जीव और ब्रह्म एक(आत्मा सो परमात्मा) कहावत का विश्लेषण*:
मान्यताएं;
इस विषय में दो परस्पर विरोधी मान्यताएं है ।
1.ईश्वर और जीव एक ही है ,ये कहना है शंकराचार्य जी का
2.जीव और ब्रह्म एक ही नहीं है अपितु दोनों अलग-अलग पदार्थ हैं जिनके गुण कर्म स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं |
विश्लेष्ण:
पहली मान्यता ठीक ही नहीं ,पूरी तरह से अस्वीकार्य है| क्योंकि जीव कभी भी ईश्वर नहीं बन सकता है| और ये भी गलत है कि जीव ईश्वर का अंश है दोनो प्रथक सत्ताएं है।
इस विषय में भ्रांति इसलिए हो जाती है की जीव और परमात्मा दोनो अमर है और निराकार है लेकिन जीव को ईश्वर के नियमानुसार शरीर धारण करना पड़ता है परन्तु जीव एक नही इतने है की इनकी गणना की कल्पना संभव नहीं है और इसी तरह शरीर धारण के बाद जीवात्मा की प्रजातियां है।
पहले हमको जीव क्या है और परमात्मा क्या है ये समझना चाहिए:
परमात्मा और जीव क्या है
इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए कि तीन तत्व अनादि-अजर-अमर हैं, वे हैं (1) ईश्वर, (2) जीव, और (3) प्रकृति। प्रकृति जड़ है, जबकि ईश्वर और जीव चेतन हैं अर्थात् इनमें ज्ञान है। ईश्वर सर्वज्ञ है, सर्वव्यापाक है- निराकार है और सृष्टिकर्ता है। दूसरी ओर जीव अल्पज्ञ है- एकदेशी अणु है और ईश्वर की कृपा से ही शरीर धारण करता है। ससीम होने के कारण वह सृष्टि-निर्माण नहीं कर सकता। भोग और योग की सिद्धि के लिए उसको इस जड़ शरीर की साधन के तौर पर आवश्यकता पड़ती है जो वह अपने ही किये कर्माें के फलस्वरूप सर्वज्ञ परमपिता परमात्मा से प्राप्त करता है, अतः आत्मा भी बिना शरीर के (प्रकृति की भाँति) कुछ नहीं कर सकता।
ईश्वर और जीव एक क्यों नही?
- एक उदाहरण लेते हैं जैसे आप पुर्ण हो आपने बीज से सतांन पैदा की।उसका dna तो आपकी सतांन में होगा परतुं आप उसमें नहीं होगें। अर्थात आप सतांन में होते हुए भी नहीं होगें। ये अव्याप्त अवस्था होती है। ओर ना ही आपका कोई अगं कटा होगा अर्थात आपका पुरा अशं आपके पास होगा यानी आप पुर्ण होगें। और जो सतांन आगे सुखदुख का अनुभव करेगी उससे भी आप अनुभव नहीं कर सकते और रचना करेगी इससे भी आपको कोई बताएगा तो जानोगे वरना नहीं।अब विचार करो आपसे अलग कौन हुआ?आप पर कोई फर्क पड़ा? क्योंकि आपका हर अगं अभी भी पुर्ण है। परमात्मा! एक है, पूर्ण है,आत्माओं के लिए संसार का बनाने वाला, पालन करने वाला ,संहार करने वाला, जन्म ना लेने वाला ,सर्वगुण संपन्न नित्य सत्ता। संसार का निमित्त कारण जैसे घड़े के लिए कुम्हार। प्रकृति! जड़ सदा रहने वाली, परिणामीनी सृष्टि प्रकृति का ही विकार है, परिणाम है ,सृष्टि का उपादान कारण। जैसे मिट्टी घड़े के लिए।
2) आत्मा ही परमात्मा का अंग है और इस तरह के कथन अज्ञानी लोग अक्सर बिना सोचे समझे कह दिया करते है। आत्मा यदि परमात्मा का अंश है फ़िर ये शैतान मन किसका अंश है?
3)आत्मा परमात्मा का अंश है तो फिर उसने परमात्मा से अलग होकर पृथ्वी लोक (मरण लोक) में जन्म क्यों लिया?
4) आत्मा! अनेक है ,परमात्मा के बनाए संसार का भोग करने वाली, परमात्मा का साक्षात करके, जन्म मरण के बंधन से छुटकारा ,परमात्मा में आनंद से रहने वाली ,मोक्ष का सुख भोग कर पुनः परमात्मा के बनाए संसार में आने वाली। अल्प ज्ञान, अल्प बल अल्प गुण, नित्यचेतन सत्ता। साधारण निमित्त ,परमात्मा के बनाए संसार से पदार्थ लेकर, यह भी अपना छोटा- मोटा संसार रचा लेता है।
5)ईश्वर को खंडित जानना-मानना मूर्खता है- आत्मा को परमात्मा का अंश-भाग-हिस्सा-टुकड़ा मान लेना अज्ञानता है- घोर पाप है। आत्मा परमात्मा का अंश नहीं है, इसका अस्तित्व परमात्मा से पृथक् है।
6)कर्मफल ईश्वर देता है- इसका तो यही अर्थ हुआ कि वह अपने-आपको दण्ड देता है, अर्थात् ईश्वर होकर भी (आत्मा अगर परमात्मा का अंश है तो) शुभाशुभ कर्म क्यों करता है और फल भी स्वयं ही क्यों भुगतता है?
7)अगर आत्मा परमात्मा का अंश है तो इतने सारे मंदिर-मस्जिदों की क्या आवश्यकता है? इतने मत-मज़हब-जातियाँ-इतने झगडे़-फसाद-इतने देश-इतनी अज्ञानता किसकी है? क्या ईश्वर इतना अज्ञानी हो गया है? ऐसा है तो वह इतने बड़े ब्रह्माण्ड को कैसे सँभालता होगा?
8)कहते हैं ईश्वर एक और अखंड है। जब आत्माएँ परमात्मा के अंश हैं तो ईश्वर क्या अनेक टुकड़ों में बँट गया है?
9)हम (आत्माएँ) परमात्मा की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करते हैं। आत्माएँ परमात्मा का अंश मानें तो क्या हम अपनी ही पूजा करते हैं? यह तो ढोंग हुआ?
10)त्रैतवाद के सिद्धान्त को जाने बिना ज्ञान-प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। एकवाद-द्वैतवाद के जानने-माननेवाले त्रैतवाद के सिद्धान्त के आगे क्यों झुक जाते हैं?
वैदिक मान्यता
वैदिक मान्यता यही है कि ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों ही पृथक्-पृथक् तत्व हैं जो कभी, किसी भी स्थिति में एक-दूसरे में लीन नहीं हो सकते। अतः आत्मा को परमात्मा का अंश माननेवाले लोगों को सत्य को जानना और मानना चाहिए।
आत्मा और परमात्मा एक ही है का भ्रम कुछ वेद मंत्रों और शास्त्रों की गलत व्याख्या या कहो भावार्थ का भी परिणाम हो सकता है।
क्योंकि मनुष्य के शरीर में दो आत्माओं का निवास है, इसलिए वेद में आत्मानों शब्द आया है। एक समस्त विश्व को चलाने वाला परमात्मा और दुसरा इस इस शरीर का अधिष्ठाता जीवात्मा। ये दोनों आत्मा चेतन है।
वह अवस्था जब आत्मा सात्विक बुद्धि में स्थिर हो जाता है। ऐसी अवस्था में आत्मा जो भी कार्य करेगा वह कल्याण करने वाला, उन्नति की ओर ले जाने वाला होगा। इसमें पवित्रता होगी, स्वार्थ नही होगा, घ्रणा नही होगी , शत्रुता नही होगी अपितु अनन्त प्रेम की भावना होगी। अत: ऐसा आत्मा निरन्तर उन्नति करेंगा। इन्द्रियों की तृप्ति से ऊपर उठकर आत्मभाव में पहुँचकर कर्म करेगा परन्तु उसमें लिप्त नही होगा।
द्वासुपर्णा सयुजा संख्या समां वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्ध: पिप्लमं स्वाद्वत्नयश्नन्नन्यो अभिचाकशीति। ।(मुण्डकोपनिषद् ३|१|१
इसमें दो आत्मा है। एक वह आत्मा जो सुख दुःख को भोक्ता, कर्म करता उसके फल को पाता है तथा दुसरा वह जिसको परमात्मा कहते हैं, जो सारे संसार का निर्माता, संचालक है। सब शक्तियों का स्वामी है। सभी कर्मों का फल प्रदाता है और सब कुछ करने पर भी केवल द्रष्टा बनकर परम आनन्द में मग्न होकर बैठा है।
इस मंत्र में परमात्मा, आत्मा, और प्रकृति तीनों की सत्ता का स्पष्ट बोध होता है।
योगशास्त्र के अनुसार इस शरीर को अन्नमयकोश, शरीर के भीतर प्राणमयकोश, उससे आगे मनोमयकोश, उससे आगे विज्ञानमयकोश और उससे आगे आनन्दमयकोश कहा है इसी आनन्दमयकोश में परमात्मा की ज्योति के दर्शन आत्मा करता है।
प्रस्तुति: Dr DK Garg,chairman
Ishan group of institutions,Greater Noida
बहुत से लेख हमको ऐसे प्राप्त होते हैं जिनके लेखक का नाम परिचय लेख के साथ नहीं होता है, ऐसे लेखों को ब्यूरो के नाम से प्रकाशित किया जाता है। यदि आपका लेख हमारी वैबसाइट पर आपने नाम के बिना प्रकाशित किया गया है तो आप हमे लेख पर कमेंट के माध्यम से सूचित कर लेख में अपना नाम लिखवा सकते हैं।