वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा में गुरुकुलों का महत्वपूर्ण योगदान”

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ओ३म्

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ऋषि दयानन्द ने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ में प्राचीन भारत में गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति का उल्लेख कर उसके व्यापक प्रचार का मानचित्र प्रस्तुत किया था। यह गुरुकुलीय पद्धति प्राचीन भारत में सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल व उसके बाद भी देश व विश्व की एकमात्र शिक्षा पद्धति रही है। इसी संस्कृति में हमारे समस्त ऋषि तथा वैदिक विद्वानों सहित हमारे राम, कृष्ण आदि महापुरुष, राजा-महाराजा व चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुए थे। महाभारत युद्ध के बाद इस शिक्षा पद्धति के संचालन में व्यवधान उत्पन्न हुए और मुस्लिम व अंग्रेजों के राज्य व परतन्त्रता के दिनों में इस शिक्षा पद्धति को समाप्त करने के अनेकानेक प्रत्यक्ष व गुप्त प्रयत्न हुए। यहां तक की शासक लोगों ने तक्षशिला, नालन्दा तथा चित्रकूट आदि के हमारे प्राचीन संस्कृत साहित्य के भण्डारों वा पुस्तकालयों को जलाकर नष्ट कर दिया। इसके पीछे आतताई मनोवृत्ति के लोगों द्वारा वैदिक धर्म व संस्कृति को नष्ट करना ही प्रतीत होता है। अन्य कोई उद्देश्य उनका दृष्टिगोचर व स्पष्ट नहीं होता। ऐसा होने पर भी वैदिक धर्म, संस्कृति, संस्कृत भाषा और वेद आज भी सुरक्षित हैं। संस्कृत संसार की श्रेष्ठतम व प्राचीनतम भाषा स्वीकार की जा रही है। संसार में सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद स्वीकार किये गये हैं। ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सभी रहस्यों का पता देने वाले सर्वोपरि एकमात्र ग्रन्थ वेद ही हैं जो धर्म व साहित्य के ग्रन्थों में शीर्ष स्थान पर सुशोभित है। वेदों की इस महत्ता को स्थापित करने में वेदों व संस्कृत भाषा के पुनरुद्धारक ऋषि दयानन्द सरस्वती का महत्वपूर्ण व अतुलनीय योगदान है। उन्होंने न केवल वेद और संस्कृत भाषा की रक्षा में योगदान ही किया अपितु वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा तथा उसके पुनरुद्धार में एक प्रकाश स्तम्भ वा टार्च बियरर की भूमिका निभाई है। सारा देश व विश्व ऋषि दयानन्द के इन कामों सहित सत्य धर्म का ज्ञान कराने, उसका प्रचार करने सहित धर्म-मत-सम्प्रदायों की अविद्या को दूर करने का पुरुषार्थ करने के लिये उनका ऋणी है।

महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में संस्कृत भाषा की रक्षा एवं गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति का उद्धार करने के लिये इसके तीसरे समुल्लास में विस्तार से प्रकाश डाला है और संस्कृत व वेदाध्ययन का पूरा पाठ्यक्रम प्रस्तुत किया है। ऋषि दयानन्द के विचारों से प्रभावित होकर सर्वप्रथम स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से प्रसिद्ध संन्यासी ने सन् 1902 में आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के अन्तर्गत हरिद्वार के निकट कांगड़ी ग्राम में एक गुरुकुल की स्थापना की थी। प्राचीन वैदिक साहित्य के अध्ययन का यह विश्व का अपने समय का प्रमुख संस्थान बना था। इस गुरुकुल ने विगत 120 वर्षों में देश को अनेक वैदिक एवं संस्कृत भाषा के विद्वान दिये हैं। इन विद्वानों में अनेक वेद भाष्यकार एवं संस्कृत शिक्षकों सहित पत्रकार एवं स्वतन्त्रता सेनानी सम्मिलित हंैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी स्वयं ही देश की आजादी में योगदान करने वाले स्वतन्त्रता संग्राम के एक निर्भीक, साहसी, महान देशभक्त, अजेय योद्धा एवं सर्वप्रिय महान नेता थे। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे रैम्जे मैकडानल्ड ने उन्हें जीवित ईसामसीह की उपमा देकर सम्मानित किया था। गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना व उसके सफल संचालन से प्रभावित होकर महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के अनुयायियों ने समय समय पर देश भर में अनेक गुरुकुलों की स्थापना व संचालन किया जिससे संस्कृत की रक्षा एवं संस्कृत का बोलचाल व लेखन में प्रयोग करने वाले विद्वानों की संख्या में वृद्धि हुई है। आज आर्यसमाज के अनुयायियों द्वारा देश में लगभग पांच सौ गुरुकुलों का संचालन किया जा रहा है जहां प्रतिवर्ष हजारों संस्कृत के विद्वान तैयार होते हैं जिसका प्रभाव न केवल संस्कृत की रक्षा व उसके साहित्य के विस्तार व उन्नति में होता है अपितु ईश्वरीय-ज्ञान वेद पर आधारित सृष्टि के आदि मानव धर्म, उसकी रक्षा होती है। गुरुकुलों के अधिकांश विद्वान वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार को अपने जीवन का मिशन बनाते हैं और वैदिक साहित्य की वृद्धि करते हैं जिससे देश व विश्व के लोग लाभान्वित होते हैं। यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि ऋषि दयानन्द और उनके अनुयायी वेदों की शिक्षाओं को धर्म की श्रेष्ठ सर्वमान्य एवं सर्वग्राह्य शिक्षायें सिद्ध कर चुके हैं। वेद मनुष्यों को ‘मनुर्भव’ अर्थात् मनुष्य बनने का सन्देश देते हैं। श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न मनुष्य जिस प्रक्रिया व पद्धति से बनता है उसी मानव निर्माण पद्धति को धर्म कहा जाता है। इस मानव निर्माण पद्धति में गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति का महत्वपूर्ण स्थान है। इस प्रकार हमारे गुरुकुल संस्कृत और वेद का अध्ययन कराकर मनुष्यों को वेद की शिक्षाओं से परिचित करा रहे हैं और उन्हें सच्चा, श्रेष्ठ, धार्मिक, विद्वान मनुष्य बनाकर देश व समाज का कल्याण कर रहे हैं।

देश में संचालित गुरुकुलों ने संस्कृत और वैदिक साहित्य का अध्ययन कराकर वैदिक धर्म, संस्कृति तथा संस्कृत की रक्षा करने का महान कार्य किया है। संसार में सम्प्रति अनेकानेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं जो अपनी विद्या-अविद्या युक्त बातों को मानते हैं। वह अपने मत की मान्यताओं को सत्य पर स्थिर करने का प्रयत्न नहीं करते। ऋषि दयानन्द ने सनातन वैदिक धर्म में आये अवैदिक व अन्धविश्वासों से युक्त विचारों को दूर करने के लिये अपना जीवन लगाया। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसमें सत्यासत्य का निर्णय किया गया है और सामान्य लोगों का इस विषय में मार्गदर्शन किया गया है। स्वामी जी ने वैदिक धर्म सहित सभी मत-मतान्तरों की प्रमुख मान्यताओं की युक्ति एवं तर्क के आधार पर समीक्षा की है और वैदिक मत से अविद्या को दूर करने सहित मत-मतान्तरों की अविद्या से भी देशवासियों सहित विश्व के लोगों को परिचित कराया है। उनका मिशन अभी पूरा नहीं हुआ है। ईश्वर की भी यही प्रेरणा व सदेच्छा है कि मनुष्य असत्य का त्याग कर सत्य का धारण करे। इसी लिये परमात्मा ने जीवात्माओं के कल्याण के लिये सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान दिया था। वेदों का ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य साधारण से आसाधारण मनुष्य बन सकता है। उसकी अविद्या दूर होकर वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है। वेदों के ज्ञान व आचरण के बिना मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को नहीं जान सकता और न ही प्राप्त कर सकता है। वेद मनुष्य को सभी दुःखों को दूर कर उसे मोक्षगामी बनाते हैं। भारतवासियों पर ऋषि दयानन्द व उनसे पूर्व के ऋषियो ंकी यह महती कृपा रही है कि उन्हें उत्तराधिकार में वेद और वैदिक धर्म सहित श्रेष्ठ विचारों व मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति में सहायक कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त हुआ है। हमारे गुरुकुल हमारे देशवासियों को संस्कृत व वेदों का अध्ययन कराकर संस्कृत के विद्वान व वेद-धर्म प्रचारक उपलब्ध करा रहे हैं। यह हमारे गुरुकुलों का धर्म एवं संस्कृति की रक्षा में महत्वपूर्ण योगदान है।

वेद, धर्म, संस्कृति और संस्कृत भाषा की रक्षा में गुरुकुलों का सर्वोपरि योगदान है। हमें सभी वेदभाष्यकार एवं संस्कृत के बड़े बड़े विद्वान अपने गुरुकुलों से ही मिले हैं। यदि ऋषि दयानन्द ने गुरुकुलों की स्थापना की प्रेरणा न की होती तो आज हमें गुरुकुलों से मिले संस्कृत के विद्वान न मिले होते जिनकी अनुपस्थिति में वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा न हो पाती। संस्कृत भाषा सभी भाषाओं से प्राचीन, श्रेष्ठ एवं महत्वपूर्ण है एवं संसार की सभी भाषाओं की जननी है। अमेरिका की संस्था नासा ने भी संस्कृत को श्रेष्ठ वैज्ञानिक भाषा स्वीकार किया है। संसार के अनेक देशों में संस्कृत का अध्ययन कराया जाता है। विदेशों के निष्पक्ष विद्वान संस्कृत भाषा के शब्दों, वाक्य रचना और इसकी भाषागत विशेषताओं पर मुग्ध हैं। विदेशी मुख्यतः यूरोपवासी तो संस्कृत से आकृष्ट हो रहे हैं जबकि हमारी सरकारें व लोग संस्कृत की उपेक्षा कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमारे गुरुकुलों का महत्व बढ़ जाता हैं। उन्हें संस्कृत के विद्वान तैयार कर देश विदेश में अध्यापन हेतु भेजने होंगे जिससे संस्कृत की रक्षा होकर वेद एवं धर्म व संस्कृति की भी रक्षा होगी। गुरुकुलों का मुख्य उद्देश्य ही संस्कृत का प्रचार व वेदाध्ययन कराकर वैदिक धर्म व संस्कृति का दिग्दिगन्त प्रचार व प्रसार करना है। यही आर्यसमाज का भी उद्देश्य एवं लक्ष्य है। इसी की प्रेरणा हमें वेद के ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ शब्दों से मिलती है। ईश्वर करे कि हमारे सभी गुरुकुल वेद और संस्कृत भाषा के प्रचार का कार्य सुगमता से करते रहे। देश व विश्व के लोग सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग का व्रत ग्रहण करें और सत्य की प्राप्ति के लिये ऋषियों द्वारा प्रदत्त वेद, वेदानुकूल शास्त्र प्रमाण, तर्क एवं युक्तियों सहित आप्तवचनों का सहारा लें। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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