जैसा मीठा ईख : वैसी ही मीठी कहानी
ईख या गन्ना। सांठा या हांठा। सुगरकेन के नाम से इसे पूरी दुनिया में जाना जाता है। कार्तिक में रस से लबालब हो जाता है और अपने सिर पर दूल्हे की तरह मौर बांध लेता है। लक्ष्मीदेवी, गौ और गोवर्धन की पूजा के लिए इसका भी प्रयोग होता है, लिहाजा जड से कटकर बाजार में अपना सिर ऊंचा किए हुए है।
कमाल है कि लक्ष्मी पूजा में सीताफल के साथ ईख क्यों ? यह इसलिए कि गन्ने सरस उत्पाद है और मानवीय कृषि की सबसे अच्छी उपज है जिसके साथ गुणात्मक रूप से पांच गुण छुपे हुए हैं। यूं यह भोजन के चोष्य वर्ग में आता है, यानी चूसकर खाने वाला। भावप्रकाश, शालग्राम निघंटु आदि में इसके गुणों पर चर्चा है। लोक की लकीर से ही ये मान्यताएं श्लोक होकर शास्त्रों के अंक में समाई है।
पांच आयुर्वेदिक गुण होने से ही शायद इसे ‘कामदेव का बाण’ भी कहा गया है। कामदेव का पंचशर नाम भी मिलता है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में कामदेव के पांचों ही बाणों का नाम मिलता है, जिसका उत्स वात्स्यायन है। ये हैं- द्रवण, शोषण, तापन, मोहन और उन्माद – द्रवणं शोषणं बाणं तापनं मोहनाSभिधम्। उन्मादं च कामस्य बाणा: पंच प्रकीर्तिता:।। हर्षदेव के नागानंद नाटकं में कमल, अशोक, आम्रमंजरी, चमेली और नीलकमल को कामदेव का बाण बताया गया है।
मयमतम् नामक शिल्प ग्रंथ में कामदेव की मूर्ति के लक्षणों में कहा गया है कि उसके तापिनी, दाहिनी, सर्वमोहिनी, विश्वमर्दिनी, मारिणी कामिनी ये पांच प्रेमदंत उसके सायक या बाण हैं और ईख का चाप होता है- इक्षुचापेषु पंचैव पश्चिमे परिकीर्तिता:। यही वर्णन दीप्तागम में भी आया है- इक्षुचाप समायुक्तं पंचबाण समायुतम्। (मयमतम्, अनुवाद श्रीकृष्ण जुगनू, चौखंबा संस्कृत सीरिज, बनारस, 2008, 36, 165, वहीं पर दीप्तागम का उदाहरण) कालिका पुराण, सस्यवेद, बारहस्पत्य कृषि शास्त्र, दैवज्ञ रंजन आदि में कितना कुछ कहा गया है।
इसे गुजराती में शेरडी, छोड सांठों कहा जाता है, मेवाडी में भी सांठा या हांठा कहा जाता है। अन्यत्र कण्डेक्षु, खंगपत्र, गण्डकिन्, गण्डीरी, बहुरस, रसाल, शतपर्वन, ईख, ऊख, गन्ना भी इसके नाम है। बंगाली में आक, मराठी में उस और अंग्रेजी में sugar cane. वानस्पतिक नाम है- Charum officinarum Lim. इसका सुगरकेन नाम क्यों पडा, मालूम नहीं, मगर एक कहानी जिसका प्लीनी, ऐरियन आदि ने संकेत किया है।
सिकंदर ने जब भारत पर आक्रमण किया तो उसके हाथियों ने पंजाब की धरती पर पहली बार गन्ने के खेत देखे। हाथियों को तो मजा आ गया। महावतों ने हांकने के लिए वे गन्ने तोडकर ही हाथियों को डराया। उनके हाथ मीठे हो गए। हाथियों को खिलाने के लिए या संग्रह के लिए वे गन्नों की गंडीरियों की भारिया बनाकर अपने देश ले गए। उनकी पत्नियों को बहुत अच्छा लगा। उन्होंने बांस या केन तो देखे थे मगर उनमें भरी मिश्री नहीं। वे उन रसभरे बांसों पर मुग्ध हो गई। सैनिकों से ऐसे सुगरकेन और लाने की जिद की- ‘जिस धरती पर ऐसे सुगरकेन होते हैं, वहां इनके खाने वाले लोग कितने मीठे होंगे… क्यों न तुम जाओ और ये ले आओ…।’
कितनी सुंदर कहानी है कि एक मीठे फल पर दुश्मन के देश की कामिनियां भी मुग्ध हो गईं। गन्ने की विश्वयात्रा यही से आरंभ होती हैं और विश्व को गन्ना देने वाला भारत आज इसकी पैदावार में दूसरा होकर रह गया है। अमीर खुसरो ने भी भारत को मीठा बांटने वाला देश कहा है। कल्पना नहीं, मगर यह सच ही लगता है। लक्ष्मीदेवी की मिठास बनी रहे, पांच बाणों वाले इस गन्ने से उसकी पूजा के पीछे यही रहस्य होना चाहिए।
यह संस्कृत में इक्षु है और इक्ष्वाकु वंश का इसके साथ बड़ा संबंध है। तृण आदि वनस्पतियों के वंशों का ऐसा संबंध दर्भ और गुर्जर, कुश और कुशवाह, ईख और पाटीदार, कमल और कमलिया, खेजड़ी और खत्री… आदि का मिलता है ना! यह एक अलग लेकिन रोचक विषय है और महाजनपद से वंश के विस्तार को बताता है। ईक्षु तीज और अक्षय तृतीया की बात भी मीठी – मीठी… और हां, पांच पर्व, पांच शर, पांच योग, पांच मुख… लाभपंचमी से पहले यह प्रसंग उपयोगी लगेगा।
जय जय।
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