वेद के गणतंत्र की उच्च भावनाएं
आर्य समाज का सिद्घांत है कि सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदिमूल परिमेश्वर है। साथ ही यह भी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढऩा-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परमधर्म है। महर्षि दयानन्द जी महाराज ने आर्य समाज के लिए ही नहीं-अपितु मानव मात्र के लिए यह सिद्घान्त प्रतिपादित किया और संसार के लोगों को झकझोरा कि हे संसार के लोगों! यदि वास्तव में अपना कल्याण चाहते हो, यदि वास्तव में विज्ञान और विज्ञान के रहस्यों की जानकारी लेना चाहते हो तो वेद की शरण में आ जाओ। वहीं तुम्हें वास्तविक शान्ति मिलेगी। अनेक मतों में भटककर अपनी आत्मा को कष्ट मत दो, अपितु ईश्वर के एक मत=वेदमत=वैदिक धर्म में अपनी निष्ठा व्यक्त करो और जीवन के अभीष्ट (मोक्ष) की प्राप्ति कर अनिष्ट से अपने आपको बचाओ।
भारत के 68वें गणतंत्र दिवस की पावन बेला है। मैंने सोचा कि अपने सुबुद्घ पाठकों के लिए कोई ऐसी भेंट इस अवसर पर दी जाए जो उन्हें गणतंत्र के पुजारी इस भारत देश की सनातन ज्ञान परम्परा से जोड़े और उन्हें आनन्दित व रोमांचित कर डाले। इसी क्रम में यह आलेख तैयार हो गया।
ऋग्वेद (10/164/4) में आया है -‘अस्थन्वन्तं यदनस्था बिभर्ति।’-अर्थात हड्डियों वाले को हड्डी रहित धारण करता है। वेद ने बड़े पते की बात कह दी है। विज्ञान संगत और तर्कसंगत बात कह दी है। चिन्तन करने से पता चलता है कि वेद यह बात आत्मा के और शरीर के बारे में कह रहा है। उसने हड्डी को ‘अस्था’=अस्थिवाला कहा है और उसे धारण करने वाले आत्मा को ‘अनस्था’ कहा है, क्योंकि उसमें हड्डियां नहीं हैं। जो अस्थियों वाला है, उसके पास एक आधार है, टिकने का, स्थिर रहने का एक ढांचा है, एक भूमि है, जिसे देखकर उस ‘अस्था’ (अस्थियुक्त) को हम देख सकते हैं। पर हम ‘अनस्था’ को नहीं देख सकते। क्योंकि उसके पास देखने के लिए या टिकने के लिए कुछ ठोस नहीं है-आधारभूत साकार ढांचा नही है। वह इन चर्मचक्षुओं से नहीं दीख सकता, वह तो अन्तश्चक्षुओं का विषय है। सारे संसार का दोष ही ये है कि यह ‘अस्था’ में अटक-भटक गया है ‘अनस्था’ के बारे में तो सोचेने के लिए भी इसके पास समय नहीं है।
यह ‘अस्था’ शब्द ही ‘आस्था’ को जन्म देता है। आस्था में भी एक ठहराव है, धारण करने की शक्ति है। जैसे ‘अस्था’ हमारे भीतर एक विश्वास पैदा करती है, वैसे ही आस्था स्वाभाविक रूप से आस्था का प्रतीक बन जाती है। आस्था से मन का भटकाव रूकता है, उसमें ठहराव आता है, स्थिरता आती है। अब इस वेदमंत्र के आलोक में ‘स्थ’ धातु का अवलोकन करें, यह जहां-जहां भी लग जाती है वहीं-वहीं ठहराव की ओर संकेत करने लगती है। इससे जितने भर भी शब्द बनते हैं वे सब के सब ‘अस्था’=अस्थि वाले=ठहराव वाले जान पड़ते हैं।
देखें-स्थग=जालसाज, बेईमान (इसी स्थग् से ही ‘ठग’ शब्द बन गया है) स्थग का एक अर्थ परित्यक्त भी है। संस्कृत में ‘स्थगिका’ वेश्या के लिए कहा जाता है उसका कोठा-ठिकाना इसी शब्द से बना है। स्थण्डिल=यज्ञ के लिए स्थिर की गयी चौकोर भूमि को कहा जाता है। स्थगित =का अभिप्राय रोक देना है, स्थगी=पान की डिबिया को कहा है। स्थापति = राजा को और बढ़ई या वास्तुकार को कहा जाता है। ‘स्थपुट’ ऐसे स्थान को कहा जाता है जो ऊबड़-खाबड़ हो, स्थल = दृढ़तापूर्वक स्थिर रहना, अडिग और अटल रहना। स्थलम्=कठोर या शुष्क भूमि, सूखी जमीन। स्थला=ऊंची की हुई सूखी जमीन/स्थलेशय=सूखी जमीन पर सोने वाला व्यक्ति। स्थावर = एक ही स्थान पर टिका हुआ। स्थूल=भारी भरकम मोटा। स्था=खड़ा होना, एक आधार प्राप्त करना, ठहरना, डटे रहना स्थापित=किसी को खड़ा करना, एक आधार प्रदान करना, ठहराना। स्थानकम्=एक अवस्था। स्थानत:=अपनी अवस्था या स्थिति के अनुसार। स्थानिक =किसी स्थान विशेष से संबंध रखने वाला। इसी को ‘स्थानीय’ भी कहा जाता है। स्थापक=नींव रखने वाला, आधार देने वाला, टिकाने या ठहराने वाला। स्थापत्य=अंत:पुर का रक्षक। ‘स्थापनम्’= खड़ा करने की क्रिया। स्थापना=रखना, जमाना, नींव रखना। स्थालय= थाल या थाली। स्थित=खड़ा हुआ। स्थिति= खड़े होने की एक अवस्था। स्थिर=मजबूत, जमा हुआ। इसी स्थिर से ‘स्थिर-चेतसु’, ‘स्थिर-धी’, ‘स्थिर-बुद्घि’ , ‘स्थिर-मति,’ ‘स्थिर आयुस,’ स्थिर जीवन, आदि शब्द बने हैं। प्रतिज्ञ, प्रतिबन्ध, यौवन, फला, योनि आदि के साथ भी ‘स्थिर’ लगते ही एक अवस्था की ओर हमारा ध्यान जाता है, जिसमें ठहराव होता है।
संस्कृत की ‘स्थ’ धातु को अंग्रेजी वालों ने ‘स्ट’ के रूप में प्रयोग किया तो वहां भी इस ‘स्ट’ (ह्यह्ल) के लगते हैं ‘शब्द’ की ध्वनि में ठहराव आ जाता है। जैसे=स्टेशन, स्टैण्ड, स्टॉप, स्टे आदि।
अब पुन: अपने वेद की उपरोक्त सूक्ति के चिन्तन पर आते हैं। इस सूक्ति ने जहां ‘स्थ’ धातु की संस्कृत भाषा में उपयोगिता औचित्य, महत्व और अनिवार्यता को स्पष्ट किया है, वहीं हमें वैज्ञानिक दृष्टि कोण भी दिया है। जिसे यह संसार समझने में आज तक भी असफल रहा है। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि यह स्थूल=अस्था, न दीखने वाले ‘अनस्था’ पर टिका है। यह सारा संसार ‘अस्था’ है तो इसका ‘अनस्था’ ईश्वर है। हमारा वेद ‘गॉड पार्टिकल’ के होने का सृष्टि प्रारम्भ में ही घोषणा कर रहा है और यह अज्ञानी संसार आज 21वीं शताब्दी में ‘गॉड पार्टिकल’=’अनस्था-तत्व’ =परमात्म तत्व की खोज कर रहा है। वेद कह रहा है कि जो दीख रहा है-वह न दीखने वाले पर टिका है और यह जो दीखने वाला है, न इससे वह न दीखने वाला कहीं अधिक शक्तिशाली है। हे मानव! तू उसी की खोज कर- जो ‘अनस्था’ है, बिना हड्डियों वाला है, आत्मा है और जो इस ब्रह्माण्ड की आत्मा के रूप में परमात्मा के नाम से इसमें प्राणों का संचार कर रहा है।
संसार ‘अस्था’ में भटकता रहा और ‘अस्था’ की अर्थात शरीर की पूजा करता रहा, इसके साज -श्रंगार को ही बड़ी उपलब्धि मानता रहा है। इसलिए संसार के लोग अपनी उपलब्धियों पर इतराने लगे। मानव ने आसमान से बातें करनी आरंभ कीं, चांद पर अपनी पताका फहराई, मंगल से बातें करने लगा, समुद्र की गहराई को खोज डाला। संसार का कोई कोना नहीं छोड़ा जहां इसने अपना कदम नहीं रखा।
पर वेद कह रहा है कि अरे भोले मानव! तू इस ‘अस्था’ को छोडक़र ‘अनस्था’ की ओर चल। ‘गॉड पार्टिकल’ की ओर चल। वहां तुझे आनंद मिलेगा। वह हड्डियों से रहित है। वह तेरे सारे चिकित्सकीय उपकरणों से भी चीरा-फाड़ा नहीं जा सकता। उसके लिए दिव्य चक्षु वाला बन। आनन्द आ जाएगा।
वेद की उपरोक्त सूक्ति भारत की संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता की पुष्टि कर रही है। यह इस सूक्ति के अध्ययन का पहला लाभ है। जबकि दूसरा लाभ चिन्तन को विस्तार देने से मिलता है। जब हम शरीर=’अस्था’ को यह ब्रह्माण्ड और ‘अनस्था’ आत्मा को इस ब्रह्माण्ड के अधिपति परमेश्वर के रूप में समझने लगते हैं। यह दूसरा लाभ है कि हम स्थूल से हटकर सूक्ष्म की ओर चलने लगते हैं।
अपने गणतंत्र दिवस के इस पावन अवसर पर हम चिन्तन करें कि हमारा वेद का गणतन्त्र कितना पवित्र है, जो हमें ‘अस्था’ और ‘अनस्था’ का भेद बताता है और फिर ‘अस्था’ से ‘अनस्था’ की ओर चलने के लिए प्रेरित करता है। वेद का यह सन्देश भारत के गणतंत्र की वास्तविक महानता की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट कर रहा है। कह रहा है कि हे मानव! तू ‘अस्था’ से=स्थूल से=अज्ञान से, अंधकार से, अनस्था=सूक्ष्म की ओर, ज्ञान के प्रकाश की ओर चल। ‘तमसो मा ज्योर्तिगमय’ कहने वाला भारत का गणतंत्र संसार में सचमुच निराला और अनोखा है। इसका लक्ष्य अपने प्रत्येक नागरिक को अस्था से हटाकर अनस्था की ओर ले चलना है, स्थूल से सूक्ष्म की ओर चलना है, अज्ञानान्धकार से प्रकाश की ओर ले चलना है। इसकी बराबरी विश्व का कोई भी गणतंत्र नहीं कर सकता।
भारत के लोगों को विदेशी भाषा अंग्रेजी का व्यामोह छोडक़र निज भाषा अपनानी चाहिए। जैसे ही देश में संस्कृत की संस्कृति की मन्द सुगंध समीर बहने लगेगी तो न तो विद्यालयों में कोई छात्र अपने सहपाठी की हत्या करेगा न कोई छात्रा छुट्टी कराने के लिए किसी मासूम छात्र को चाकुओं से गोदेगी और ना ही कोई छात्र अपने प्रधानाचार्य की हत्या करेगा। अपनी भाषा वह भाषा है जो एक गाली भी देना नहीं सिखाती। सचमुच प्यार की भाषा=संस्कृत और सचमुच प्यार भरी संस्कृति=वैदिक संस्कृति। आइये अपने गणतंत्र पर इसी प्यार की भाषा संस्कृत और प्यार भरी संस्कृति वैदिक संस्कृति को अपनाने का संकल्प लें। आपको गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाइयां और मंगलकामनाएं।
मुख्य संपादक, उगता भारत