न्यायतंत्र बनाम राजतंत्र से लोकतंत्र खतरे में

के. विक्रम राव

यदि सर्वोच्च न्यायालय और संसद परस्पर उदार सहयोग करने पर गौर नहीं करते हैं तो भारत के संवैधानिक इतिहास में भयावह विपदा की आशंका सर्जेगी। न्यायपालिका और विधायिका का आमना-सामना तीव्रतर होना लोकतंत्र पर ही प्रश्न लगा देगा। राज्यसभा में NJAC (जजों की नियुक्ति-आयोग) पर कड़वी बहस से ऐसे ही आसार उभरे हैं। संसद ने जिद कर लिया है और सर्वोच्च न्यायालय ने समाधान सुझाया नहीं। संघर्षण के काले बादल घने हो चले हैं।

मुद्दा यह है कि जजों को उन्हीं का अपना कालेजियम ही नियुक्त करेगा ? अर्थात बायें हाथ ही दायें हाथ को आदेश थमा देगा ? आवेदक स्वयं नियोक्ता हो जायेगा ? यह अवांछनीय के अलावा अतार्किक भी है। न्यायसंगत तो कतई नहीं।

प्रधान न्यायाधीश से वाजिब निर्णय की संभावना प्रबल है। इसके परिस्थितिजन्य कारण भी हैं। बेबाक निर्णयों के लिए मशहूर न्यायमूर्ति धनंजय चंद्रचूड़ ने अपने पिता यशवंत चंद्रचूड़ का 1976 (आपातकाल) में दिया अमानवीय निर्णय पलट दिया था। तब साल 1976 में शिवकांत शुक्ला बनाम ADM जबलपुर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निजता को मौलिक अधिकार नहीं माना था। उस बेंच में पूर्व न्यायमूर्ति वाईवी चंद्रचूड़ भी थे। बाद में 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने निजता को मौलिक अधिकार माना। युवा चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में लिखा कि ADM जबलपुर मामले में बहुमत के फैसले में गंभीर खामियां थीं। संविधान को स्वीकार करके भारत के लोगों ने अपना जीवन और निजी आजादी सरकार के समक्ष आत्मसमर्पित कदापि नहीं किया है।

प्रधान न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड़ खुली अदालत में गरज चुके हैं कि : “तारीख पर तारीख” वाली हमारी छवि मिटानी है।” ताजा शासकीय आंकड़ों के अनुसार करीब पांच करोड़ मुकदमें अभी कोर्टों मे पड़े हैं। इनमें सर्वोच्च न्यायालय में ही 65,598 लंबित हैं। तुलना में राष्ट्रभर में नीचे से सर्वोच्च अदालत तक 25,011 न्यायाधीशों के पद हैं, जिनमें केवल 19,192 ही कार्यरत हैं। विधि मंत्री किरण रिजिजू के राज्यसभा में दिये गए बयान के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में साल भर में मात्र 224 कार्य दिवस हैं और उच्च न्यायालयों में औसत 210 दिन हैं। काम के घंटे भी दस से शाम पांच तक हैं। इस पर संसद सदस्यों ने मांग की कि दोनों बढ़ाएं जायें ताकि मुकदमें घटें।

इन बिंदुओं पर राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ (उपराष्ट्रपति) और मंत्री किरण रिजिजू के हाल वाले वक्तव्यों से समस्या की गंभीरता रेखांकित हुई है। कुछ गौरतलब बिंदु उठते हैं। लंबे निर्णय लिखने की अपरिहर्यता कितनी है ? अखबार के सबएडिटर की भांति आदेश काफी नपेतुली ही हों। वैकल्पिक माध्यमों के द्वारा अदालत में जिरह के बजाय, बाहर ही उनका निपटारा कर दिया जाए। परामर्श की पद्धति के प्रयोग से याचिका अनावश्यक हो जाएगी। मसलन दिल्ली की बस में बिना टिकट एक यात्री (1982 में) कश्मीरी गेट पर पकड़ा गया। मुकदमा चला और 13 साल बाद फैसला (7 अक्टूबर 1995) को हुआ। इस विषय पर पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कहा था : “संपूर्ण न्याय प्रक्रिया ही अपनी प्रासंगिकता खो बैठेगी यदि त्वरित राहत नहीं दी गई।”

इस बीच भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय का बता दिया कि जजों की नियुक्ति पर कोई समय सीमा हेतु राष्ट्रपति को बाध्य नहीं किया जा सकता है। अर्थात इससे टकराहट तीव्रतर होगी। इसीलिए नियुक्ति के लिए तीन से चार महीनों का वक्त सरकार को सुझाया गया था।

इस परिवेश में (अब रिटायर्ड) न्यायमूर्ति जस्ती चल्मेश्वर के असहमति वाला आदेश पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है। उन्होंने जजों की नियुक्ति वाले कानून को बहुमत से अवैध मान्यता देने वाले आदेश का जोरदार विरोध किया था। हालांकि अन्य चार जजों ने बहुमत से इसे मान्य कर दिया था। न्यायमूर्ति चल्मेश्वर की राय में जजों की चयन-प्रक्रिया का कालेजियम द्वारा होना बिलकुल अनुचित है। उनके आकलन में संसद द्वारा अंगीकृत यह मूल विधेयक निससंदेह कानूनी रूप से सही है। कालेजियम में पारदर्शिता का अभाव है। व्यावहारिक दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है। न्यायमूर्ति चल्मेश्वर ने कहा भी कि जजों के चयन में सरकार को भी शामिल करना आवश्यक है।

भारत की न्याय प्रणाली ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की देन है। इसमें न्यायप्रियता कम और पद्धति पर बल ज्यादा दिया गया है। प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था पर गौर करें। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में ढाई हजार वर्ष पूर्व लिखा था कि न्यायमूर्ति लोकास्था को ध्यान में रखकर आदेश पारित करेंगे। नीतिशास्त्र में शुक्राचार्य ने स्पष्ट किया है कि न्यायाधीश अत्यंत ईमानदार लोग ही नामित हों। आचार्य बृहस्पति ने अपनी स्मृति में उनको निजी हितों से ऊपर उठने का आग्रह किया था।

अतः यह पूरा मसला असाधारण है। नतीजन इसका समाधान भी असाधारण तरीके से ही होगा। स्वयं नीति आयोग कह चुका है कि विश्व में सर्वाधिक मुकदमे भारतीय अदालतों में लंबित हैं। इन पौने पांच करोड़ याचिकाओं पर निर्णय देते लगभग 324 वर्ष का समय लग जाएगा। तो प्रगतिशील न्यायमूर्ति धनंजय चंद्रचूड़ और निपुण विधिवेत्ता कानून मंत्री किरण रिजिजू को भारत राष्ट्र को जवाब देना होगा कि याचिकाकर्ताओं को न्याय कब तक, किस तारीख तक दिया जाएगा ? वरना इतिहास गवाह है कि अन्याय और विलंबित न्याय के फलस्वरूप रक्तरंजित क्रांतियां हुई हैं। (युवराज)

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