गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-59
गीता का दसवां अध्याय और विश्व समाज
ऐसी उत्कृष्ट श्रद्घाभावना के साथ जो लोग ईश भजन करते हैं-उनके लिए गीता का कहना है कि उन्हें मैं (भगवान) बुद्घि भी ऐसी प्रदान करता हूं कि जिसके द्वारा वे मेरे पास ही पहुंच जाते हैं। उन पर अपनी अनुकम्पा करने के लिए मैं उनके आत्मा के भाव अर्थात उनकी बुद्घि में स्थित होकर ज्ञानरूपी प्रकाशमय दीपक से अज्ञान से उत्पन्न होने वाले अन्धकार को नष्ट कर देता हूं।
हिय सिंहासन विराजते हों जिनके भगवान।
अन्धकार सारा मिटे और रह जाता है ज्ञान।।
जब हृदय सिंहासन पर प्रभु विराजते हैं अर्थात भक्त के द्वारा पूर्ण समर्पण के साथ हृदय ईश्वर को सौंप दिया जाता है तो उस समय इसमें सांसारिक विषयों के लिए स्थान रहता ही नहीं है। कबीर कहते हैं-
जब मैं था तब हरि नहीं जब हरि हैं हम नाहीं।
प्रेम गली अति सांकरी ता में दो न समाहीं।।
इसलिए श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि हृदय मुझे सौंप दोगे तो मैं तुम्हारे हृदय में विद्यमान अन्धकार को नष्ट कर दूंगा। ऐसा करने से तुम हल्के हो जाओगे और तुम्हारे भार को मैं उठा लूंगा।
अर्जुन की आंखें खुलीं
श्रीकृष्णजी अपनी अनोखी और अद्भुत शैली में अर्जुन को अपने प्रवचनों के माध्यम से झकझोरने का कार्य कर रहे हैं। उसे जगाना चाहते हैं। अर्जुन को उसका लक्ष्य बता देना चाहते हैं। भटके हुए अर्जुन को सही मार्ग पर ले आना चाहते हैं। इतनी सुन्दर और प्रवचनात्मक शैली में कही गयी बातों को सुनकर अर्जुन की आंखें खुलती हैं। अब गीताकार उसकी चेतना से उठते प्रश्न की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है।
अर्जुन कहता है कि-‘हे परमपिता परमेश्वर! इस सृष्टि के आदिकारण तू परब्रह्म है, परम पवित्र है, शाश्वत दिव्य पुरूष है, आदिदेव है, अज है और विभु है। हमारे अब तक के ऋषियों ने भी हमें ऐसा ही बताया है जैसा आज श्रीकृष्णजी ने बताया है। तब वह कहता है कि हे केशव! जो कुछ तूने मुझे बताया है इस सबको मैं सत्य समझ रहा हूं। सचमुच भगवान के व्यक्तित्व को न देव जानते हैं और न दानव अर्थात तेरे व्यक्तित्व को न देव जानते हैं और न दानव।’
हे पुरूषोत्तम! हे जड़ चेतन के उत्पन्न करने हारे, हे जड़ चेतन के स्वामी, हे देवों के देव, हे जगत के स्वामी तू स्वयं ही अपने द्वारा अपने आपको जानता है।
यहां अर्जुन ईश्वर की विशालता का बोध कर रहा है। वह समझ गया है कि ईश्वर काल से भी विशाल है और इतना विशाल है कि उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। वह इस पृथ्वी लोक, अन्तरिक्ष लोक और द्युलोक सभी से विशाल है और फिर भी दिखता नहीं, इन सबको धार रहा है पर फिर भी देहधारी नहीं है। उसकी विभूति का रहस्य अर्जुन पर प्रकट होने लगा है कि वह इस पृथ्वी में रहता हुआ भी इससे अलग है और पृथ्वी उसका शरीर सा है।
बृहदारण्यक-उपनिषद की यह बात अर्जुन को भीतर से आन्दोलित कर रही है और वह कहने लगा है कि-हे जगत के स्वामी तेरे सामने सब असफल हो जाते हैं, सबकी कान्ति क्षीण हो जाती है, तू स्वयं ही अपने द्वारा अपने आपको जानता है। अर्जुन कहने लगा है कि तू अपनी उन विभूतियों को जिनके द्वारा तू इन सब लोकों को व्याप्त करके ठहरा हुआ है, मुझे बता। मुझे यह भी बता कि तेरा चिन्तन करते हुए मैं तुझे कैसे पहचान सकता हूं? हे भगवान! किन-किन विविध रूपों में मुझे आपका चिन्तन करना चाहिए? और मुझे बता कि तेरी इस विभूति और योगशक्ति का विस्तार क्या है? क्योंकि जितना आपने बताया है उससे मेरी तृप्ति नहीं हो रही है। पर आनन्द आ रहा है, इसलिए भीतर से आवाज आ रही है कि अभी और, अभी और। वास्तव में श्रीकृष्णजी ने इस समय अर्जुन को भीतर तक झकझोर दिया है। अर्जुन अब तक के गीतामृत से सराबोर हो चुका है। उसके भीतर आनन्दरस की वर्षा होने लगी है। वह अमृत वर्षा से भीग चुका है और न केवल भीग चुका है अपितु अब इस अमृतवर्षा का इतना दीवाना हो चुका है कि अब वह-‘अभी और-अभी और’ की मांग करने लगा है। वह परमपिता परमात्मा के अमृतरस की बूंदों में भीगकर असीमानन्द की अनुभूति करने लगा है और श्रीकृष्ण जी से कहने लगा है कि-इस अमृत रस की वर्षा को रोको मत, इसे और भी अधिक होने दो।
कृष्णजी ने बतायी भगवान की विभूतियां
अर्जुन की जिज्ञासा को समझकर श्रीकृष्णजी ने भी समझ लिया कि अब लोहा पूर्णत: गरम हो चुका है। इसलिए अब हथौड़ा मारना ही उचित है। शिष्य की जिज्ञासा पर सही समय पर यदि शिक्षक ज्ञान का हथौड़ा न मारे तो यह शिक्षक की असफलता होती है। श्रीकृष्णजी इस अवसर को चूकने वाले नहीं थे। अत: उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा-
‘हे कुरूकुल में श्रेष्ठ अर्जुन! बहुत अच्छा, मैं अब तुझे अपनी दिव्य विभूतियों का रूप दिखाऊंगा। परन्तु ध्यान रखना कि मैं जो कुछ दिखाने या बताने जा रहा हूं वह केवल मेरी विभूतियों के विषय में ही होगा, क्योंकि मेरे विस्तार का तो कहीं अन्त नहीं है।’
सचमुच ईश्वर की थाह लेना या उसके साम्राज्य का पार पाना किसी के वश की बात नहीं है। श्रीकृष्णजी ने भी इस विषय में अपनी असमर्थता प्रकट कर दी, पर उन्होंने अर्जुन से यह अवश्य कहा कि ईश्वर के गुणगण पर चिन्तन अवश्य किया जा सकता है। उसका गुणगण स्वरूप ही उसे गुण-निधान बनाता है, विभूतियों से पूर्ण बनाता है, विभूतियों का दिव्य स्रोत बनाता है।
इस पर वह कहते हैं कि अर्जुन मैं सभी प्राणियों के हृदय में बैठा हुआ आत्मा हूं। मैं ही उनका आदि और अन्त हूं।
आत्मा का आत्मा होने से परमात्मा निराकार है। वह किसी को दिखायी नहीं देता। यद्यपि उसका रूप जगत में सर्वत्र भासता है, उसे इसी भासने वाले स्वरूप के द्वारा अनुभव किया जा सकता है। ऋग्वेद (6/47/18) में ईश्वर के विषय में कहा गया है-‘रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव-‘ अर्थात प्रत्येक रूप में उसी के अनुसार अनुरूप हो जाता है। वह मनुष्य के शरीर में मनुष्य जैसा भासता है तो अमीबा के शरीर में अमीबा जैसा भासता है। वैसी ही गति और चेष्टा करता है। जबकि हाथी के शरीर में वह आत्मा का आत्मा परमात्मा हाथी जैसा भासता है।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि आदित्यों में विष्णु मैं हूं, ज्योतियों में दमकता हुआ सूर्य मैं हूं, मरूदगण में मरीचि मैं हूं, नक्षत्रों में चन्द्रमा मैं हूं। वेदों में मैं सामवेद, देवों में इन्द्र, इन्द्रियों में मन, और प्राणियों में चेतना मैं हूं। रूद्रों में शंकर, यक्ष और राक्षसों में कुबेर, वसुओं में अग्नि, पर्वतों में मेरू मैं हूं। पुरोहितों में बृहस्पति, सेनानायकों में कार्तिकेय, जलाशयों में समुद्र मैं हूं।
महर्षियों में भृगु मैं हूं वाणी में ओंकार यज्ञों में जप, यज्ञ स्थावरों में हिमालय मैं हूं। वृक्षों में पीपल, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ, सिद्घों में कपिल मुनि मैं हूं।
घोड़ो में अमृतमन्थन के समय निकला हुआ ‘उच्चै:श्रवा’ घोड़ा मैं हूं और हाथियों में इन्द्र का हाथी ऐरावत मैं हूं जबकि मनुष्यों में राजा मैं हूं।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत