गीता का सोलहवां अध्याय

काम, क्रोध और लोभ इन तीनों को गीता नरक के द्वार रहती है। आज के संसार को गीता से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि वह जिन तीन विकारों (काम, क्रोध और लोभ) में जल रहा है-इनसे शीघ्र मुक्ति पाएगा। आज के संससार में गीता से दूरी बनाकर अपने मरने का अपने आप प्रबंध कर लिया है। गीता जिस भयंकर अग्निकांड से संसार को बचाना चाहती है सारा संसार पागल होकर उसी भयंकर अग्निकाण्ड में गिरता जा रहा है। यदि यह एक विवेकशील व्यक्ति की दृष्टि से देखा जाए तो सर्वत्र मृत्यु का ताण्डव नृत्य हो रहा है। लोग जितना भी इससे बचने का प्रयास कर रहे हैं उतने ही इसमें फंसते जा रहे हैं। यह महज संयोग नहीं है कि संसार को विकास और उन्नति का सन्मार्ग दिखाने वाले वैज्ञानिकों ने भी इस संसार को समाप्त करने के लिए बारूदी हथियारों का बड़ी भारी जखीरा खड़ा कर लिया है। जिनकी बुद्घि वैज्ञानिक और न्यायपूर्ण होनी चाहिए थी-वे भी संसार को मिटाने के कामों में संलिप्त हो गये हैं। इसका एकमात्र कारण यही है कि संसार ने गीता के समदृष्टि के भाव को भुला दिया है। यदि वैज्ञानिक लोग समदृष्टि का भाव अपना लें तो उनके लिए तेरा-मेरा, अपना-पराया कोई नहीं रहेगा। इनकी संकीर्ण सोच के चलते इन्होंने अपने देश को अपना माना है और संसार के शेष देशों को अपना शत्रु मान लिया है। ऐसी सोच के कारण ही इन लोगों ने संसार को मिटाने का व्यवसाय अपना लिया। इस दृष्टिकोण से आतंकवादियों से भी बड़े आतंकवादी वे वैज्ञानिक हैं जो इस संसार को मिटाने के शोधों में लगे रहते हैं। ये लोग यूं ही विनाशकारी शोधों को लेकर प्रसिद्घ पाते हैं, सम्मान पाते हैं, और यश पाते हैं। सारे संसार की कही मति भंग हो गयी है। जो उन लोगों को सम्मान दे रहा है-जिनका काम संसार का विध्वंस करने का होकर रह गया है।
वास्तव में भौतिकवाद में काम, क्रोध और लोभ नाम के इन तीनों महाभयंकर शत्रुओं की ही वृद्घि होती है। विषयों के संग से कामना की उत्पत्ति होती है। कामना में यदि कोई बाधा आती है तो उस समय यही कामना क्रोध में परिवर्तित हो जाती है। यदि यह कामना निर्बाध आगे बढ़ती जाती है तो यही लोभ में बदल जाती है। आजकल के बड़े-बड़े उद्योगपति, धनपति इसी लोभ में फंसे पड़े हैं।
ये बेचारे एक महाशत्रु के पंजे में फंसे सिसकियां ले रहे हैं, इन्हें पता है कि अब मरना निश्चित है। वास्तव में ये उद्योगपति भी गीता की दृष्टि में सबसे बड़े डकैत हैं। ये उद्योगपति न होकर उन्मादपति, उग्रवादपति, उत्पातपति हैं। क्योंकि जिस प्रकार दूसरे के अधिकार और धन का हनन कर रहे हैं उससे संसार में शान्ति न आकर उग्रवाद, उत्पात, उन्माद में वृद्घि हो रही है। परन्तु इस सबके उपरान्त भी ये लोग बड़े आराम से अपना काम करते जा रहे हैं क्योंकि इन्हें आज के संसार के कानून की सहमति और स्वीकृति मिली हुई है। जबकि गीता इनको समदृष्टि अपनाने की मर्यादा का पाठ पढ़ाती है। जिसे पढक़र संसार का यह सारा वितण्डावाद समाप्त हो सकता है।
पर फिर भी संसार के लोगों को ऐसा लगा है कि ये सिसकियां न लेकर खिल खिलाकर हंस रहे हैं-स्वयं इन्हें भी लोभ का लाभ कष्टप्रद न लगाकर आनंदप्रद लग रहा है, वह भी गलत है, भ्रामक है और स्वयं इन्हें जो कुछ लग रहा है वह भी भ्रामक है। यही अज्ञान है। इसी अज्ञान को ‘गीता’ का ज्ञान मिटा सकता है। गीता कह रही है कि यदि भवबन्धन से मुक्ति चाहते हो तो काम, क्रोध और लोभ इन तीनों दरवाजों पर जाना छोड़ दो क्योंकि ये नरक के दरवाजे हैं। स्वर्ग के दरवाजों पर जाना आरम्भ करो, उनसे अपना परिचय करो और स्वर्ग के दरवाजे दैवी सम्पद है। उसी को अपनाओ, आनंद आ जाएगा।
श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि आत्मा को विनाश की ओर ले जाने वाले काम, क्रोध और लोभ नाम के तीन दरवाजे हैं। मनुष्य को मुक्ति की अभिलाषा है तो इन दरवाजों की ओर जाने वाली आत्मविनाश की पगडंडी से अपने आपको हटाना और बचाना पड़ेगा। हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! जो तम-अन्धकार की ओर ले जाने वाले इन तीनों द्वारों से छूट जाता है-अर्थात अपने आपको उधर से विमुख कर लेता है, वह आत्मा का कल्याण करने वाले कर्मों में रूचि लेने लगता है। जिससे वह परमगति को प्राप्त कर लेता है।
जो व्यक्ति शास्त्र के विधान को छोडक़र अर्थात शास्त्रोक्त स्वर्गगामी मार्ग का अवलम्ब न लेकर मनमाना आचरण करने लगता है, उसे कोई सिद्घि या सफलता कभी प्राप्त नहीं होती। वह सुख की खोज में भटकता फिरता है, पर उसे सुख के स्थान पर दु:ख ही प्राप्त होता है उसे यह पता ही नहीं होता कि तू खोज क्या कर रहा है और पा क्या रहा है? जिस अपनी खोज और प्राप्ति का अन्तर पता चल जाता है वह व्यक्ति परमानन्द को पा लेता है।
अन्त में श्रीकृष्णजी कहते हैं कि जो व्यक्ति शास्त्र के विधान को मानता है और जानता है उसे शास्त्र को ही प्रमाण मानना चाहिए। अत: अर्जुन! क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए-इस बात की व्यवस्था के लिए तू शास्त्र को ही प्रमाण समझ। तुझे अपने सारे कार्य शास्त्रोक्त रीति से ही सम्पन्न करने चाहिए।
16वें अध्याय पर विनोबा जी कहते हैं-
”सम्पत्ति के विषय में आसुरी भाव का उल्लेख करते हुए गीता में कहा है इदमस्ति ‘इदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्’ मेरे पास इतना धन है और बाकी रहा सहा भी है मैं बटोर लूंगा। संसार की सारी सम्पत्ति मुझे चाहिए और मैं उसे प्राप्त करूंगा ही। क्या मैं उसे पाकर सबको बांट दूंगा? नहीं, मैं उस पर सांप बनकर बैठूंगा, खुद ही खाऊंगा, दूसरों को खाने नहीं दूंगा। आज जो धनी-निर्धन का झगड़ा चल रहा है कहीं हड़ताल कहीं तालेबन्दी यह सब सम्पत्ति को हड़पने की आसुरी वृत्ति का ही परिणाम है।”
सचमुच गीता ज्ञान इस संसार की बिगड़ी हुई स्थिति को सुधार सकता है।
क्रमश:

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