गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-68
गीता का बारहवां अध्याय और विश्व समाज
गीता का उद्देश्य है कि हे संसार के लोगों! चाहे तुम जिस रास्ते को भी अपनाओ उसे अपना लो, पर मेरी एक शर्त है कि बनो धार्मिक। तुम्हारी धार्मिकता ही तुम्हें संसार के लिए उपयोगी बनाये रखेगी। यदि बहुत ऊंची और गहरे ज्ञान की बातें नहीं अपना सको और अपनी भक्ति को उतनी ही गहराई तक नहीं ले जा सको तो भी घबराने की कोई बात नहीं है-तब दूसरा रास्ता है उसके पश्चात तीसरा रास्ता है। ‘सबका साथ और सबका विकास’-‘जैसी जिसकी योग्यता वैसा उसका वेतन’ (मार्ग)-और ‘सब हाथों को काम बेरोजगार कोई नहीं’- गीता इसी शैली में बात करती जान पड़ती है-वह किसी को निकम्मा और निकृष्ट नहंी बनने देती। गीता का चिन्तन अद्भुत है, सार्वकालिक है। इसे किसी देश की सीमाओं में बांधा नहीं जा सकता। यह सबके लिए है और सम्पूर्ण भूमण्डल के लिए प्रत्येक प्राणी के कल्याण के लिए है।
गीता किसी को अधम और अधर्मी नहीं बनने देती। किसी को पतित नहीं होने देती। सबको थाम लेती है और सबको सहारा देती है। कहती है कि चल तेरी योग्यता जैसी है मैं तुझे ईश्वर भक्ति का उसी के अनुसार मार्ग बताती हूं। जब गीता कहती है कि हे मनुष्य! तू कर्म कर और उसे ईश्वर को अर्पण करता चल-तो एक झटके में ही संसार के सारे विद्यालयों और विश्वविद्यालयों को बन्द करने का मानो फरमान ही दे देती है। कह देती है कि संसार के लोगों तुम्हारे लिए इन विद्यालयों का या विश्वविद्यालयों का ज्ञान काम नहीं आएगा, ये तो तुम्हें रोजगारों के लिए लडऩा सिखाएंगे, तुम इधर से ध्यान हटाओ और मेरी बात मान लो। एक रोजगार पकड़ लो और आनन्द खरीद लो। यह रोजगार है अपने कर्म को ईश्वर को समर्पित करके चलने की प्रवृत्ति बना लेना। इसके लिए किसी एक अकेडमिक डिग्री की आवश्यकता नहीं है। भारत के तथाकथित अनपढ़ अशिक्षित हमारे पूर्वज इस विद्या में पारंगत होते थे। इसलिए वे अच्छा स्वास्थ्य और चिरायुष्प पाते थे। सचमुच कितने अच्छे थे भारत के वे दिन जब गीता का वैदिक संगत ज्ञान हमारे गुरूकुलों में दिया जाता था। कहीं कोई अपराध नहंी था, कहीं आत्महत्या के मामले नहीं थे। आज बीमार मां को बेटा छत से गिराकर मार रहा है, पिता-पुत्र एक दूसरे के रक्त प्यासे हो गये हैं। पहले तो ऐसा नहीं था, सम्बन्धों में स्नेह-रस था, प्यार था, सरसता थी और सरलता थी। आज इनको कौन खा गया? किसने मिटा दिया हमारी सद्भावी संस्कृति को और सहयोग व सम्मैत्री भरे धर्म को? -इन सारे प्रश्नों पर आज गम्भीरता से चिन्तन करने की आवश्यकता है। गीता समाधान दे रही है-यह अलग बात है कि हम गीता से इतने दूर चले गये हैं कि गीता की बात को सुनने को तैयार नहीं हैं। सचमुच हमें पीछे मुडक़र देखना होगा और यह पड़ताल करनी ही होगी कि गीता हमसे कहां छूट गयी और क्यों छूट गयी?
गीता में भक्ति योग कर्म को भगवान के अर्पण करने की शिक्षा दी जाती है। इसी शिक्षा को यदि आज का विश्व अपना ले तो बहुत कुछ बिगड़ी हुई स्थिति को सुधारा जा सकता है।
अपने उपदेश को आगे बढ़ाते हुए श्रीकृष्णजी आगे कह रहे हैं कि अभ्यास मार्ग से ज्ञानमार्ग श्रेष्ठ है, ज्ञानमार्ग से ध्यान मार्ग में विशिष्टता है। ध्यान मार्ग से कर्मफल त्याग का मार्ग विशेष है, क्योंकि अर्जुन! ऐसा करने से मनुष्य को शान्ति की तुरन्त प्राप्ति होती है। पूरी गीता में पाण्डुपुत्र अर्जुन संशय में भी रहता है कि मुझे कोई एक मार्ग बता दो जिसे अपनाकर मैं भवपार हो जाऊं। हे योगेश्वर आप मुझे किसी प्रकार की भ्रान्ति में या द्वन्द्व में मत फंसाओ, एक रास्ता बताओ। ऐसा रास्ता बताओ जो मेरे लिए उत्तम हो। इस पर भी श्रीकृष्णजी उन्हें सर्व समन्वयी उत्तर देकर ही संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं, और बताते हैं कि तुझे जो कोई भी मार्ग अपने अनुकूल दिखायी दे तू उसी को अपना ले। गीता के इस सर्व समन्वयी स्वरूप के कारण ही वह सभी के लिए शान्ति प्रदायक और उन्नति कारक ग्रंथ बन पड़ी है।
भगवान को प्रिय कौन?
भगवान के लिए प्रिय भक्त कौन है? इस पर प्रकाश डालते हुए श्रीकृष्णजी कहते हैं कि ऐसा भक्त जो किसी भी प्राणी से द्वेष नहीं करता, सबका मित्र अर्थात सबसे मित्रवत व्यवहार करता है, सबके प्रति दया का व्यवहार करता है, जो ममता और अहंकार से रहित है सुख-दु:ख में समान है, भगवान है, संतोषी योगयुक्त सुख-दु:ख में समान रहने वाला, अपने को वश में करने वाला, दृढ़ निश्चयी है और अपने मन और बुद्घि को मेरे अर्पण कर चुका है, ऐसा मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
किसी संस्कृत के कवि ने कहा है-
शरीरं सुरूपं तथा च कलत्रम्
यशश्चारूचित्रम् धनं मेरूतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्नं हरेरंगध्रिमध्ये
तत: किं तत: किं तत: किं तत: किम्।।
अर्थात सुंदर शरीर रूपमती भार्या, यश, उत्तम चरित्र, अपार धन, संपत्ति-रहते हुए भी यदि भगवान की भक्ति में मन नहीं लगा तो इन पदार्थों के रहने का लाभ ही क्या अर्थात कोई लाभ नहीं है।
श्रीकृष्णजी भी यही कह रहे हैं कि संसार के सभी ऐश्वर्यों के मध्य रहकर भी और सारी भोग सामग्री का स्वामी होकर भी मनुष्य को ईश्वर भक्त होना चाहिए। इससे उसके भीतर वही गुण आने लगते हैं जो ऊपर उन्होंने एक अच्छे भक्त के विषय में बताये हैं। जब व्यक्ति आत्मसंयमी होने लगता है और अहंकार शून्य, सबसे प्रीति करने वाला, योगयुक्त हो जाता है तो भगवान का वह प्रिय हो जाता है, उस पर ईश्वर की विशेष कृपा होने लगती है। इस प्रकार ईश्वर का प्यारा बनने का अभिप्राय ईश्वर की कृपा को पाना है।
आगे श्रीकृष्णजी कहते हैं कि-हे पार्थ! जिस व्यक्ति से संसार के लोग उद्घिग्न नहीं होते, जो लोगों से उद्घेग नहीं पाता, जो हर्ष, ईष्र्या, भय-इन उद्घेगों से मुक्त है-ऐसा भक्त मुझे प्यारा है।
उद्घेग व्यक्ति के बनते कामों को बिगाड़ देते हैं, क्योंकि उद्घेग भावना प्रधान होते हैं। अत: भावनाओं पर नियंत्रण, संयम, संतुलन बनाकर बोलना भी एक साधना है। तुरन्त किसी बात पर प्रतिक्रिया देने से बचना चाहिए। भावनाएं अतिरेक में हम से कुछ भी कहलवा सकती हैं। यदि भावनाओं को नियंत्रित करके बोला जाएगा तो हर्ष और ईष्र्या के अतिरेकी विचार स्वयं ही संतुलित हो जाएंगे। ऐसा बोलने वाला व्यक्ति ही मितभाषी होता है-मितभाषी अर्थात नपा तुला बोलने वाला होता है। जब बोलने पर भावनाओं का अतिरेक समाप्त हो जाता है तो उसमें मृदुता भी आ जाती है। अत: वह मृदुभाषी भी हो जाता है, श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि ऐसे मितभाषी और मृदुभाषी लोग ईश्वर को प्रिय होते हैं। क्योंकि उनकी भाषा से या वाणी से किसी भी प्राणी का अहित नहीं होता, ना ही किसी को कष्ट होता है।
श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि ऐसा व्यक्ति जो संसार के लोगों से किसी प्रकार की आशा नहीं करता-जो पवित्र, कुशल, तटस्थ, व्यथा रहित है, जिसने कर्म के फल के संबंध में सब आरंभ अर्थात उद्योग परे फेंक दिये हैं-ऐसा मेरा भक्त मुझे प्रिय है। उसके सब कष्टों का हरण परमपिता परमेश्वर स्वयं करते हैं। क्रमश: