शंकराचार्य ने हमारे ब्रह्मतेज बल को कभी निस्तेज नहीं होने दिया
राजपूत शब्द ‘क्षत्रिय’ का सूचक
राजपूत शब्द किसी जाति का सूचक नहीं हैं। यह उस वर्ण का सूचक है जिसे मनु महाराज ने ‘क्षत्रिय’ कहा है। इस प्रकार राजपूत शब्द के अंतर्गत सारे क्षत्रिय कुल और राजवंश समाहित हो जाते हैं। ‘अलबेरूनी का भारत’ के लेखक अलबेरूनी ने भारत में कहीं पर भी राजपूत जाति का उल्लेख नहीं किया है। अलबेरूनी की मृत्यु 1048 ई. में हुई थी। वह महमूद गजनवी के साथ भारत आया था। इस प्रकार स्पष्ट है कि महमूद गजनवी के आक्रमण तक भारत में राजपूत शब्द का प्रयोग नहीं हो रहा था।
अग्निवंश का गलत अर्थ
हमारे इतिहास को विकृत करने के लिए विदेशियों ने सारे क्षत्रियों को विदेशी मूल का सिद्घ करने का प्रयास किया और उस प्रयास का शिकार हमारे अपने इतिहासकार भी हो गये। इन लोगों ने अग्निवंश का अर्थ इस प्रकार लिया कि जैसे यहां विदेशी जातियों को यज्ञादि के माध्यम से शुद्घ कर उन्हें अपने समाज में मिलाया गया। जिन विदेशी लोगों ने अथवा विद्वानों ने भारत की क्षत्रिय जातियों को विदेशी सिद्घ करने का प्रयास किया उनमें विलियम कुक का नाम सर्वोपरि है। वह लिखता है-
”अब यह निश्चित हो गया है कि बहुत से वंशों की उत्पत्ति विदेशी विजेता शक और कुषाणों से हुई, अधिक निश्चित यह है कि वे हूणों से उत्पन्न हुए, जिन्होंने गुप्त साम्राज्य को 480 ई. में समाप्त किया था। गूजरों, हूणों से संबंधित थे जब हिंदू हो गये तब उनके जो मुखिया थे, वे उच्च कुल के राजपूत हो गये।” (टॉड कृत, ‘राजस्थान का इतिहास’, संस्करण की भूमिका खण्ड 1 पृष्ठ 31)
भारत के जिन विद्वानों ने क्षत्रियों के विदेशी होने की बात को स्वीकार किया है उनमें डा. भण्डारकर का नाम विशेष है। वह लिखते हैं-”हम नहीं जानते कि परमार किस वंश के हैं, परंतु हमारी बुद्घि यही विश्वास दिला रही है कि वे विदेश से आये हुए लोगों के ही वंशज हैं। चौहानों की उत्पत्ति भी गूजरों से हुई है।”
भारत में कोई भी क्षत्रिय जाति विदेशी नही
वस्तुत: क्षत्रियों के विदेशी होने का कुचक्र केवल इसलिए चलाया गया कि भारतीयों के मन में इस विचार को गहराई से स्थापित किया जा सके कि यहां जो भी लोग हैं वे सभी विदेशी हैं और भारत का भारत के पास अपना कुछ भी नहीं है। हमारा मानना है कि भारत की कोई भी क्षत्रिय जाति विदेशी नहीं है। यदि यह सत्य है कि 1048 ई. से पूर्व भारत में ‘राजपूत’ शब्द का प्रयोग नहीं था और गूजरों या अन्य क्षत्रिय अग्निवंशी कुलों ने भारत की एकता और अखण्डता के लिए प्रारंभ से ही घोर परिश्रम किया तो यह केवल इसलिए किया गया था कि वे इस भारतभूमि को अपना मानते थे। साथ ही यह भी कि अग्निवंशी राजकुलों की उत्पत्ति भारत के धर्म और संस्कृति की रक्षार्थ हुई थी और उनका यह संस्कार पहले दिन से लेकर आज तक बना हुआ है। विदेशी लोग भारत की एकता और अखण्डता के लिए कभी संघर्ष नहीं करते अपितु वे तो इस सनातन राष्ट्र के टुकड़े करने की ही सोचते। जैसा कि इतिहास की बाद की घटनाओं ने सिद्घ भी किया।
इसके अतिरिक्त क्षत्रियों के विदेशी होने की बात कहने वाले लोगों के पास इस प्रश्न का क्या उत्तर है कि इन विदेशी लोगों का मूलधर्म क्या था? जब संपूर्ण भूमंडल पर आर्यों का राज्य था और सर्वत्र आर्य धर्म ही प्रचलित था तब यदि कोई व्यक्ति इधर से उधर चला भी गया तो क्या वह विदेशी हो गया माना जा सकता है? कदापि नही।
अग्निवंशी क्षत्रिय स्वतंत्रता के लिए करते रहे संघर्ष
इसके अतिरिक्त एक बात यह भी विचारणीय है कि भारत के सभी क्षत्रियों ने और अग्निवंशी राजकुलों ने विशेषत: सल्तनतकाल में और मुगलकाल में विदेशी सत्ता का सदा विरोध किया और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपना बढ़-चढक़र योगदान दिया। इनके भीतर कभी भी विदेशी सत्ताधीशों की गुलामी स्वीकार करने का विचार तक नहीं आया। वह दुर्गंधित वायु को घर से निकालने के लिए संघर्ष करते रहे। आज भी ये लोग अपने गोत्रों को केवल इसलिए ही लगाते हैं कि इन्हें अपने अतीत पर गर्व होता है। पृथ्वीराज चौहान के चौहान वंशी लोग चौहान लिखकर आज भी प्रसन्न होते हैं। जबकि किसी गद्दार के गोत्र को लगाकर उससे अपना संबंध कोई व्यक्ति स्वीकार नहीं करता। यह एक संस्कार है जो हर मानव के मन मस्तिष्क में रचा-बसा होता है।
अपने गोत्र से लोगों को मिलती है प्रसन्नता
आज भारत में लोग स्वयं को ‘राजपूत’ कहकर प्रसन्न होते हैं, जाट, गुर्जर, यादव, मौर्य, वैस, गहलौत, वल्लभी, बडग़ूजर, गहड़वाल, बुंदेला, दीक्षित, परमार, काकतीय, कछवाहा आदि कहकर प्रसन्न होते हैं। इसके पीछे कारण केवल एक ही है कि इन लेागों का इतिहास बड़ा उज्ज्वल है। इन्होंने देश की ेसेवा की और सुल्तानों या मुगल बादशाहों से निरंतर सैकड़ों वर्ष तक किसी न किसी प्रकार टक्कर लेते हुए देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहे।
राजपूतों व गूजरों के विषय में इतिहासकारों के मत
चिंतामणि विनायक वैद्य का कहना है-”इस समय में जिनका उदय हुआ और जिन्होंने कम से कम चार सौ वर्ष तक मुसलमानों के आक्रमण का प्रतिकार किया वे राजपूत कौन थे और कहां से आये थे? वे भारतवासी आर्य और वैदिक आर्यों के अत्यंत प्रतापी वंशज थे। उन्होंने बड़ी वीरता से अपने सनातन धर्म की रक्षा की। इसलिए उन्हें (सभी क्षत्रियों को) हिंदू धर्म रक्षक कहना अनुचित न होगा। ….
अपने पूर्वजों के धर्म की रक्षा के लिए वैदिक आर्यों के अतिरिक्त और कौन लोग प्राण हथेली पर लेकर लड़ सकते हैं? राजपूत वैदिक आर्यों के ही वंशज हैं, उनकी परंपरा भी यही बता रही है कि वे सुप्रसिद्घ सूर्य और चंद्रकुल में उत्पन्न हुए थे। तीसरा प्रमाण यह है कि सन 1909 की जनगणना के समय मानव जाति शास्त्र के अनुसार चेहरा और सिर नापने पर राजपूत आर्यों के ही वंशज सिद्घ हुए। उनकी उठी हुई और सरल नासिकाएं लंबे सिर और ऊंचे कद आर्यत्व के द्योतक हैं। समस्त पृथ्वीतल पर आर्यों की यही पहचान मानी जाती है।”
इसी प्रकार कृष्णा स्वामी आयंगर का मानना है कि-”गुजरों के भारत में आने की मान्यता पूर्ण सिद्घ नहीं है। मैंने काफी कोशिश करके उस सारी सामग्री का अध्ययन किया, जिसमें गुर्जरों की मान्यता दी गयी है, किंतु इस सारी सामग्री में मुझे गुर्जरों के (विदेशों से भारत) आने का कोई प्रमाण नहीं मिला। मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि गुर्जर विदेशी नहीं थे।” (संदर्भ : जनरल ऑफ दी लेटर्स यूनिवरसिटी, कलकत्ता)
भारतीय समाज में क्षत्रियों के भाट लोग प्राचीनकाल से ही उनके वंश वृक्ष की पुस्तिका (पोथी) रखते थे। जिसका बखान ये लोग समय-समय पर करते हैं। आज भी यह परंपरा चल रही है। इस पुस्तिका में भाट लोग अपने-अपने यजमानों की वंशोत्पत्ति और गोत्र की उत्पत्ति पर भी बड़ा प्रामाणिक प्रकाश डालते हैं। विभिन्न पोथियों के अध्ययन के उपरांत भी हमें किसी गोत्र या क्षत्रिय जाति के विषय में यह प्रमाण नहीं मिला कि अमुक गोत्र या जाति के लोग विदेशी हैं।
क्षत्रिय जातियों के विदेशी होने का कोई प्रमाण किसी के पास नही
इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि जब कोई जाति कहीं किसी दूर देश में जाकर बसती है तब प्रथम तो वह सारी की सारी जाति उठकर विदेश में नहीं चली जाती, दूसरे-यदि कुछ लोग कहीं अन्यत्र विस्थापन कर भी लेते हैं तो वह अपने साथ अपने मूलदेश की बहुत सी परंपराओं, मान्यताओं और सिद्घांतों को लेकर जाते हैं, ये परंपराएं, मान्यताएं और सिद्घांत उस जाति का या जाति के लोगों का दूसरे देश में जाने पर भी देर तक मार्गदर्शन करते रहते हैं। जिन्हें ये लोग अपने साहित्य और इतिहास में भी स्थान देते हैं। क्योंकि छोड़े हुए स्थान को व्यक्ति चयन किये गये स्थान से सदा ही उत्तम मानता है और उसकी स्मृतियां व्यक्ति को देर तक प्रभावित करती रहती हैं। अब जिन भी जातियों को भारत में विदेशी बताकर भारत के विजय, वैभव और वीरता की गौरवगाथा से भरे इतिहास को विकृत करने का कुचक्र विदेशियों ने चलाया है, वे कहीं भी यह सिद्घ नहीं कर पाएंगे कि अमुक लोगों की अमुक समकालीन पुस्तक में यह लिखा है-जिससे उनके विदेशी होने के प्रमाण की पुष्टि होती है।
वस्तुत: सच यही है कि भारत के इतिहास का विकृतीकरण भारत की मूल जातियों (वर्णों को) को भी विदेशी सिद्घ करने के पीछे का कारण एकमात्र यही है कि इससे भारत के समाज में जातीय विसंगतियां और जातीय विषमता से उदभूत पारस्परिक वैमनस्य की भावना उत्पन्न होगी। जिससे विदेशियों को भारत पर शासन करने का अवसर उपलब्ध होता रहेगा।
भारत सबका आदि देश
हमारा किसी भी जाति के विदेशी होने या न होने का प्रश्न उठाना या उसका समाधान करना यहां हमारा उद्देश्य नहीं है। हम पूर्व के खण्डों में भी यह स्पष्ट कर चुके हैं। परंतु हमने यह प्रश्न अब जानबूझकर उठाया है। क्योंकि जिन लोगों ने हमारी संस्कृति की रक्षार्थ और देश की एकता और अखण्डता को बनाये रखने के लिए सैकड़ों वर्ष का संघर्ष किया-उनके विषय में सच का महिमामंडन किया ही जाना चाहिए कि उनका आदि देश भारत ही था।
जिसके धर्म, संस्कृति और इतिहास की रक्षा करना उन लोगों ने अपने लिए अपेक्षित और उचित माना। इसका कारण केवल यही था कि इन लोगों ने वेदों को मानवता की सबसे बड़ी धरोहर मानकर उनके धर्म को मानवधर्म समझकर उसकी रक्षा की प्रतिज्ञा ली। रामायण और महाभारत के जीवनप्रद और शिक्षाप्रद स्थलों और श्लोकों को इन लोगों ने जीवन की विषमताओं से लडऩे और जूझने का अमोघ अस्त्र माना। उपनिषदों और स्मृतियों को इन्होंने अतुल्य और अनुपम मानकर उन्हें मानव मात्र के लिए उपयोगी माना और उनके लिए संघर्ष करना जीवनव्रत बना दिया, उन लोगों को विदेशी कहना आत्मवंचना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह उनकी देशभक्ति का अपमान करना तो है ही साथ ही सुल्तानों और बादशाहों से लडऩे वाले हिंदूवीरों को विदेशियों से विदेशियों का संघर्ष कहकर सारे आंदोलन की पवित्रता की और उसके पवित्र उद्देश्य की हवा निकाल देना भी है।
आदि शंकराचार्य के ‘पंच प्यारे’
शंकराचार्य ने हिंदू वैदिक धर्म की रक्षार्थ एक क्रांतिकारी कदम उठाया और अपने लक्ष्य की साधना के लिए समाज में से ही ‘पंच प्यारे’ खोज लिये। यदि इतिहास का निष्पक्ष अवलोकन किया जाए और सारी परिस्थितियों पर निष्पक्ष लेखन किया जाए तो यह ‘पंच प्यारे’ ही अंत में भारत की पूर्ण स्वतंत्रता को प्राप्त कराने में सर्वाधिक सहायक सिद्घ हुए। स्वामी शंकराचार्य की दूर दृष्टि को हमें नमन करना चाहिए, जिन्होंने ‘सत्यमेव जयते’ की परंपरा को देश के लिए उस समय उचित माना। उनका दिया हुआ संस्कार उनकी पूर्ण साधना को प्राप्त करके इस देश का सामूहिक संस्कार बन गया, जिसने सैकड़ों वर्ष तक इस देश का पराक्रमी नेतृत्व किया। उसी पराक्रमी नेतृत्व के नायक शलि वाहन पर्यंत शिवाजी और स्वामी शंकराचार्य पर्यंत स्वामी दयानंद सरस्वतीजी महाराज तक अनेकों वीर योद्घा और धर्मयोद्घा बने।
यदि स्वामी शंकराचार्य उस समय युद्घ के स्थान पर बुद्घ की बातें करने लगते तो जैसे बौद्घ धर्मावलंबी बने-अफगानिस्तान को मुस्लिम बनाने में मुस्लिम आक्रांताओं को देर नहीं लगी थी, वैसे ही भारत को भी मुस्लिम बनाने में देर नही लगती।
‘लोहा गलाने’ के लिए आगे कर दीं छातियां
धन्य है स्वामी शंकराचार्य जिन्होंने यहां लोहा गलाने (विदेशियों की तलवारों, ढालों और अन्य अस्त्र शास्त्रों को) का उद्योग आरंभ करा दिया और धन्य हैं-भारत के वे अनेकों असंख्य वीर योद्घा जिन्होंने जब लोहा गलाने के लिए कहीं अन्यत्र स्थान नहीं मिला तो अपनी छाती को ही उसके लिए आगे कर दिया। लोहा गलाने की उस भट्टी में जलने वाली आग को प्रज्ज्वलित किये रखने के लिए किसी ने अपना सिर दिया तो किसी ने अपना कलेजा काटकर ही उसमें डाल दिया। कितना महान संस्कार था-यह, जिसके लिए संपूर्ण भारतवर्ष को अपने महान स्वामी शंकराचार्य के प्रति ऋणी होना चाहिए। क्योंकि आधुनिक भारत के निर्माता कोई अन्य नहीं होकर स्वामी शंकराचार्य जैसे लेाग हैं जिनकी दूरदृष्टि से विदेशी सत्त्ता को एक दिन यहां से विदा होना पड़ा और हम आज स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक होने का गर्व रखते हैं।
मुगलकाल में जितने योद्घा बाबर से लेकर औरंगजेब तक उनकी सत्ता और निर्दयता से भिड़े वे सबके सब उसी महान संस्कार की फलश्रुति थे, जो स्वामी शंकराचार्य ने सैकड़ों वर्ष पूर्व रोपित कर दिया था। शंकराचार्य जी की इस क्रांतिकारी योजना को जानबूझकर हमारी दृष्टि से ओझल रखा गया है। जिसका परिणाम यह हुआ है कि शंकराचार्य को हमने केवल एक धार्मिक पूजापाठ वाला व्यक्ति बनाकर छोड़ दिया है।
बुद्घ की अहिंसा का अतिरेकी प्रचार-प्रसार
वास्तव में भारत में महात्मा बुद्घ की अहिंसा का अतिरेकी प्रचार-प्रसार सम्राट अशोक ने किया था। जिस कारण बौद्घधर्म बड़े वेग से भारत में फैला। अशोक के इस अतिरेकी कार्य पर स्वातंत्रयवीर सावरकर ने भारतीय ‘इतिहास के छहस्वर्णिम पृष्ठ भाग 1’ पृष्ठ 56 पर लिखा है -”बौद्घधर्म में दीक्षित होने के पश्चात अशोक ने बौद्घधर्म के अहिंसा प्रभृति कुछ तत्वों और आचारों का जैसा अतिरेकी प्रचार किया, उसका भारतीय राजनीति पर, राजनीतिक स्वाधीनता पर और साम्राज्य पर अनिष्टकर प्रभाव हुआ है।
राजशक्ति के बल पर अशोक ने अपने साम्राज्य में और बाहरी देशों में भी बौद्घधर्म की अहिंसा का एक अतिरेकी प्रचार प्रारंभ कर भारतीय साम्राज्य के मूल पर ही जो आघात किया था वह राष्ट्रीय अस्तित्व और स्वातंत्र्य के लिए कहीं अधिक महंगा था। सभी प्रकार का शस्त्रबल हिंसामय और पापकारक है तथा क्षात्रधर्म का पालन करने वाले हिंसक तथा पापियों की श्रेणी में रखने योग्य हैं, जैसे प्रचार से क्षात्रवृत्ति पर आघात लगाया गया। राष्ट्र की रक्षा के लिए लडऩे वाले तथा वीरगति स्वीकार करने वाले क्षत्रिय वीर सैनिकों की तुलना में बौद्घ धर्मानुसार जीवन यापन करने वालों को उच्च पुण्यात्मा और पूजा योग्य घोषित किया गया, जिससे क्षात्र धर्म को क्षति पहुंची।”
आत्यंतिक अहिंसा और स्वामी शंकराचार्य
स्वामी शंकराचार्य का विचार था कि आत्यंतिक अहिंसा भारतीय क्षात्रधर्म और राष्ट्रनीति का विध्वंस कर देगी। वह श्रीराम जी और श्रीकृष्ण के यौद्घेय स्वरूप को राष्ट्र के लिए और राष्ट्रनीति के लिए उपयुक्त मानते थे।
सल्तनत काल और मुगलकाल में भारत में बड़ी शीघ्रता से जनसंख्या का विस्थापन हुआ। लोग सुरक्षित स्थानों की ओर भागते थे और वहीं अपने ठिकाने बनाकर शत्रु से संघर्ष करते थे। इन पलायनों और जनसंख्या के विस्थापन में वही जातियां और गोत्रों के लोग सम्मिलित रहे जो अपनी समकालीन सत्ता का अधिक विरोध कर रहे थे और इस कारण जिन्हें सत्ता की क्रूरता और निर्दयता का अधिक शिकार बनना पड़ रहा था। इन लोगों के इस प्रकार के पलायन का प्रमुख कारण चूंकि देशभक्ति थी इसलिए इनके वंशज आज तक अपने पूर्वजों के इधर-उधर घूमने को और बहुत देर कष्ट सहकर कहीं किसी निश्चित स्थान पर बस जाने को अपना सौभाग्य समझते हैं। जिस देश में सदियों तक कष्ट सहने वाली अपनी पूर्वज पीढिय़ों को लोग आज तक गौरव के साथ स्मरण करते हों, उस देश के लोगों को भला कायर कैसे माना जा सकता है?
सबसे बड़ा संकट पहचान का
जिस समय देश की क्षत्रिय जातियां इधर-उधर भागी फिर रही थीं और पहाड़ों या जंगलों में रहकर अपना स्वाधीनता संग्राम चला रही थीं उस समय उनके सामने सबसे बड़ा संकट पहचान का था। अच्छे-अच्छे कुलीन घरानों के लोगों को जब जंगलों में या पर्वतों पर रहते-रहते सदियां गुजर जातीं तो वह अपनी पहचान अपने गोत्रों से सुरक्षित रखते थे। अपनी पहचान को और भी अधिक स्पष्ट करने के लिए ये लोग अपने साथ अपने-अपने भाट रखते थे। मुस्लिमों और अंग्रेज इतिहासकारों ने हमारे क्षत्रियों की गोत्रीय पहचान और भाट की पोथी को इतिहास के लेखन के लिए सर्वथा अविश्वसनीय माना। कितना दुर्भाग्य था-भारत का कि जो चीजें इतिहास लेखन के लिए सर्वाधिक उपयोगी सिद्घ हो सकती थीं उन्हें उपेक्षित कर दिया गया।
‘ब्रह्मतेज’ के उपासक हमारे पूर्वज
हमारा भारतीय धर्म जिस दिन मानवता ने आंखें खोली थीं उसी दिन से यह घोष करता चला आ रहा है कि ‘ब्रह्मतेज’ धारी व्यक्ति के मस्तक से ऐसी किरणें निकलती हैं-जिनसे शत्रु भय खाता है। जैसे ईश्वरीय दिव्य शक्तियों के समक्ष दुष्टता का विनाश होने लगता है और मानव का भीतर से निर्माण होकर वह दिव्यता को प्राप्त करने लगता वैसे ही ‘ब्रह्मतेज’ युक्त व्यक्ति के प्रभाव के सामने दुष्ट व्यक्ति स्वयं ही भागने लगता है। इसी ‘ब्रह्मतेज’ के उपासक हमारे वे सभी पूर्वज रहे जिन्होंने भारत का दीर्घकालीन स्वातंत्र्य समर लड़ा। जो देश ‘ब्रह्मतेज’ को त्याग देता है वह अपनी स्वतंत्रता को खो देता है। हमारा ‘ब्रह्मतेज’ क्षीण तो हुआ पर हमारे कितने ही जननायकों की प्रेरणा से हम ‘निस्तेज’ कभी नहीं हुए और कदाचित यही कारण रहा कि हम एक दिन अपने ‘ब्रह्मतेज’ से अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में सफल हो गये। इस स्वतंत्रता को लाने में हमारी गोत्रीय परंपरा का विशेष महत्व है।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत