संसद में असंसदीय आचरण
एडमण्ड बर्क ने कहा था कि- ”जनता के लिए सबसे अधिक शोर मचाने वालों को उसके कल्याण के लिए सबसे उत्सुक मान लेना सर्वमान्य त्रुटि है।” इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्तमान में हमारी मान्यता यही हो गई है कि संसद या राज्य विधानमंडलों में जो जनप्रतिनिधि अधिक शोर मचाए वही मुखर सांसद या जनप्रतिनिधि मान लिया जाता है। जबकि मुखर का अर्थ यह ना होकर ऐसे सांसद या विधायक से है, जो अपने क्षेत्र की समस्याओं को प्रमुखता से उठाने के साथ-साथ राष्ट्रहित का भी ध्यान रखे, उसके शब्दों में ऐसा संतुलन हो कि उसकी मांग यदि मानी भी जाए तो किसी संप्रदाय, वर्ग या जाति की भावनाओं के वह प्रतिकूल ना हो, और उसका प्रभाव राष्ट्रीय अस्मिता, एकता और अखंडता पर भी ना पड़ता हो।
सी. राजगोपालाचार्य ने कहा था कि- ”निसंदेह सशक्त सरकार और राजभक्त जनता से उत्कृष्ट राज्य का निर्माण होता है। परंतु बहरी सरकार और गूंगे लोगों से लोकतंत्र का निर्माण नहीं होता।” बात स्पष्ट है कि जनतंत्र में सरकार ऐसी हो- जिसे सुनाई देता हो और लोग ऐसे हों- जिनके मुंह में शब्द हों। दारु, मुर्गे, शराब और पैसे में बिकने वाले लोगों के मुंह में शब्द नहीं रहते और दारु, मुर्गे, शराब व पैसे से लोगों के मत खरीदने वाली सरकार को सुनना बंद हो जाता है। फलस्वरूप ऐसी स्थिति में एक सन्नाटा छाया रहता है। सरकार कुछ करती है तो उसकी आहट नहीं होती और जनता कुछ चाहती है तो उसकी आवाज सुनाई नहीं पड़ती। ऐसी स्थिति का सरकार या जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, पर देश की आत्मा अवश्य रोती है। जिसे कुछ संवेदनशील गंभीर लोग ही सुन पाया करते हैं। हमें फैलिक्स फ्रन्कफर्टर के इन शब्दों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि- ‘जनतंत्र सदैव ही संकेत से बुलाने वाली मंजिल है। कोई सुरक्षित बंदरगाह नहीं। कारण यह है कि स्वतंत्रता एक सतत प्रयास है, कभी भी अंतिम उपलब्धि नहीं है।’
जब देश के मतदाता को प्रोपेगेंडा से दिग्भ्रमित किया जाता है और वह भ्रमित हो जाता है- तब मानना चाहिए कि लोकतंत्र की मशीनरी में जंग लग चुका है, ऐसे परिवेश में जो जनप्रतिनिधि बनाकर देश की जनता देश के विधान मंडलों में भेजती है- वह कर्तव्य विमुख और असंसदीय भाषा का प्रयोग करने वाले होते हैं। उन्हें पता नहीं होता कि देश के विधान मंडलों में किस प्रकार बोला जाता है, या किस प्रकार वहां अपनी बात रखी जाती है? भारतीय संविधान का अनुच्छेद 120 हमारे सांसदों को अपनी बात हिंदी, अंग्रेजी या अपनी मातृभाषा में रखने की अनुमति देता है। मातृभाषाएं 12 हैं- जिनमें से किसी में भी बात रखने पर उसका भाषांतर हो जाता है।
संसद की कार्यवाही का शब्दश: एक अभिलेखन तैयार किया जाता है। संसद की कार्यवाही में भाग लेकर जब कोई जनप्रतिनिधि अपनी बात कहता है तो उसके भाषण का एक-एक शब्द इस अभिलेखन पुस्तिका में छपता है, यदि कोई सदस्य असंसदीय भाषा का प्रयोग कर देता है तो पीठासीन अधिकारी के आदेश से या तो वह स्वयं अपने शब्दों को वापस लेता है या फिर उसके उन शब्दों को जो असंसदीय अथवा आपत्तिजनक रहे- कार्यवाही से निकाल दिया जाता है। कार्यवाही से शब्द निकालने का यह आदेश भी सांसद के लिए एक प्रकार का दण्ड ही होता है।
देशहित में आवश्यक होता है कि संसद में असंसदीय भाषा का प्रयोग न किया जाए। वहां तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय का यह कथन ही लागू होना चाहिए कि- ‘राजनीतिज्ञों को नेशन फस्र्ट, पार्टी नेक्स्ट और सैल्फ लास्ट’ की सोच से प्रेरित होकर ही कार्य करना चाहिए। परंतु हम देखते हैं कि संसद के सत्रों में राज्यों के विधान मंडलों के सत्रों में उपाध्याय जी के इस आदर्श से सर्वथा विपरीत आचरण करते हुए हमारे जनप्रतिनिधि अक्सर मिल जाते हैं। ये तोडफ़ोड़, मारपीट, माईक, टेबल, कुर्सी से एक-दूसरे को मारने का प्रयास करते देखे गए हैं। ऐसा तब होता है- जब जनप्रतिनिधियों को सर्वप्रथम तो संसद की गरिमा का ध्यान नहीं होता, दूसरे- वे किसी प्रकार के उग्रवाद से प्रेरित होते हैं, और अपने क्षेत्र की जनता को यही दिखाना चाहते हैं कि मैं यहां वही कर रहा हूं- जिसके लिए आप के बीच जाना जाता हूं। तीसरे- जब जनप्रतिनिधि स्वयं क्रोधी,अविवेकी, अधीर, अगंभीर और कामी होता है तो वह भी समय और परिस्थिति के अनुसार उठने वाले आवेगों को रोक नहीं पाता है। चौथे- जब उनकी बात को सदन सुनने को तैयार नहीं होता है, पांचवे- जब अपने नेता की ओर से अपने सांसदों या विधायकों को यह निर्देश जारी कर दिया गया हो कि अमुक दिन व दिनांक को अमुक विधेयक का या विपक्षी नेता के वक्तव्य का भरपूर विरोध किया जाना है। इन पांचों कारणों से हमारे जनप्रतिनिधि हमारी संसद या राज्य विधानमंडलों में शोर शराबा करते या मारपीट के लिए दौड़ते या कुर्सी-मेज, ध्वनि विस्तारक आदि को तोड़ते-फोड़तेे दिखाई देते हैं और एक दूसरे के लिए आरोप प्रत्यारोप की भाषा में इतना गिर जाते हैं कि उनकी भाषा या शब्दावली पूर्णत: असंसदीय हो जाती है।
जिन जनप्रतिनिधियों की भाषा या शब्दावली संसद या राज्य विधानमंडलों में असंसदीय हो जाती है, उनके लिए यह समझना आवश्यक है कि यह संसद या राज्य विधानमंडल जिसके वह सदस्य हैं, वह एक पवित्र संस्था है और राष्ट्रीय मंदिर है। जिस की पवित्रता का ध्यान रखना उसका धर्म है। इस संस्था को शाश्वत बने रहना है, यह संस्था तो इतिहास की विमल धारा है, जिसकी कल-कल करती जलधारा में वह जलकण मात्र है। उन्हें समय के अनुसार पानी की निर्मल धारा के साथ बहना चाहिए और सब को अपने पवित्र विचार, पवित्र उच्चार और पवित्र आचार से अर्थात मनसा-वाचा-कर्मणा अर्थात चित्ति, उक्ति और कृति की पवित्रता से तृप्त करते हुए रहना चाहिए। वह जितना ही इस पवित्र साम्यता के साधक बनेंगे उतना ही देश की आने वाली पीढिय़ों की आस्था हमारे लोकतंत्र के पावन मंदिरों के प्रति बढ़ेगी। इस आस्था को बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि हमारे सांसदों को अपनी भाषा, संस्कृत और संस्कृति का ज्ञान कराया जाए। उन्हें बताया व समझाया जाए कि यहां तुम लंगर-लंगोट कसकर और पाला खींचकर लडऩे या कुश्ती करने नहीं आए हो, अपितु यहां तो तर्कपूर्ण बहस के माध्यम से तुम्हे अपना राष्ट्रधर्म प्रस्तुत करना है और लोक कल्याण के लिए अपने मस्तिष्क में उठने वाले विचारों को प्रकट कर राष्ट्रसेवा करनी है।
यह मंदिर पवित्र मेधासम्पन्न पुजारियों का अर्थात राष्ट्रभक्त जनप्रतिनिधियों के मंत्रों (महान विचारों) की गूंज को सुनाने वाला मंदिर है- जो कि देशवासियों का तीर्थ स्थल है- इस की गरिमा को यदि गरिमाहीन आचरण के माध्यम से या शोर-शराबे से भंग किया जाएगा तो याद रखना कि देश का इतिहास वर्तमान राजनीति और राजनीतिज्ञों को कोसेगा। देश उन्हीं को स्मरण करता है जो लोग मर्यादा का पालन करते हैं और जो लोग मर्यादा भंग करते हैं उन्हें ‘रावण’ कहकर जलाता है।
हमारे जंप्रीतिनिधियों को ऐसे काम करने चाहिए कि लोग उनकी पूजा करें, उन्हें जलाएँ नहीं। क्योंकि एक मर्यादा पुरुषोत्तम राम का देश है, अमर्यादित और अहंकारी रावण का देश नहीं है।