गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-58
गीता का दसवां अध्याय और विश्व समाज
”पत्ते-पत्ते की कतरन न्यारी तेरे हाथ कतरनी कहीं नहीं-” कवि ने जब ये पंक्तियां लिखी होंगी तो उसने भगवान (प्रकत्र्ता) और प्रकृति को और उनके सम्बन्ध को बड़ी गहराई से पढ़ा व समझा होगा। हर पत्ते की कतरन न्यारी -न्यारी बनाने वाला अवश्य कोई है-पर वह दिखायी नहीं देता। हर पत्ता उसके होने की साक्षी दे रहा है, पर पकडक़र लाकर उसे हमारे सामने उपस्थित नहीं कर सकता।
हां करूं तो है नहीं नाय करी ना जाए।
हांय नाय के बीच में आप ही रहयो समाय।।
कैसा खेल है-संसार के रचैया का। सारा खेल खेलता है और खिलाड़ी होकर भी दिखायी देता नहीं। जो इस खेल को समझ जाते हैं-वे उस खिलाड़ी की खोज में लग जाते हैं। सोच लेते हैं कि खेल को समझने के लिए खिलाडिय़ों को समझने की आवश्यकता है।
तू समझ में आता है पर पकड़ में नहीं आता।
मालूम हुआ कि तेरा पता यही है।।
जो उस खिलाड़ी के खेल को समझ जाते हैं, उसकी विभूति को समझ जाते हैं-उनका कल्याण हो जाता है। संसार की योग माया को ही गीता कार ने उसकी विभूति कहा है। वह दिखता नहीं है, तो उसे देखना होगा। उसे खोजना होगा। पर वह इन चर्मचक्षुओं से दिखने वाला नहीं है-वह अंतश्चक्षुओं से भीतर की आंखों से ही दिखायी देगा और तब दिखायी देगा-जबकि यह दीखने वाला संसार भुला दिया जाएगा।
वह अन्तर्यामी है और सबके भीतर छिपकर बैठा है। उसकी इस विभूति का पर्दाफाश करना होगा। वह मठ-मंदिरों में घण्ट, शंख, घडिय़ाल बजाने से मिलने वाला नहीं है। उसे पाने के लिए किसी पर भोग लगाने की आवश्यकता नहीं है, उसके लिए किसी सांसारिक बिचौलिये की भी आश्यकता नही है। वह तो स्वयं को ही खोजना होगा। कुछ लोग ‘गुरू’ को बिचौलिया मानते हैं। यह उनकी भूल है। गुरू बिचौलिया होने की दलाली नहीं करता। वह तो हमारे भीतर अपने ज्ञान को परोसता है। उसका यह उपकार हमें उसके प्रति श्रद्घालु बनाता है। वह बिना मूल्य लिये हमें मार्ग बताकर अलग हट जाता है। उसकी महानता को नमन करते हुए फिर उस परमपिता परमात्मा की ओर तो हमें स्वयं ही बढऩा पड़ता है।
योगीराज श्रीकृष्ण कहते हैं-अर्जुन मेरे उद्गम को देवगण और महर्षि लोग भी नहीं जानते। क्योंकि मैं इन सबका भी सब प्रकार से आदि कारण हूं। जो मुझे अज, अनादि और लोकों का महेश्वर जानता है-मनुष्यों में वह मोह रहित है और सब पापों से मुक्त हो जाता है।
अज का अभिप्राय है-जिसका जन्म ही नहीं होता। अनादि का अभिप्राय है-जिसका कभी आरम्भ नहीं होता। ऐसे महेश्वर को जान लेना मनुष्यों को मोहरहित बनाता है। यजुर्वेद (32/10) में आया है कि-‘यत्र देवा अमृत मानशाना स्तृतीयो’-अर्थात जिस भगवान में रहकर सभी जीवन्मुक्त अमृत मोक्षानन्द का उपभोग करते हैं। इसीलिए वह महेश्वर है क्योंकि उसमें सभी जीवन्मुक्त अमृत मोक्षानंद का उपभोग करते हैं। श्री कृष्णजी इसी प्रकार के लोगों के लिए कह रहे हैं कि वे सब प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं।
मेरे उद्गम स्रोत को जान सका है कौन?
महर्षि और महात्मा सब हो जाते हैं मौन?
दसवें अध्याय में अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि बुद्घि, ज्ञान, असंमोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दु:ख भाव, अभाव, भय, अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश, अपयश, प्राणियों की ये सब भिन्न-भिन्न दशाएं मुझसे ही उत्पन्न होती हैं।
प्राणियों की इन बीस दशाओं के होने का प्रेरणा स्रोत या उदगम स्थल वह परमपिता परमात्मा ही है, इसलिए इन सबको उसी की विभूति माना गया है। बुद्घिमान लोग इन विभिन्न दशाओं में या विभूतियों में उस प्यारे प्रभु की ही कृपा देखते हैं-उसी के दर्शन करते हैं। परमपिता परमात्मा हमारे अंत:करण में पुण्य कार्यों को करते जाने की प्रेरणा करता है। यदि हम उसकी प्रेरणा के वशीभूत होकर कार्य करते हैं तो हमें सुख और आनन्द मिलते हैं और यदि हम उसकी प्रेरणा के विपरीत कार्य करते हुए पाप कर्म करते हैं तो हमें दु:ख की प्राप्ति होती है। यह दु:ख हमारे पापकर्म का फल है। जिसे भगवान देता है। इस प्रकार सुख और दु:ख दोनों का उद्गम स्थल भगवान ही है। ऐसा ही अन्य के विषय में मानना चाहिए। प्रभु की विभूतियों पर विचार करने से और उन्हें समझने से मन शान्त होता है और वह प्रभु की व्यवस्था के अनुरूप कार्य करने के लिए प्रेरित होता है। उपरोक्त बीसों विभूतियां हमें साक्षात दिखाई नहीं देतीं, पर ये होती हैं। इन विभूतियों को सूक्ष्म विभूति कहा गया है। इसके पश्चात स्थूल विभूतियां भी हंै। जिनके लिए श्रीकृष्ण जी कह रहे हैं कि पुराने सात महर्षि और चार मनु मेरे मानव भाव हैं। उन्हीं से इस लोक में ये सब प्राणी उत्पन्न हुए हैं।
जब यह सृष्टि उत्पन्न हुई तो इसमें उस विधाता परमेश्वर का ईक्षणभाव कार्य कर रहा था। उसके तप से, ईक्षणभाव से, संकल्प से यह सृष्टि अत्यन्त उत्पन्न हुई और इसने आगे अपना कार्य करना आरम्भ किया। सबसे पहले जो प्राणी संसार में आये उन्हें ‘प्रथमजात’ कहा गया है। ये अमैथुनी सृष्टि के प्राणी थे। इन्हें माता-पिता की आवश्यकता नहीं थी, ये तो स्वयं माता-पिता बनने के लिए सीधे भगवान ने भेजे। भगवान द्वारा भेजे होने के कारण ये ईश्वर के मानसभाव हुए। इनके मानसभाव होने से इनकी संतति भी ईश्वर का मानस भाव ही हैं। अत: सभी प्राणी ईश्वर के मानसभाव हैं। ऐसे में यह भी ईश्वर की एक विभूति ही है। जो इस विभूति को जान जाता है, उसके लिए श्री कृष्ण जी का मानना है कि वह अविचल योग से युक्त हो जाता है।
अविचल योगी योग में लेते हैं आनन्द।
विभूति मेरी जानकर दूर करें सब द्वन्द्व।।
योग से आनन्द की प्राप्ति और सब प्रकार के द्वन्द्वों का विनाश होता है।
भक्ति योग और ज्ञान योग
इस चराचर जगत की उत्पत्ति का कारण परमपिता परमात्मा को मानकर जो लोग उस अविनाशी का स्मरण-भजन करते हैं, वे बुद्घिमान कहे जाते हैं। श्रीकृष्णजी का कहना है कि जो लोग मेरे प्रति अपने प्राणों को अर्पण कर देते हैं, मुझमें चित्त लगा लेते हैं-नित्य मेरा ही गुणगान गुण संकीर्तन करते हैं-वे सन्तोष से भरे रहते हैं और आनन्द में रमते रहते हैं।
ईश्वर को सर्वस्व समर्पण करके सन्तोष और आनन्द की प्राप्ति के लिए ही हमारे यहां यज्ञों में तीन समिधाएं दी जाती हैं। उन तीनों समिधाओं में से हम पहली को पृथ्वी लोक के लिए, दूसरी को अंतरिक्ष लोक के लिए तथा तीसरी समिधा को द्युलोक के लिए समर्पित करते हैं। इस प्रकार अपना सर्वस्व समर्पित करने का भाव वहां है। इसे दूसरे शब्दों में ऐसे भी कहा जा सकता है कि मेरा इस पृथ्वी, अंतरिक्ष और द्युलोक में जो कुछ भी है-वह तुझे ही समर्पित है। मैं अपनी तीनों ऐषणाओं अर्थात पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा को तेरे ही समर्पित कर रहा हूं। मैं आत्मा एक समिधा हूं और परमात्मा ‘जातवेद्स’ अग्नि है।
क्रमश: