लघुता पाय प्रभुता पाई
गोस्वामी तुलसीदासजी ने ‘रामचरित मानस’ में जिस प्रसंग में यह कहा है कि ‘लघुता पाय प्रभुता पाई’-उसका वहां अर्थ है कि विनम्रता से अर्थात लघुता से मनुष्य बड़प्पन प्राप्त कर लेता है, महानता की प्राप्ति करता है। गोस्वामीजी ने जहां भी जैसे भी जो भी कुछ कहा है उसका विशेष और गम्भीर अर्थ है।
अब हम अपने वर्तमान पर दृष्टिपात करेंगे। वर्तमान में यह रीति-नीति पूर्णत: परिवर्तित हो चुकी है। आजकल लघुता को या विनम्रता को लोग दूसरे की दीनता समझते हैं। लघुता के स्थान पर हैकड़ी और मुठमर्दी आ गयी है। लोग दूसरों को सम्मानित करके नहीं अपमानित करके प्रसन्न होते हैं। यह व्यवस्था का दोष है जो कि इस समय शीर्षासन कर चुकी है।
लघुता का एक अर्थ छोटापन भी है जिसे और भी स्पष्टता से समझने के लिए इसे नीचता अथवा कमीनापन भी कहा जा सकता है। आजकल लोगों ने लघुता का अर्थ इसी प्रकार कर लिया है। राजनीति ने लघुता को इसी रूप में अपनाया और चूंकि राजधर्म का अनुकरण जनसाधारण करता है इसलिए यही अर्थ जनसामान्य ने भी अपना लिया है। राजनीति नीचता को पाकर महानता प्राप्ति की प्रयोगशाला सफलतापूर्वक सिद्घ हुई है।
वर्तमान राजनीति में यह दोष कहां से आया? इस पर विचार करेंगे तो इतिहास के कुछ पन्ने पलटने पड़ेंगे। आप वहां से पढना आरम्भ कीजिए जहां नेताजी सुभाष को पीछे धकेलकर कांग्रेस के अध्यक्ष की कुर्सी उनसे कुछ लोगों ने बलात् खाली करायी थी। वह नीचता थी, देश के लोगों के साथ ही नहीं अपितु कांग्रेसजनों के साथ भी धोखा था, उनकी भावनाओं की हत्या थी क्योंकि नेताजी को सभी लोगों ने अपनाया अध्यक्ष बनाया था। कहना न होगा कि जिन लोगों ने उस समय लघुता का प्रदर्शन किया वही आगे चलकर प्रभुता पा गये। यही सरदार पटेल के साथ किया गया। उन्हें पीछे धकेलकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पंडित नेहरू को दे दी गयी। चाटुकारों ने लघुता (विनम्रता) को अपमानित कर लघुता (नीचता) को सम्मानित करने का फतवा इतिहास को सुना दिया और तब से हम इसी ‘लघुता’ पर पुष्प चढ़ाते आ रहे हैं।
उसके पश्चात देश की राजनीति का संस्कार ही हो गया कि अपने प्रतियोगी को रास्ते से हटाओ और प्रभुता पाओ। रास्ते से हटाने की प्रतियोगिता में जो आगे निकल जाए यहां वही ‘मुकद्दर का सिकंदर’ कहलाता है। यह अच्छी बात रही कि सरदार पटेल को रास्ते से हटाने के लिए उनकी हत्या तो नहीं की गयी पर बाद में यह रास्ते से हटाने की प्रक्रिया हत्या तक पहुंच गयी। कितने ही लोगों को हत्या करके रास्ते से हटाया गया। हटाया जा रहा है। राजनीति इस समय खून से नहा रही है। यह अपना प्रातराश (नाश्ता) भी खून से करती है और दिन भर चाय पानी के स्थान पर भी खून पीती रहती है। हर सफेदपोश की चादर पर खून के धब्बे हैं।
गुस्ताख होके अर्ज किया है कि माफ हो।
हमने तो एक दिल भी न देखा कि जो साफ हो।।
जब मैं किसी राजनीतिज्ञ के भव्य भवन को देखता हूं तो यही सोचा करता हूं कि इस भवन की हर एक ईंट अपराध की ईंट और खून के गारे से चिनी गयी है। इसकी नींव में भी खून है और इसके कंंगूरों पर भी खून के छींटे हैं। यह खेल आजकल देश की राजधानी से चलकर प्रदेशों की राजधानियों से होते हुए गांव के गली मौहल्लों तक पहुंच गया है। अपराध की एक नई खूनी क्रान्ति को देश देख रहा है और मौन साधकर देख रहा है। व्यवस्था को शीर्षासन करा देना ‘प्रतिगामी क्रान्ति’ होती है और यह ‘प्रतिगामी क्रान्ति’ की रक्तिम भाव भंगिमा का ही परिणाम है कि गांव में ग्राम प्रधान के पद के प्रत्याशियों में भी रक्तिम संघर्ष छिड़ा हुआ है। वहां भी ‘लघुता पाय प्रभुता पाई’ की चौपाई वर्तमान सन्दर्भों में अपना प्रभाव दिखा रही है। लोग एक दूसरे को रास्ते से हटा रहे हैं। राजनीति ने अपने पापों को छिपाने के लिए इस ‘प्रतिगामी रक्तिम क्रान्ति’ को गम्भीरता से न लेकर ‘राजनीतिक रंजिश’ कहना आरम्भ किया है। यह शब्द हल्का है जो हमें लघुता अर्थात राजनीतिक नीचता को नीचता न कहने के लिए प्रेरित करता है। हम इसे ‘ऐसा तो होता है’-यह कहकर क्षमा कर देते हैं, हमारी इसी असावधानता ने देश को दुर्दशा ग्रस्त कर दिया है। मानव हत्या तो मानव हत्या है। उसे राजनीतिक हत्या कहकर क्षमा करना तो पूरी मानवता के साथ छल करना है।
हर कुर्सी में खून है और खून के दाग।
हिंसा इसका धर्म है फर्ज बना है आग।।
हमने अपने लोकतंत्र के मंदिर में अनेकों अपूजनीयों का पूजन करना आरम्भ कर दिया है। यह पूजन भी बड़ी संख्या में हो रहा है देश के छह लाख गांवों में लोकतंत्र का दीपक जल रहा है। हर गांव में लोकतंत्र का मंदिर है और हमने वहीं से लोक देवता को खून से नहलाना आरम्भ कर दिया है। वहीं से देश के सबसे बड़े लोकतंत्र के मंदिर अर्थात संसद तक आते-आते राजनीतिक लोग खून से या अपराध से लथपथ हो जाते हैं और फिर प्रभुता पाकर राज करते हैं अर्थात लोकतंत्र के मंदिर में पूजे जाते हैं। अपवादों का हम वंदन करते हैं। अभिनंदन करते हैं और उन्हें नमन करते हैं। परन्तु कुल मिलाकर जो चित्र देश की राजनीति का बन चुका है वह तो अत्यंत डरावना है। जिस देश का लोकदेवता उसका जनलोकपाल होता था, आज उसको हर स्थान पर खून से नहलाया जा रहा है और देश की चेतना को मौन साधकर सब कुछ सहने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। यह कब तक चलेगा?
आज की युवा पीढ़ी को जागना होगा। इस देश की अन्तश्चेतना को उसे समझना होगा। क्योंकि इस देश की अन्तश्चेतना कभी मरी नहीं। इसने अन्याय और अत्याचार की चुनौती को सदा चुनौती दी है। इसके धर्म ने पापाचारी राजनीति से सदा लडऩा सिखाया है। यदि ऐसा न होता तो कृष्ण कंस को नहीं मारते और राम रावण को नहीं मारते। कृष्ण ने कंस को और राम ने रावण को इसीलिए मारा कि राजनीति पवित्र हो जाए, अपना धर्म पहचान ले और सही रास्ते पर आ जाए। उन्होंने रास्ते से उन्हें हटाया जो जनसामान्य का रास्ता रोके खड़े थे। यही भारत का धर्म है। लोकतंत्र के पावन मंदिरों पर बलात् कब्जा करने वाले कंस आज जनसाधारण से पूजा का अधिकार छीन चुके हैं अर्थात उनके मताधिकार को भी छीन चुके हैं। मत को हत्या के आतंक से, लाठी से, बंदूक से, पैसे से या हैकड़ी से खरीदा जा सकता है या प्रभावित किया जाता है, झूठे और भ्रामक घोषणा पत्रों के माध्यम से प्रभावित किया जाता है। जनसाधारण में से यदि कोई ऐसा करता है तो वह चार सौ बीसी में फंसाया जाता है। पर राजनीतिज्ञों को चार सौ बीसी की भी छूट है। वह झूठे घोषणा पत्र जारी कर पूरे देश को ठग सकते हैं, चारा खा सकते हैं, सीमेंट खा सकते हैं, कोयला खा सकते हैं और फिर भी सफेद पोश रहते हैं।
देश के बुद्घिजीवियों! जागो तुम्हारे रहते देश में डाका पड़ रहा है। सांस्कृतिक मूल्यों का अर्थ परिवर्तन हो रहा है। लघुता (विनम्रता) का दूसरी लघुता (नीचता) में रूपान्तरण हो रहा है और आप मौन हैं, ये पदमश्री ये दूसरे ऐसे ही उपहार सम्भवत: तुम्हारे मुंह पर ताले डालने के लिए तुम्हें थमा दिये गये झुंझने हैं कि तुम इन्हें बजाते रहना और देश को लुटते रहने देना। यदि कहीं स्वाभिमान है तो इन झुंझनों को फेंककर मैदान में आके लघुता (विनम्रता) को लघुता (नीचता) पर वरीयता देकर भारत के सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिए संघर्ष करो।
समर शेष है पाप का भागी नहीं है केवल व्याध।
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।।
मुख्य संपादक, उगता भारत