आनंदमय लोक को पाने के लिए हमें सच्चे गुरु की आवश्यकता होती है
ऋषिराज नागर (वरिष्ठ अधिवक्ता)
मनुष्य की आयु जन्म लेने के उपरान्त क्षण-क्षण/पल-पल कम होती जा रही है। मनुष्य के जन्म लेने के बाद4 बचपन का समय बिना सोचे समझे ही गुजर जाता है, उसके बाद हम विद्या अर्जन ( पठन-पाठन) में अपनी आयु के करीब 20-25 वर्ष निकाल देते हैं। तदुपरान्त यौवन में अपनी घर- -गृहस्थी में, अपनी आयु का अधिकांश भाग खर्च कर देते हैं, जैसे ही हम अपनी खास-खास जिम्मेवारियों, पूरा करते हैं उदाहरण के तौर पर बच्चों को पढ़ाना-लिखाना, अपना घर – बार तैयार करना, बच्चों की शादी – ब्याह करना, उनका कारोबार चलाना आदि ‘में हम काफी समय अपनी आयु का निकाल देते हैं, इसके बाद हमें बुढ़ापा कब आ गया ? हमे अहसास तक नहीं होता है। ऐसे में सन्त चरणदास जी कहते है कि-
समझौ रे भाई लोगो समझौ रे,
अरे यहां नहीं रहना करना अंत पयाना।
ऐसे में हमें इसी जन्म में ही प्रभु या परमात्मा को याद करना है। हम दिन की शुरुवात परमात्मा या मालिक या ख़ुदा या God उसे जैसा भी कहें, से शुरू करें। हम मानते हैं, उसके नाम या शब्द दो रूप में माना है, परमात्मा का ‘नाम’ सन्त-महात्माओं एक नाम वर्णनात्मक है। जिसे जिव्हा से बोला या पढ़ा जा सकता है जैसे राम, रहीम, खुश, राधास्वामी, स्वामी, god आदि-आदि। दूसरा काम परमात्मा का नाम ध्वन्यात्मक है। जिसे बोला या पढ़ा नहीं जा सकता है, केवल अनुभव किया जा सकता है वैसे ध्वन्यात्मक नाम भजन- सुमिरन के द्वारा राग देने पर प्रकट होता है।
सन्त महात्मा कहते हैं कि जब तन और मन स्थिर होते हैं, ‘ तो नाम या शब्द ‘ से जीव जुड़ जाता है । सन्त स्पष्ट करते हैं कि गुरु के शब्द के बिना मन स्थिर नहीं होता है ।
“कोटि जतन से यह मन नहीं माने।
धुन सुनकर मन समझाया॥
संतो के अनुसार मनुष्य शब्द या नाम का रस प्राप्त करके ही अपने आप को पहचान सकता है ।प्राप्त करके ही अपने आप को पहचान सकता है। परमपिता परमेश्वर के निज नाम ओम के सुमिरन में जो आनंद प्राप्त होता है वह वर्णनातीत है। उसके आनंद को केवल अनुभव किया जा सकता है। हमारे ऋषि महात्मा इसी ध्वन्यात्मक शब्द को अर्थात परमपिता परमेश्वर के नजर नाम को रटते रटते आनंद में लीन हो गए।
परमात्मा एक है, और ‘शब्द’ के रूप में सारी सृष्टि में व्याप्त है और घट में व्याप्त है, “शबदे धरती शबदे आकाश, शबदे शबद भया प्रकाश ।
सारी सृष्टि शबद के पाछै।
नानक नाम घटै घट औछे॥
‘घट घट मेरे साइया, सुनी सेज ना कोये,
बालेहारी इस घट की जा, घट प्रगट होय।
नाम या शब्द का सुमिरन-भजन पूरे सतगुरु से प्राप्त,होता है। उसमें गुरु की अपनी अपार शक्ति होती है। ‘मौलाना रूम का कलाम है –
” तू नाम का जिक्र बगैर जुबान और तालू के कर”
इससे आत्मा आँखों के केन्द्र पर आती है और सुमिरन करने वाला नाम या शब्द से जुड़ जाता है ।
सिमरि-सिमार हरि हरि मन गाइऐ,
यह सुमिरन सतगुरु ते पाईए ”
यहां यह कहना भी उचित है कि जिस जीव (प्राणी मनुष्य को प्रभु या मालिक की जरूरत है उसकी जिज्ञासा है वही इस मार्ग को खोजकर चलता है अन्यथा –
जिन ढूढ़ा तिन पाईया गहरै पानि पैठि
मै बोरि बडन डरि रहि किनारे बैठि
संत कबीर साहिब-
झूठे सुख को सुख कहैं, मानत है मन मोद।
जगत चबेना कॉल का कुछ मुख में कुछ गोद॥
कबीर गर्व न कीजिये. काल गहै कर केस ।
ना जानौं कितमारि है क्या घर क्या परदेस ।।
गुरु अजुन्दन जी –
मत को भरम भूलै संसार
गुरु बिन कोई न उतरस पार।”
परमपिता परमेश्वर के इस आनंदमय लोक को पाने के लिए हमें सच्चे गुरु की आवश्यकता होती है।गुरु वही होता है जो अंधकार को मिटाकर हमें ज्ञान के प्रकाश में ले जाता है। ऐसा सद्गुरु प्राप्त हो जाना बड़े सौभाग्य की बात होती है। जो गुरु हो करके भी अंधकार में भटकाये, वह गुरु नहीं होता। पाखंड, ढोंग, अविद्या, अज्ञान को मिटाकर सत्य के प्रकाश से रूबरू कराने वाला गुरु होता है।