अभी हाल ही में संपन्न हुए कुछ उपचुनाव में विपक्षी एकता का प्रतीक बना गठबंधन बाजी मार ले गया है और भाजपा को पराजय का मुंह देखना पड़ा है। यह चुनाव परिणाम चौंकाने वाले नहीं कहे जा सकते। इनको लेकर ऐसी ही आशा थी- इसलिए परिणाम आशानुरूप हैं। विपक्ष ने बड़ी सावधानी से अपनी चुनावी बिसात बिछाई थी, और ऐसा माहौल बना दिया था कि जैसे चुनाव देश के अन्य भागों में लोकसभा या विधानसभा की रिक्त हुई सीटों के लिए ना होकर केवल कैराना की लोकसभा सीट के लिए ही हो रहा है।

विपक्ष के इस दांव को भाजपा के ‘चाणक्य’ भी नहीं समझ पाए और बड़ी सरलता से वह चुनाव हार गए। वास्तव में विपक्ष को मुस्लिम बाहुल्य कैराना सीट को लेकर यह विश्वास था कि यदि हम सब यहां एक हो गए तो चुनाव परिणाम हमारे पक्ष में ही आएगा। इसलिए विपक्ष के रणनीतिकारों ने सारा ध्यान कैराना पर लगाया और उसे इतना महत्वपूर्ण बनाने में सफलता प्राप्त की कि अन्य सीटों के चुनाव का जिक्र ही मीडिया में समाप्त हो गया। भाजपा के ‘चाणक्यों’ की चाणक्यनीति देखिए कि वह कैराना में ‘हिंदू पलायन’ को मुख्य मुद्दा बना रहे थे। यह मुद्दा तो ‘कटे पर नमक छिडक़ने’ जैसा था। इससे वह लोग एक हो गए जो हिंदू पलायन के लिए जिम्मेदार थे।

इस समय भारतीय राजनीति में एक नया दौर देखने को मिल रहा है। अब ऐसा लगता है कि राजनेताओं का काम शोर मचाने का होकर रह गया है। उनकी सोच बन गई लगती है कि शोर मचाओ और शोर मचा कर ही अपने विपक्षी के हौंसले पस्त कर दो, उसका मनोबल तोड़ दो या फिर जनता की नजरों में उसे इतना निकम्मा, राष्ट्रविरोधी या समाज विरोधी सिद्ध कर दो कि वह लोगों की नजरों में गिर जाए और तुम्हारा काम सध जाए। इस प्रकार की प्रवृति से भाजपा भी किसी से पीछे नहीं है। इसी शोर को विपक्ष ने कैराना में हथियार बनाया और अपने विरोधी का सफाया कर दिया। यद्यपि कैराना का मुस्लिम बाहुल्य होना ही भाजपा की हार का कारण है, पर विपक्ष ने शोर मचाकर और फिर जीत के पश्चात अपनी- अपनी पीठ सहलाकर विपक्ष के नेताओं ने जनता के सामने स्वयं को एक सफल योजनाकार के रूप में तत्कालीन सफलता तो प्राप्त की ही है। लेकिन फिर भी यह ध्यान देने योग्य है कि सारे विपक्ष की एकता के उपरांत भी भाजपा की उम्मीदवार 486000 वोट लेने में सफल हुई हैं। यदि विपक्ष के मत दो जगह भी विभाजित हो जाते तो भी भाजपा यहाँ शानदार जीत दर्ज करती। इसका अर्थ है कि भाजपा अब भी चुनाव हारी नहीं है, अपितु वह चुनाव जीती है। उसकी समझदारी इसी में है कि वह इस चुनाव परिणाम पर चुप रहते हुए 2019 की तैयारी करे जब विपक्ष के मत बटने निश्चित हो जाएंगे।

देश में विपक्ष का सशक्त होना अति आवश्यक है। सशक्त विपक्ष लोकतंत्र का ‘प्राण’ होता है। परंतु प्रश्न है कि क्या हम ‘होली के हुड़दंग’ को एक समझदार लोगों की सभा कह सकते हैं? सम्भवत: कदापि नहीं। समझदार लोगों की सभा और होली के हुड़दंग में आकाश-पाताल का अंतर है। बिल्कुल इसी प्रकार शोर मचाने वाले विपक्ष में और सरकार की लगाम पकड़ कर चलने वाले विपक्ष में भी आकाश-पाताल का अंतर होता है। कैराना में विपक्षी एकता दिखाई नहीं दी, अपितु विपक्ष का लडक़पन दिखाई दिया है। विपक्ष आज भी विभाजित है, उसके दलों के ‘एजेंडे, झंडे, फण्डे और हथकंडे’ सब अलग-अलग हैं। उसे एकता तो अभी दिखानी है। जिसके लिए देश की जनता को विश्वास दिला रहा है कि 2019 में वह ‘एक होकर’ चुनाव लड़ेगा।

भारत में यह कभी संभव नहीं है कि विपक्ष एक हो जाए। यहां महत्वाकांक्षाएं इतनी हैं कि उन्हें आप एक बर्तन में समाहित कर ही नहीं सकते। ना ही इतनी सारी विचारधाराओं को आप एक छत के नीचे ला सकते हैं। ऐसे भी दल हैं जो देश के संसदीय लोकतंत्र में और वर्तमान संविधान में तनिक भी आस्था नहीं रखते। जबकि कुछ ऐसे क्षेत्रीय दल भी हैं जो अपने एजेंडे के अनुसार देश तोडऩे की गतिविधियों में संलिप्त हैं। ऐसे लोगों को या ऐसे दलों को आप कैसे ‘एक’ कर सकते हैं? फिर भी जो एकता हमें दिखाई दे रही है वह केवल अपना अस्तित्व बचाए रखने की विपक्ष की कवायद मात्र है।

जिस समय अस्तित्व का संकट सामने हो, उस समय शत्रु को एक दो कदम पीछे हट कर भी लोग मन को तसल्ली दे लिया करते हैं। विपक्ष ने जिस एकता का राग छेड़ा है वह वैसी ही एकता है जैसी हम जनता पार्टी के गठबंधन के समय 1977 में देख चुके हैं। और उसके बाद 1989 में एच.डी.देवगौड़ा व गुजराल जैसे प्रधानमंत्रियों को बनाते समय देख चुके हैं। उस समय विपक्ष का वास्तविक उद्देश्य सत्ता की प्राप्ति था, और आज भी यही है। इस समय ‘सत्तावाद बनाम राष्ट्रवाद’ के बीच देश की राजनीति झूल रही है। सत्तावादी दृष्टिकोण को यदि राष्ट्रवादी दृष्टिकोण शासित अनुशासित करने लगे तो हम देखेंगे कि देश में एक और क्रांति हो जाएगी।

यह सच है कि राष्ट्रवाद सत्तावाद से ही जन्मता है- पर इसके लिए यह भी ध्यान रखना होगा कि सत्तावाद जब राष्ट्रवाद के लिए समर्पित हो तभी वह राष्ट्रवाद का जनक हो जाता है। सत्ता के लिए विपक्ष का साथ आना राष्ट्रवाद का जन्म नहीं हो सकता। इससे तो स्वार्थवाद को प्रोत्साहन मिलेगा। भाजपा के मोदी का विकल्प विपक्ष को देना अभी शेष है। विपक्ष के पास अभी मोदी नहीं हैं। जबकि भाजपा के पास है। भाजपा कार्यकर्ताओं में अमित शाह के प्रति लगभग आक्रोश का सा भाव है, और अरुण जेटली के प्रति लोगों में असंतोष है- पर मोदी आज भी देश के मतदाताओं की दृष्टि में अजेय योद्धा हैं। इस सच की कोई काट यदि विपक्ष के पास हो तो उसे वह स्पष्ट करे?

यह सारे ‘अखिलेश, मायावती, लालू यादव, राहुल गांधी, अजीत सिंह, ममता बनर्जी, केजरीवाल’ आदि सब मिलकर भी अभी ‘वजन’ में मोदी के बराबर के नहीं हो पा रहे हैं। देश का मतदाता भी इस सच को समझ रहा है। सचमुच विपक्ष को अपनी उर्जा इस समय ‘मोदी काट’ के लिए मोदी जैसे विराट व्यक्तित्व के निर्माण पर व्यय करनी चाहिए। दुर्भाग्य है कि विपक्ष इस सच को स्वीकार न कर इधर-उधर भटक रहा है। और लडक़पन वाले शोर को मचाकर देश का ध्यान भटकाने का कार्य कर रहा है। इसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जा सकता। 2019 आ लिया है और हम देख रहे हैं कि देश की राजनीति अभी भी ‘दलदल’ में फंसी है।

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