐसे उपदेश के उपरान्त भी समाज में मानव समुदाय के बीच ऊंच-नीच, छुआछूत, छोटा, बड़ा आदि की विभाजनकारी दीवारें खड़ी कीं, उन्होंने यह पाप कृत्य श्रीकृष्णजी केउपदेश के विपरीत जाकर किया है।
संसार के कल्याण का मार्ग ही ये है कि सब मनुष्य स्वयं को एक ही ज्योति से ज्योति समझें। एक ही पिता की सन्तान समझें और सब एक दूसरे के साथ समानता का व्यवहार करें। जब यह राजविद्या आज के भटके हुए संसार के भटके हुए लोगों को समझ आ जाएगी तो संसार के अधिकांश झगड़ों का सफाया अपने आप ही हो जाएगा।
ऊंचनीच, छोटा बड़ा मत कहो चाण्डाल।
सब में ईश्वर विराजते समझो यह तत्काल।।
आसुरी और दैवी प्रकृति
आसुरी और दैवीय प्रकृति के आधीन होकर लोग पता नहीं क्या-क्या कर जाते हैं? पर आसुरी प्रकृति वाले संसार के लिए अपूज्य माने जाते हैं और दैवीय प्रकृति वाले संसार में पूजनीय हो जाते हैं। उनके सत्कर्मों का यश उन्हें मरकर भी मरने नहीं देता। वे लोगों को अपने जाने के पश्चात भी मार्ग दर्शन देते रहते हैं। आसुरी प्रकृति और दैवीय प्रकृति के विषय में श्रीकृष्णजी ने सोलहवें अध्याय में आगे चलकर भी प्रकाश डाला है।
गीता के नौवें अध्याय में चल रहे अपने उपदेश के माध्यम से योगेश्वर श्रीकृष्णजी अर्जुन को बता रहे हैं कि जो लोग मेरे वास्तविक रूप को नहीं जान पाते हैं, उनके कर्म, आशा ज्ञानादि सब व्यर्थ ही जाते हैं। क्योंकि ऐसे लोग विवेकहीन होते हैं।
भाव और भाषण में जिनकी समता नहीं होती वे कथनी और करनी के अन्तर को नहीं मिटा पाते। भाषण की कला तो अच्छी बना ली उसका परिष्कार कर लिया, वाणी में मिठास भी पैदा कर ली-अच्छी-अच्छी बातें बनाने का अभ्यास भी कर लिया, पर यदि भाव शुद्घि पर ध्यान नहीं दिया तो भाषण और भाव में बड़ी दूरी पैदा हो जाती है। भाव अशुद्घ रहने के कारण कहीं पीछे छूट जाते हैं और भाषण बहुत आगे निकल जाता है। श्रीकृष्ण जी कथनी-करनी में समता पैदा न करने वालों को ज्ञानी मान कर भी विवेकहीन कह रहे हैं। क्योंकि उनका ज्ञान व्यर्थ ही रहा और जो ज्ञान व्यर्थ जाए- उसका कोई मूल्य नहीं होता। वह तो व्यर्थ ही होता है। ऐसे लोगों के लिए श्रीकृष्ण जी कह रहे हैं कि वे मोह में डालने वाली राक्षसी तथा आसुरी प्रकृति का आश्रय लिये होते हैं।
ऐसे विवेकहीन लोगों के कारण दूसरों का सदा अहित ही होता है। मानव जीवन उसी का सफल और सार्थक होता है-जिनके आने से या रहने से दूसरों का हित हो, कल्याण हो, उत्थान और उद्घार हो। ये राक्षसी प्रकृति मनुष्य को ईश्वर के वास्तविक निर्मल ज्ञान और निर्विकारी स्वरूप का दर्शन नहीं होने देती है। जिससे उनका जन्म निरर्थक ही जाता है।
योगेश्वर श्रीकृष्णजी का उपदेश है कि महात्मा लोग अपने दैवीय स्वभाव के कारण मुझे प्राणीमात्र का आदिकारण समझ कर अनन्य चित्त से मुझ अनश्वर (अविनाशी) की उपासना करते हैं, और आनन्द की अनुभूति करते हैं। दैवीय स्वभाव के लोगों के लिए संसार के आकर्षण कोई अर्थ नहीं रखते।
संसार से उदासीन हो भगवन का करें जाप।
महात्मा जन उन्हें मानिये दूर रहें त्रिताप।।
ऐसे लोग अनन्य भाव से ईश भजन करते हैं। इनके यजन और भजन में सात्विक निरन्तरता का भाव होता है। अपने धुन के पक्के होने के कारण ये लोग ईश्वर के साथ भक्ति की डोर में बंधे रहते हैं और उसकी उपासना में लगे रहते हैं।
ऐसे भक्त लोग मानते हैं कि मेरे ईश्वर के कान सदा मेरी बात सुनते रहते हैं। वह उस अन्तरात्मन परमात्मन को अपना हमराज समझ लेते हैं। इसलिए उससे कुछ भी न मांगते हुए बस ये ही कहते हैं कि तुझसे मेरा कुछ भी छिपा नहीं है, इसलिए तुझसे मांगना ही क्या है? तू मुझ पपीहा की पुकार सुन और मेरे लिए स्वाति नक्षत्र की बूंद का प्रबन्ध करा। मेरी प्यास बुझा। ऐसी प्यास संसार के लोग जगा लें तो नित्यप्रति के झगड़े समाप्त हो जाएं। श्रीकृष्णजी पुन: संकेत से अर्जुन को यही बता गये है कि आसुरी प्रकृति विश्व समाज के लिए घातक है और दैवीय प्रकृति संसार के लिए उपयोगी है। आसुरी प्रकृति का नाश कर संसार की सुरक्षा करना तेरा धर्म है और दैवीय प्रकृति का पालन करना तेरा परम धर्म है।
”ईश्वर सर्वव्यापक है सर्वत्र मैं ही मैं हूं”
वेद ने ईश्वर को सर्वव्यापक मानकर उसकी महिमा और महत्ता का वर्णन किया है। भारतीय संस्कृति की इस महान खोज को विश्व के बुद्घिजीवी आज अपनी मान्यता दे रहे हैं, वे मान रहे हैं कि ईश्वर सर्वव्यापक है और उसकी सत्ता को संकीर्ण या सीमित या एकदेशीय मानकर देखना अपनी ही बुद्घि के सीमित व संकीर्ण ज्ञान के प्रकट करने के समान होगा। ईश्वर को ससीम करना अपने ज्ञान को ससीम करना है और ईश्वर को असीम मानना या सर्वव्यापक मानना अपनी बुद्घि को असीम और अनन्त की गहराइयों को खोजने और खोलने के लिए खुला छोड़ देना है। इस प्रकार की प्रवृत्ति से बुद्घि का विकास होता है और व्यक्ति बुद्घिमान से महामेधासम्पन्न प्राज्ञ बनने की पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेता है। क्रमश:

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