सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय 19 ( क ) महर्षि दयानंद का स्वराज्य दर्शन
महर्षि दयानंद का स्वराज्य दर्शन
स्वामी दयानंद जी महाराज संसार के समकालीन इतिहास के सबसे बड़े स्वराज्यवादी हैं। उनके स्वराज्यवाद की अवधारणा अन्य राजनीतिक मनीषियों के चिंतन से बहुत ऊंची है। संसार के अन्य स्वराजवादी चिंतक जहां केवल और केवल अपने विचारों को राजनीति तक सीमित रखते हैं, वहीं स्वामी जी महाराज ने स्वराजवाद को वेद, उपनिषद और एकेश्वरवाद के साथ समन्वित करने का प्रयास किया। इसके पीछे उनका कारण यह था कि वेद उपनिषद से अन्यत्र जितने भी ग्रंथ हैं, वह सारे के सारे मनुष्य के मन को भरमाते हैं। जिससे अनेकता पैदा होती है और अनेकता में भ्रमित हुआ मनुष्य एक ईश्वर के प्रति निष्ठावान न होने के कारण भटक कर ही संसार से चला जाता है। जब मनुष्य का मन मस्तिष्क एक चिंतन के साथ समन्वित हो जाता है और एक देव के प्रति आस्थावन हो उठता है तभी वह स्वराज्य के सही अर्थ समझ पाता है। ऐसी अवस्था को प्राप्त मनुष्य स्वराज्य के संदर्भ में यह भी समझ जाता है कि इसका अभिप्राय केवल अपने अधिकारों की प्राप्ति करना नहीं है अपीतु दूसरे के अधिकारों का संरक्षण करना भी है। स्वामी जी महाराज के द्वारा मूर्ति पूजा का विरोध करने का एक कारण यह भी था कि मूर्ति पूजा से एकेश्वरवादी भारत अनेकेश्वरवादी हो गया। जिससे समाज में विभिन्नताओं ने जन्म लिया और लोग अपने-अपने मत, पथ व संप्रदाय को ही एक दूसरे के मत ,पंथ, संप्रदाय से ऊंचा और श्रेष्ठ मानने लगे।
इतिहास के क्षेत्र में राजनीति
स्वामी दयानंद जी महाराज की स्वराज्यवाद की अवधारणा में किसी प्रकार की लाग लपेट नहीं है। किसी प्रकार का तुष्टिकरण नहीं है और किसी भी प्रकार का छद्मवाद नहीं है। वह समाज के किसी भी वर्ग को मौलिक अधिकारों से वंचित करना नहीं चाहते। इसके विपरीत प्रत्येक व्यक्ति को अपने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकार देने के पक्षधर हैं। भारत की सामासिक सांस्कृतिक विचारधारा को वह राजनीति के क्षेत्र में स्थापित करने के लिए प्रयासरत रहे। इसके पीछे कारण केवल एक था कि ऋषि यह बात भली प्रकार जानते थे कि राजनीति ही वह क्षेत्र है जो सभी का नेतृत्व कर सकती है। यही कारण है कि इतिहास के क्षेत्र में राजनीति को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। राजनीति शक्ति संपन्न होती है। सत्ता उसके हाथ में होती है। यही कारण है कि वह परमपिता परमेश्वर की व्यवस्था को सुचारु रुप से लागू करने के लिए कार्य कर सकती है। इसके लिए आवश्यक है कि शासक और शासक वर्ग वैदिक विद्वान हो। उसका चरित्र ऊंचा हो । जितेंद्रिय और तत्वदर्शी हो। इसके अतिरिक्त समाज की अन्यायकारी शक्तियों का दमन करने वाला भी हो।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने सत्यार्थ प्रकाश को लिखते समय ही यह स्पष्ट कर दिया था कि जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है, अथवा मत मतांतर के आग्रह से रहित अपने और पराए का पक्षपात शून्य, प्रजा पर माता पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।
स्वामी जी महाराज ने “आर्याभिविनय” के अंतर्गत लिखा है कि अन्य देशवासी राजा हमारे देश में कभी न हो, तथा हम लोग पराधीन कभी न रहें। स्वामी जी महाराज ने बिना लाग लपेट के अन्यत्र कई स्थानों पर भी इस बात को लिखा और स्पष्ट किया है कि उनके स्वराजवाद का अभिप्राय विदेशी शासन का अंत करना है। जिस समय स्वामी जी महाराज इस प्रकार के स्पष्ट संबोधन के माध्यम से देशवासियों को स्वराज्य के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित कर रहे थे उस समय कांग्रेस का जन्म भी नहीं हुआ था। जब कांग्रेस का जन्म हुआ तो स्वामी जी महाराज की इस बात को समझने के लिए भी उसे 45 वर्ष का समय लगा।
इसी प्रसंग में स्वामी जी महाराज ने यह भी बताया है कि “अभाग्योदय और आर्यों के आलस्य, प्रमाद ,परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किंतु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखंड ,चक्रवर्ती ,स्वाधीन स्वतंत्र, निर्भय राज्य नहीं है।”
स्वामी जी महाराज ने ऐसा कह कर देश की तत्कालीन राजनीति को भारत के प्राचीन इतिहास के साथ जोड़ दिया। लोगों का आवाहन किया कि वर्तमान राजनीति पूर्णतया पथभ्रष्ट है इसलिए इसको स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने लोगों को यह भी समझाया कि यदि भारत की उन्नति वास्तव में चाहते हो तो भारत के अतीत की ओर अर्थात इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों की ओर चले जाओ। उनके द्वारा दिए गए उद्घोष “वेदों की ओर लौटो” का संकिर्ण अर्थ लेने की आवश्यकता नहीं है। उनके इस उद्घोष के व्यापक अर्थ हैं। जिन्हें हमको व्यापक अर्थों में ही ग्रहण करना चाहिए।
स्वामी जी महाराज ने अपनी स्वराज्यवादी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए अंग्रेजों को ललकारते हुए यह कहा था कि भारत भारतीयों के लिए है। जबकि कांग्रेस या बाद के अन्य संगठन बहुत देर तक अंग्रेजों को भारत में रहने देने के लिए कार्य करते रहे।। उनकी धारणा थी कि भारत का भारत के पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिस पर वह गर्व और गौरव कर सके। अंग्रेजों ने भारत आकर भारतीयों को बहुत कुछ सिखाया है। अंग्रेजों का भारत में बने रहना उचित है।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने लिखा था ….
नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपने एक सहपाठी के लिए एक पत्र लिखते हुए 12 फरवरी 1921 को कहते हैं कि "साधारण अंग्रेजी युवक भारत के संबंध में न अधिक जानता है और न जानना चाहता है। वह जानता है कि अंग्रेज जाति एक महान जाति है और भारतवासियों को सभ्य बनाने के लिए अपनी हानि सहकर भी अंग्रेज भारत गए हैं। इस धारणा के लिए जिम्मेदार हैं हमारे एंग्लो इंडियन अफसर एवं पादरी लोग। क्रिश्चियन पादरी हैं हमारी संस्कृति के महाशत्रु। यह बात मैंने इस देश में ( इंग्लैंड ) आकर समझी। वह पैसा इकट्ठा करने के उद्देश्य से पब्लिक को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि भारतवासी एक असभ्य जाति हैं और भील एवं कोल जातियों के फोटो मंगवा कर इस देश के लोगों को दिखाते हैं।"
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने यह पत्र अपनी पढ़ाई के दौरान इंग्लैंड में रहते हुए लिखा था। जो कि नवभारत टाइम्स मुंबई 22 जनवरी 1994 को प्रकाशित हुआ था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस को तो यह बात बहुत शीघ्रता से समझ में आ गई थी, पर उस समय के कांग्रेस के नेता गांधी और उन जैसे अन्य कांग्रेसियों को यह बात बहुत देर में समझ आई थी। जब समझ में आई तो वह भी इतनी हल्की समझ में आई कि यदि उसके लिए यह कहा जाए कि समझ में आई ही नहीं थी तो भी कोई अतिशयोक्ति न होगी।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।
Satyarth Prakash Amul Nidhi hai jo janmanas ke liye darpan ke saman hai pratyek vyakti ko satyarth Prakash shradha karni chahie jisse ki samaj mein kurutiyan dur ho sake