फतवा देने वाले काजियों के शहर की ईंट से ईंट बजा दी थी बंदा बैरागी ने
एक संत का सदुपदेश और हमारी स्वराज्य साधना
एक संत प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन के समय एक जिज्ञासु ने एक जिज्ञासा व्यक्त करते हुए संत से प्रश्न किया-‘मेरी ध्यान में रूचि क्यों नही होती?’
संत बोले, -‘ध्यान में रूचि तब आएगी जब व्यग्रता से उसकी आवश्यकता अनुभव करोगे।’
तब उन्होंने एक प्रसंग सुनाया कि एक सियार को बड़ी जोर से प्यास लगी थी। वह व्याकुल होकर नदी किनारे गया और पानी पीने लगा। पानी के लिए सियार की तड़प देख कर मछली ने पूछा-‘बंधु तुम्हें पानी पीने में इतना मजा क्यों आता है? मुझे क्यों नहीं आता?’
सियार ने तत्काल मछली को पकडक़र तपती रेत पर फेंक दिया। मछली बिन पानी छंटपटाने लगी। बेहाल हो गयी, मृत्यु के सर्वथा निकट पहुंच गयी। तभी सियार ने उसे पुन: पानी में डाल दिया। मछली की जान में जान आई। बोली-”हां अब पता चला कि पानी ही मेरा जीवन है। इसके बिना जीना असंभव है।”
‘मछली की भांति जब मनुष्य व्यग्रता से ध्यान की आवश्यकता अनुभव करेगा, तभी उसके बिना रह नहीं पाएगा। रात-दिन उसी में लीन रहेगा। इसलिए साधना की सघनता के लिए पहले अपने भीतर उसकी आवश्यकता और उसके लिए व्यग्रता अनुभव करनी होगी।’
अब भारत के विषय में एक प्रश्न कि स्वतंत्रता की इतनी कठोर और दीर्घ साधना हमने ही क्यों की? इसका उत्तर इसी दृष्टांत की समीक्षा से मिलेगा, और वह यह कि हमने स्वतंत्रता के लिए व्यग्रता उत्पन्न की। हमें सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते हर समय और हर स्थान पर स्वतंत्रता की साधना का भूत चढ़ गया था। इसका एक कारण यह भी था कि हमने विश्व को स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ समझाया था, इसलिए जब हमारी स्वतंत्रता पर विदेशी गिद्घों ने झपट्टा मारा तो विश्व में सर्वाधिक विरोध उस झपट्टा का हमने ही किया। इसीलिए फ्रेंच विद्वान जैकालियट ने बाइबल इन इंडिया में कहा है-”प्राचीन भारत भूमे! सभ्यता के हिंडोले तुझे नमस्कार है। पूज्य मातृभूमे! तुझे शताब्दियों तक होने वाले असभ्य पाशविक एवं बर्बर आक्रमण की विस्मृति के गढ्ढे में दबाने में असमर्थ रहे हैं। अत: तुझे प्रणाम श्रद्घा, प्रेम-कला और विज्ञान के जनक भारतवर्ष! तेरा अभिवादन है, प्रभु कृपा करें कि निकट भविष्य में हम तेरे प्राचीन गौरव का पाश्चात्य जगत में स्वागत कर सकें।”
वीर बंदा बैरागी का राष्ट्र पटल पर उदय
इस भारतभूमि को विदेशियों की दासता में जाने से रोकने के लिए जिन वीरों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था, उनमें वीर बंदा बैरागी का नाम भी अग्रगण्य है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम की व्यग्रता को बढ़ाकर हर भारतीय को स्वतंत्रता के प्रति उतना ही व्यग्र और आतुर बनाने में इस वीर योद्घा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जितनी मछली बिना पानी के हो जाती है।
इस महान योद्घा के विषय में भाई परमानंद अपनी पुस्तक ‘बंदा वीर बैरागी’ में लिखते हैं-”मुझे भारत के इतिहास के अनुशीलन से यह निश्चय सा हो गया है कि वह व्यक्ति जिसे साधारण बोलचाल में बंदा बैरागी कहा जाता है, एक असाधारण पुरूष था। मुझे उसके जीवन में वह विचित्रता दिखाई देती है, जो न केवल भारतवर्ष के प्रत्युत संसार भर के किसी महापुरूष में नजर नहीं आती। उच्च आत्माओं की परस्पर तुलना करना व्यर्थ है, फिर भी वैरागी के जीवन में कुछ ऐसे गुण पाये जाते हैं जो न राणा प्रताप में दिखाई देते हैं और न शिवाजी में। मुसलमानों के राज्यकाल में इस वीर का आदर्श एक सच्चा जातीय आदर्श था। हिंदू पराक्रम और पराधीन अवस्था में। ‘बैरागी’ एक पक्का हिंदू था। सिखों के भीतर अपने पंथ के लिए प्रेम का भाव काम करता था। राजपूत और मराठे अपने-अपने प्रांतों को ही अपना देश समझ बैठे थे, वैरागी न तो पंथ में सम्मिलित हुआ और न ही उसे किसी प्रांत विशेष का ध्यान था। उसकी आत्मा में हिंदू धर्म और हिंदू जाति के लिए अनन्य भक्ति और अगाध प्रेम था। हिंदुओं पर अत्याचार होते देख उनका खून खौल उठता था। इन अत्याचारों का बदला लेने के लिए उसने उन्हीं साधनों का उपयोग किया, जिनसे मुसलमानों ने हिंदुओं को दबाने का प्रयास किया था।”
इतिहास की रक्त सरिता और वीर बंदा बैरागी
इतिहास एक सरिता है। एक ऐसी सरिता जो कि दुर्गम पहाड़ों के मध्य से बहती हुई मैदानों में आती है। जब यह पहाड़ों में होती है तो इसका प्रवाह तेज होता है। पर वहां यह घुमावदार घाटियों में ऐसी सर्पाकार गति से बहती है कि कहीं भी सीधी दिखाई नहीं देती। कुछ दूर जाकर कोई पहाड़ी ऐसी आती है जिसके अगल-बगल में यह छिप जाती है। मैदानों में आकर इसका प्रवाह कुछ मध्यम हो जाता है, सीधी दिखाई देने लगती है। पर वहां भी कभी-कभी इसमें ऐसी बाढ़ आती है जो बहुतों को बहा ले जाती है।
जीवन की घुमावदार घाटियों में-संकट काल में-इतिहास का मार्गदर्शन विवेकशील लोग अपने बौद्घिक कौशल से किया करते हैं, जबकि क्षत्रिय लोग तो अपने रक्त को ही पानी बनाकर इस सरिता की भेंट चढ़ा देते हैं। भारत के इतिहास की सरिता में सदियों का निरंतर रक्त प्रवाहित रहा है। सचमुच सदियों तक चले संघर्ष में जितने हिंदुओं ने अपनी स्वतंत्रता के लिए रक्त बहाया-उससे एक सागर का निर्माण हो सकता था। इस रक्त प्रवाहित सरिता को देखकर भी जिन लोगों ने भारत की स्वतंत्रता के इतिहास में ‘रक्त प्रवाह’ की उपेक्षा की है, उनकी बुद्घि पर दया आती है।
यह केवल भारत है जहां लोगों ने अपनी वीरता का प्रदर्शन करने के लिए एक बार नहीं अनेकों बार युद्घ का नेतृत्व केवल रक्त प्रवाह के लिए किया। बंदा वीर बैरागी ऐसे ही तेजस्वी सपूतों में से एक था, जिसने मां भारती की सेवा के लिए अपना सर्वस्व होम करने के लिए समय आने पर तनिक भी विलंब नहीं किया है।
पंजाब में जिस समय वीर बैरागी अपना जीवन परलोक की साधना के लिए लगा रहे थे उस समय गुरूगोविन्दसिंह राष्ट्र रक्षा का और धर्म रक्षा का बहुत ही ओजस्वी और तेजस्वी कार्य कर रहे थे। उनका कहना था-चिडिय़ा से मैं बाज लड़ाऊं।
तब नाम गोविन्द कहाऊं।।
अर्थात जब मैं चिडिय़ों से बाजों को मरवाऊंगा तब ही गोविन्दसिंह नाम पाऊंगा।
सामथ्र्यशाली हिन्दू समाज के समर्थक गुरू गोबिन्दसिंह
गोविन्दसिंह के नेतृत्व में हिंदू जाति नई चेतना से चेतनित हो रही थी। उसकी धमनियों का ठण्डा रक्त पुन: गरम हो रहा था, और जो समाज किन्हीं कारणों से जातियों में विभक्त सा होता जा रहा था उसी समाज में से सिख बन-बनकर लोग जहां जाति बंधनों को तोडक़र उनसे मुक्त होते जा रहे थे वहीं हिंदू समाज के लिए कार्य करके स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे। गुरूदेव एक नया समाज बना रहे थे, एक ऐसा समाज जो ‘गुरूग्रंथ’ के माध्यम से भारत की सनातन धर्मी ब्राहमण (शास्त्र) परंपरा का प्रतीक था। इसी सिख में सिख बनते ही समृद्घि प्राप्ति के लिए उद्यमशीलता का भी अनोखा गुण विकसित होता है, और उसकी सेवा भावना भी जगविख्यात है, इसलिए वह एक साथ वैश्य और शूद्र भी था। इस प्रकार पूरी वर्ण व्यवस्था का सुंदर समन्वय सिख में समाहित कर गुरू गोविन्दसिंह एक ऐसे सामथ्र्यशाली हिंदू समाज के समर्थक थे जो प्रत्येक प्रकार से अपने धर्म की और अपने देश की रक्षा कर सके।
किया ‘पंच प्यारों’ का निर्माण
यह गुरू गोविन्दसिंह ही थे जिन्होंने शक्तिदेवी को प्रसन्न करने के लिए पांच सिखों के सिर मांगे थे।
दयासिंह पहले सिख थे जिन्होंने अपना शीश गुरूजी को दे दिया था। इसके पश्चात एक नाई और फिर एक धीवर खड़ा हुआ और उन्होंने गुरूजी को अपने-अपने शीश दे दिये। गुरूजी को पांच लोगों के शीश मिल गये। वह शक्ति देवी के उपासक थे। इसका अभिप्राय था कि वह देश में शक्ति का संचार करना चाहते थे, वह मरे हुओं में प्राण फंूकना चाहते थे। यह कार्य सर्वथा असंभव था। इस असंभव को संभव बनाने के लिए ही गुरू जी ने शक्ति के पांच पुत्रों का चयन किया।
शक्ति के पांच पुत्रों का चयन करने के उपरांत भी गुरू गोविन्दसिंह का अभियान रूका नही। वह शक्ति पुत्रों की निरंतर खोज करते रहे। जहां भी कोई शक्ति पुत्र मिलता वे उसे राष्ट्र मंदिर का एक ‘हीरा’ समझकर उचित स्थान पर रख देते और उसके प्रकाश से राष्ट्रवासियों की मूत्र्तियों को प्रकाश स्नान कराते। यह उनकी बहुत बड़ी साधना थी। इसी साधना की राह में उन्हें वीर बंदा वैरागी मिला।
लक्ष्मणदास और गर्भवती हिरणी
लक्ष्मणदास हमारे इस चरित्रनायक का बचपन का नाम था। एक बार लक्ष्मणदास शिकार खेलने जंगल में गया। सामने हिरणी दिखायी दी। लक्ष्मणदास ने भागती हुई हिरणी को तीर मारा। लक्ष्मणदास ने धनुर्विद्या का अच्छा अभ्यास कर लिया था। इसलिए निशाना अचूक रहा, जिससे हिरणी पृथ्वी पर गिर पड़ी। हिरणी गर्भवती थी। जब लक्ष्मणदास ने हिरणी का पेट चीरा को उससे बच्चे निकले, हिरणी तड़पते हुए संसार से विदा हो गयी।
हिरणी का प्राणांत देखकर हो गया वैराग्य
लक्ष्मणदास से यह दृश्य देखा नहीं गया। उसके अंतर्मन को गहरी चोट लगी। मारे पीड़ा के वह तड़प उठा। उसे लगा कि जैसे बहुत बड़ा अपराध हो गया है। बच्चों की तड़प ने तो उसे भीतर से घायल ही कर दिया था। उसने संसार से वैराग्य लेने का निर्णय ले लिया। यह कुछ वैसा ही था जैसा महात्मा बुद्घ को एक अर्थी को या एक वृद्घ को देखकर वैराग्य हुआ था, या स्वामी दयानंद को अपने चाचा की मृत्यु पर संसार से विरक्ति हो गयी थी।
लक्ष्मणदास ने भी वैराग्य धारण किया और अब वह लक्ष्मणदास से माधोदास बन गया। माधोदास अब गोदावरी के तट पर साधना में लीन हो गये।
भाई परमानंद जी कहते हैं-”जहां-जहां धर्म के नाम पर मठ और महंती गद्दियां कायम हो जाती हैं, वे नाम को तो सत्य मार्ग कहे जाते हैं, किंतु वास्तव में ये संसार को ठगने का साधन होते हैं। वास्तव में इन मठाधीशों की आत्मिक उन्नति केवल आराम पसंदगी और शारीरिक सुखभोग की गुलामी होती है। शब्दों के परदे में संसार धोखा खा जाता है।”
माधोदास जी के आश्रम में भी सारे राजसी ठाटबाट स्थापित हो गये। बहुत से भक्त माधोदास के लिए सर्वस्व समर्पित करने को तैयार रहने लगे। माधोदास को भी देशधर्म की कोई चिंता नहीं थी, सभी बातों से उपराम होकर ही वह संन्यस्त हुए थे-बैरागी बने थे। इसलिए पंजाब में गुरू गोविन्दसिंह क्या कर रहे थे-और दक्षिण में देश धर्म की रक्षा के लिए मराठे क्या कर रहे थे, इस बात की उन्हें कोई परवाह नहीं थी।
कत्र्तव्यविमुख ‘अर्जुन’ को मिल गये ‘कृष्ण’
धीरे-धीरे माधोदास की कीर्ति गुरू गोविन्दसिंह के कानों तक पहुंची। गुरू गोविन्दसिंह उस समय चेहरों को तलाशने और तराशने का कार्य कर रहे थे। उन्हें राष्ट्रधर्म के निर्वाह के लिए तथा देशधर्म की रक्षा के लिए कुछ तपे-तपाये साधकों की आवश्यकता थी। इसलिए कभी ‘पंच प्यारे’ की खोज करते थे तो कभी ‘राष्ट्रमेव जयते’ का घोष लगाकर देश के लोगों का सैनिकीकरण करने की अपनी योजना पर उपदेश करते थे। जब गुरूदेव को ज्ञात हुआ कि एक चेहरा गोदावरी के तट पर साधनारत है तो वह उस चेहरे का सौंदर्यीकरण करने के लिए गोदावरी के पावन तट पर आ पहुंचे।
अपने पुत्रों का बलिदान करके भी देशधर्म के लिए दिन रात साधना करने वाले दिव्य पुरूष गुरू गोविन्दसिंह को अपने समक्ष उपस्थित देखकर माधोदास आश्चर्यचकित थे। उन्हें पता नहीं था कि आज उन्हें कोई अन्य नहीं-अपितु गुरू गोविन्दसिंह के रूप में साक्षात कृष्णजी मिल गये हैं। जिन्होंने कत्र्तव्यविमुख अर्जुन को सही मार्ग पर लाने के लिए महाभारत के युद्घ में गीता का उपदेश दिया था। आज भी तो महाभारत ही हो रहा था। सर्वत्र ‘कौरव’ उत्पात मचा रहे थे। ऐसे अर्जुन (माधोदास) गोदावरी के तट पर जाकर बैठ जाएं, तो यह उचित नहीं था। इसलिए आज के श्रीकृष्ण ने अपने अर्जुन को स्वयं खोज लिया।
एक साधु को क्षत्रिय बना लिया
गुरू गोविन्दसिंह ने साधु बैरागी का रूपांतरण कर दिया। उन्होंने उसके मर्म को स्पर्श करते हुए शब्द बोले और राष्ट्रधर्म के निर्वाह के लिए एक साधु को क्षत्रिय बना लिया। वैरागी स्वयं नहीं समझ पाये कि उनके साथ क्या हो गया है?
वास्तव में संसार में साधनाशील और आचरणशील लोगों के पुण्य प्रताप का फल ऐसा ही होता है कि उनके समक्ष कोई कुछ नहीं बोल पाता है। जिस महापुरूष के पुत्रों को जीवित दीवार में चिनवाया गया वह फिर भी राष्ट्रधर्म के जागरण का कार्य करे और उसकी एक पुकार पर माधोदास साधु से क्षत्रिय ना बने यह भला कैसे संभव था?
स्वामी दयानंद जी महाराज भी अपने लिए मोक्ष की खोज में चले थे। पर जब अंधगुरू ब्रजानंद जी महाराज ने उन्हें कर्मक्षेत्र में उतर कर वेदों का प्रचार-प्रसार करने को आदेशित किया तो दयानंद अपने मोक्ष के लिए नहीं, अपितु करोड़ों लोगों की मुक्ति के लिए संघर्षशील हो उठे। महापुरूषों के द्वारा लोग इसी प्रकार अपना जीवनोद्देश्य परिवर्तित कर क्षेत्र में उतर जाया करते हैं।
राजधर्म में प्रवृत्त हुए वैरागी ने गुरू गोविन्दसिंह के दर्शन करते समय हाथ जोडक़र कहा था-”मैं तो आपका बंदा हूं। तब गुरूदेव ने कहा था-यदि बंदा (वंदना करने वाला) हो तो मातृभूमि की वंदना करो।”
वैरागी का विवाह संस्कार
वैरागी ने आदेश शिरोधार्य किया। यहीं से उनका नाम ‘बाबा बन्दा’ हो गया और इतिहास में वह वीर बंदा वैरागी के नाम से विख्यात हुए। राजधर्म में प्रवृत्त हुए वैरागी ने कुछ कालोपरांत मंडी की रियासत की एक कन्या से विवाह कर लिया। यह उनके लिए संन्यासी से क्षत्रिय बनने पर उचित ही था। परंतु उनके ही लोगों ने इस विवाह को उनके विरूद्घ दुष्प्रचार करने का एक साधन बना दिया। इस दुष्प्रचार को प्रोत्साहित करने के लिए तत्कालीन मुगल सत्ता ने भी भरपूर सहयोग दिया। जिससे कि इस महान को अपमानित लज्जित और अपयश का भागी बनाया जा सके।
सरहिन्द का नवाब फूल रहा था गर्व से
सरहिंद के नवाब ने गुरू गोविन्दसिंह के पुत्रों को दीवार में चिनवाकर अपनी पीठ अपने आप थपथपानी आरंभ कर दी थी। वह लोगों से अपनी डींगें मारता था और अपने इस कायरतापूर्ण कुकृत्य को भी इस प्रकार बताया करता था कि जैसे उसने कितना बड़ा कार्य कर दिया है? उसकी भाषा में अहंकार था और मारे गर्व के वह फूला नहीं समा रहा था।
यह स्थिति उस समय तो और भी अधिक कष्टकर बन गयी थी जब गुरू गोविन्दसिंह देशधर्म की रक्षार्थ ‘हीरों की खोज’ में दक्षिण चले गये थे। तब सरहिंद के नवाब को ऐसा लगा था कि जैसे गुरू गोविन्दसिंह डरकर भाग गये हैं, और अब वह पंजाब कभी नहीं आ पाएंगे। सरहिंद के नवाब को नहीं पता था कि गुरू गोविन्दसिंह तेरे रोग की औषधि लेने ही दक्षिण गये हैं।
अब जब गुरू गोविन्दसिंह ने दक्षिण से एक ‘हीरा’ (बंदा वैरागी) तराशकर पंजाब भेजा तो उस हीरे का मूल्य नवाब सरहिंद समझ नहीं पाया। वह यह भी नहीं समझ पाया कि इसी ‘हीरे की कणी’ में तेरा काल छिपा है।
जब गुरू गोविन्दसिंह दक्षिण में चले गये थे तो कुछ सिखों ने भी पंजाब से हटकर सरहिंद के नवाब के यहां नौकरी कर ली थी। एक दिन नवाब सरहिंद ने इन सिख सैनिकों के समक्ष यह व्यंग्य कर दिया कि तुम्हारे गुरू की स्थिति तो यह हो गयी है कि वह मारे डर के इधर-उधर घूम रहा है और पंजाब छोड़ गया है। अब यह कोई दूसरा (वीर बैरागी) आया है इसकी भी स्थिति हम यही कर देंगे।
सिखों का स्वाभिमान जाग गया
सैनिकों ने अपने गुरू के प्रति नवाब सरहिंद के इन विचारों को जब सुना तो उन्हें बिजली का सा झटका लगा। उनका सोया हुआ स्वाभिमान जाग गया और उस स्वाभिमान के वशीभूत होकर उन्होंने तुरंत नवाब की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। नवाब के यहां से सेवा निवृत्त होकर ये सैनिक सीधे बंदा बैरागी से मिले।
भाई परमानंद जी लिखते हैं-”घृणा और अपमान से भी यह बात सिख सहन नहीं कर सके, और नौकरी छोड़ वैरागी से आ मिले। नवाब ने बैरागी को बिल्कुल गलत समझा था। इसके भीतर विद्युत शक्ति थी। ज्यों ही थोड़ी सी फौज तैयार हुई इसने सामाना के नगर पर चढ़ाई कर दी और साथ ही यह घोषणा कर दी कि जो लूट का माल जिसके हाथ जाएगा उसका मालिक लूटने वाला ही होगा। नगर में खूब लूटमार हुई। तीन दिन तक सामाना में ईंट बजती रही। लोग जंगलों में भाग गये। जो कबाब खाते थे, अब झाडिय़ों के बेर खाते, जो मखमलों के बिछौनों पर सोते थे अब पत्थरों का सिरहाना लगाते थे। इस नगर पर प्रकोपों का विशेष कारण यह था कि अली हुसैन जिसने गुरू को धोखा करके आनंदपुर छुडला था यहां का ही रहने वाला था। इसने गुरू के बच्चे के बारे में सरहिंद के सूबे से कहा था…..
‘सांपों के बच्चे सांप ही होते हैं।’ गुरू तेगबहादुर का घातक जलालुद्दीन भी इसी नगर का था। यहां से जो सरकारी खजाना मिला वह सारा सिपाहियों में बांट दिया गया। यह समाचार सुनते ही हजारों डाकू और लुटेरे आकर वैरागी की फौज में भर्ती हो गये। फूलवंश के मुखिया रामसिंह और त्रिलोक सिंह ने गुप्त सलाह की। इस बड़ी सेना ने अम्बाला सीमाबाद, संवारा, दामल, कैथल आदि दूसरे मुसलमानी नगरों को लूटते-मारते एक स्थान कंजपुरा में आकर अपना अधिकार जमा लिया। चूंकि इस कस्बे में सूबा सरहिंद के संबंधी रहते थे इसलिए नवाब की सेना के पहुंचने से पहले ही इसे सर्वथा नष्ट कर दिया गया। यहां के ही काजियों ने गुरू के बच्चों की व्यवस्था कर दी थी। एक और पठानी गांव लूटने के पश्चात बैरागी का नवाब की सेना से सामना हुआ। इस पहली लड़ाई में वैरागी के तीरों की मार से नवाब की सेना भाग निकली। इससे वीर वैरागी के हाथ बहुत सा युद्घ का सामान आया। ये आगे बढ़ रहे थे-रास्ते में एक गांव घटिया में मुसलमान एक गौ की हत्या कर रहे थे। दूर से सिपाहियों ने यह देख लिया। वे इसे सहन नहीं कर सके और गौ की रक्षा में प्राण दे दिये। चटपट सारी फौज गांव पर टूट पड़ी। केवल वही व्यक्ति बचा जिसने शिखा या जनेऊ दिखाया।”
इसे कहते हैं प्रतिशोध
इसे कहते हैं-प्रतिशोध। जाति कायर ना कहलाये या लोग उसे कायर कहकर अपमानित न करे, इसके लिए ईंट का उत्तर पत्थर से दिया जाना जातीय स्वाभिमान के लिए आवश्यक होता है। इन प्रतिशोधों और प्रतिशोधी लोगों के कारण ही हम सदियों तक अपने स्वाभिमान की रक्षा कर सके थे। बंदा बैरागी ने उन काजियों के शहर को ही अपने प्रतिशोध का शिकार सर्वप्रथम बनाया जिसके द्वारा गुरू के बच्चों को दीवार में चिनवाने की व्यवस्था दी गयी थी।
शत्रु को ज्ञात हो गया कि दो बच्चों की जान का मूल्य क्या था और ऐसे घृणास्पद और निर्मम कृत्यों का परिणाम क्या होता है? सचमुच हिंदू सात्विक वीर रहे हैं, और यह उनके चरित्र का सबसे बड़ा गुण है। इसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत