गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-78
गीता का चौदहवां अध्याय और विश्व समाज
क्या है त्रिगुणातीत?
जब श्रीकृष्णजी ने त्रिगुणों की चर्चा की और लगभग त्रिगुणातीत बनकर आत्म विजय के मार्ग को अपनाकर जीवन को उन्नत बनाने का प्रस्ताव अर्जुन के सामने रखा तो अर्जुन की जिज्ञासा मुखरित हो उठी। उसने अन्त:प्रेरणा से प्रेरित होकर श्रीकृष्णजी के सामने अपनी जिज्ञासा प्रकट करते हुए कहा कि प्रभु यह त्रिगुणातीत की अवस्था क्या है? सत्, रज और तम को पार कर जाने की सही अवस्था क्या है-उसकी पहचान क्या है? उसका आचार- विचार, आहार- विहार कैसा होता है? और यह भी बताओ कि यह त्रिगुणातीत की अवस्था पायी कैसे जाती है?
त्रिगुणातीत क्या होत है क्या उसकी पहचान।
क्या उसका आचार है कर दो सही बखान।।
तब श्रीकृष्णजी बोले कि अर्जुन! (तुम्हारा प्रश्न ठीक है) जो व्यक्ति प्रकाश (सतोगुण) प्रवृत्ति (रजोगुण) और मोह (तमोगुण) के उत्पन्न होने पर दु:ख नहीं मनाता, और जब ये न हों-तब इनके लिए इच्छा नहीं करता, जो उदासीन की भांति स्थिर है, जो यह समझ गया है कि त्रिगुण ही अपना काम कर रहे हैं और यह समझकर स्थिर रहता है और कभी डिगता नहीं है अर्थात किसी प्रकार के विवाद को प्राप्त नहीं होता उसे तू त्रिगुणातीत समझ।
त्रिगुणातीत व्यक्ति के व्यक्तित्व की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए श्रीकृष्णजी अर्जुन को बता रहे हैं कि ऐसा व्यक्ति सुख- दु:ख में, लाभ-हानि में, यश-अपयश में, जीवन और मरण में, अर्थात सारे द्वन्द्वों में सदा समान रहता है। उसके लिए सुख और दु:ख कोई विशेष अर्थ नहीं रखते, वह दोनों में समान बरतता है। दोनों में समानभाव बरतना बहुत बड़ी साधना और बहुत बड़ी समझदारी का प्रतीक है। संसार में यह विभूति हर किसी के पास नहीं होती। कभी-कभी लोग जीवन भर ऐसा बनने की साधना करते रहते हैं, पर वे साधना ही करते रह जाते हैं। पता चलता है कि एक दिन उनके चलने का समय आ जाता है और साधना पूरी नहीं होती। कहने का अभिप्राय है कि जिस समभाव को अपनाने की वह अथक साधना कर रहे थे-वह अधूरी ही रह गयी।
त्रिगुणातीत व्यक्ति के विषय में आगे बताते हुए श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि वह अपने आप में स्थिर रहता है अर्थात स्वस्थ रहता है। उसके लिए मिट्टी का ढेला और सोने का ढेर भी समान ही होते हैं। इसका कोई प्रभाव उस पर नहीं पड़ता, जो उसका है-वह उसी में मग्न रहता है। वह धैर्यवान होता है और निन्दा-स्तुति में भी समान ही रहता है।
सुख दु:ख समझ एक से रहता है सदा मस्त।
निन्दा स्तुति में रखे धैर्य, होता असली स्वस्थ।।
ऐसे लोग मान अपमान में समान रहते हैं। कहने का अभिप्राय है कि त्रिगुणातीत व्यक्ति के लिए विपरीत परिस्थितियां हों या फिर अनुकूल परिस्थितियां हों-ये दोनों ही हवा के झोंके के समान होती हैं, जो आता है और चला जाता है, पर यात्री पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसकी यात्रा पूर्ववत और यथावत जारी रहती है। ऐसा व्यक्ति मित्रपक्ष और शत्रुपक्ष दोनों के लिए एक सा होता है-अर्थात वह रागद्वेष से ऊपर उठ चुका होता है। उसका न कोई मित्र होता है और ना ही कोई शत्रु होता है। मित्र और शत्रु उसके होते हैं जो प्रकृति के माया=मोह में तीन गुणों के पाश में जकड़ा होता है। इस प्रकार ‘स्थितप्रज्ञ’ का वर्णन गीता ने दूसरे अध्याय में किया है, उसे ही 13वें अध्याय में गीता ने ‘ज्ञानयोगी’ कहा है तो अब चौदहवें अध्याय में उसे ‘त्रिगुणातीत’ कहकर महिमा मंडित किया है।
गीता मार्ग है जीवन का ये अमर काव्य का मोती है।
त्रिगुणातीत बने मानव को ये सुंदर खेती बोती है।
जो भटक गया इस मार्ग से
वह कभी सफल नहीं हो सकता।
अधीर पुरूष को कहती गीता
वह कभी सबल नहीं हो सकता।।
गीता का चौदहवां अध्याय समाप्त होते-होते यह संदेश दे रहा है कि प्रकृति और पुरूष ये दोनों अनादि तत्व हैं। मनुष्य को प्रकृति और पुरूष में से ‘पुरूष’ को ही अपने लिए अनुकूल और उत्तम मानना चाहिए। यह प्रकृति हमारे लिए मायावाद की जिस चादर को ओढ़े खड़ी है, वह हमको अपनी ओर आकर्षित कर मारने वाली है। मनुष्य को चाहिए कि वह प्रकृति और पुरूष के भेद को समझे। ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के भेद को समझे। शरीर और आत्मा के भेद को समझे, और इन दोनों को अलग-अलग करना सीख ले। जिस दिन वह इस अवस्था को पा लेगा उस दिन वह कैवल्य को पा लेगा। प्रकृति और पुरूष दोनों के संयोग से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। अत: प्रकृति और पुरूष की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। परन्तु इसके उपरान्त भी दोनों का भेद जानना आवश्यक है। दोनों को यदि एक सा मान लिया या एक मान लिया तो अज्ञान बढ़ जाएगा और व्यक्ति अनात्मा में आत्मा को समझकर अज्ञानता में जा फंसेगा। इसी स्थिति से जड़ पूजा का प्रारम्भ होता है। गीता जड़ को जड़ और चेतन को चेतन मानने की पक्षधर है।
गीता बार-बार एक बात को दोहरा रही है कि जो विद्वान पुरूष होते हैं, योगीजन होते हैं वे दु:ख व सुख दोनों में समान रहते हैं। जब गीता ऐसा कहती है तो इसका अभिप्राय ये है कि हमें हर स्थिति-परिस्थिति में अपना धैर्य खोना नहीं चाहिए, अपितु मानसिक सन्तुलन बनाये रखना चाहिए।
अब बात ये आती है कि ऐसी आदर्श स्थिति बने कैसे? इसके लिए ईश्वर के पवित्र नाम का जप और सन्ध्या व योगादि का आसरा लेना पड़ता है। यह स्थिति किसी बड़े व्यक्ति के नाम जप से नहीं आ सकती। बड़े व्यक्ति का जीवन बड़ा बनने की प्रेरणा दे सकता है और उसका बताया मार्ग हमें नई राह दिखा सकता है, पर वास्तविक लाभ तो हमें ईश्वर का सामीप्य पाने पर ही मिलेगा। ईश्वर का सामीप्य उसके जप से, भजन से, सन्ध्या से, योग से, शुभ कर्मों को करने से, यज्ञादि करने से मिलता है। धीरे-धीरे अभ्यास बनता है और व्यक्ति सुख दु:ख में समान रहने लगता है। इसी अवस्था को ‘समत्व योग उच्चयते’ कहा है। जब सब परिस्थितियों में मन एक समान रहने का अभ्यासी हो जाता है तो वह स्थिति भी योग की ही स्थिति कही जाती है।
गीता की एक बात को संसार मान ले कि जो कुछ हो रहा है वह किसी पूर्व घटना का परिणाम है। अत: क्रिया की प्रतिक्रिया है। जब क्रिया की प्रतिक्रिया होनी ही है तो क्यों ना क्रिया ऐसी की जाए जिससे कि प्रतिक्रिया अनुकूल आये। जंगल में आप गाली दें तो लौटकर गाली आती है और यदि सुन्दर या प्यारा सा ओ३म् शब्द बोलें तो वही प्रतिध्वनित होकर लौट आता है। गाली आपकी ही है-पर आपको ही कष्ट दे रही है और ‘ओ३म्’ शब्द भी आपने ही बोला है पर आपको ही आनन्द दे रहा है।
गीता प्रवचन का मुख्य उद्देश्य यह है कि हम वही करें जिसकी प्रतिक्रिया हमें आनन्दित करे, उल्लास और हर्ष से भर दे। गीता हमारे दु:खों का कारण हमारे दुष्कर्मों को मानती है। जब हम सत्कर्मों में लग जाते हैं तो दुष्कर्म छूटते जाते हैं। जब दुष्कर्म ही नहीं रहेगा तो दु:ख मिट जाएगा, दु:ख मिट जाएगा तो हर स्थिति -परिस्थिति में समान भाव बरतने का अभ्यास प्रबल से प्रबलतर होता जाएगा। इस प्रकार गीता के मूलतत्ववाद को अपनाकर संसार सही मार्ग पर आ सकता है। संसार दु:खों से छूटना चाहता है तो दुष्कर्मों को छोड़ दे। सारी शिक्षा व्यवस्था को ऐसी बना दिया जाए कि वह व्यक्ति को ‘समत्व योग उच्यते’ के आदर्श की ओर ले चले। बस गीता का संदेश सार्थक हो उठेगा। क्रमश: