सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय 13 क तीन सभाओं को देने का भारत का राजनीतिक चिंतन
सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश
( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर)
अध्याय 13 क
तीन सभाओं को देने का भारत का राजनीतिक चिंतन
स्वामी दयानंद जी महाराज ने सत्यार्थ प्रकाश का षष्ठम समुल्लास राजधर्म पर लिखा है। स्वामी दयानंद जी महाराज भारतवर्ष में जिस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था के समर्थक थे उसे उन्होंने इसी समुल्लास के माध्यम से प्रकट किया है। इस समुल्लास में राजधर्म शब्द के आने से ही यह स्पष्ट है कि स्वामी जी महाराज ने इस समुल्लास के माध्यम से भारत के राजनीतिक दर्शन को स्पष्ट किया है। भारतवर्ष के ही नहीं अपितु संसार के भी राजनीतिज्ञों को स्वामी जी महाराज के अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के इस समुल्लास का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जो लोग राजनीतिक सिद्धांतों की समीक्षा करते हैं या संसार में राजनीतिक सोच व चिंतन को स्थापित करने व सुदृढ़ बनाने के संदर्भ में श्रम करते हैं उन्हें भी स्वामी दयानंद जी महाराज के इस परिश्रम पर अवश्य विचार करना चाहिए। इतिहास निर्माण के लिए सबसे अधिक सामग्री और महर्षि दयानंद जी के इतिहास व राजनीतिक दर्शन को समझने में सत्यार्थ प्रकाश का यह समुल्लास हमारी बहुत अधिक सहायता करता है।
हमारे देश के इतिहास की विकृतिकरण की जिस प्रक्रिया को कांग्रेसी और कम्युनिस्ट आज भी जारी रखे हुए हैं उनकी देशघाती मानसिकता को इस समुल्लास के अध्ययन से भली प्रकार समझा जा सकता है। इन तथाकथित इतिहासकारों ने भारत की इतिहास संबंधी धारणाओं और सिद्धांतों को या तो समझा नहीं है या फिर समझ कर भी ना समझने का प्रयास किया है। इनकी इस प्रकार की सोच और मानसिकता के चलते भारत को भारत के रूप में स्थापित करने में हम असफल रहे हैं। इन लोगों ने यह न जाने इतिहास के बारे में अपनी कैसी-कैसी कल्पनाएं करनी है? इतिहास के सटीक लेखन के लिए ऐसे इतिहास लेखकों को महर्षि दयानंद जी कृत सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास का अध्ययन करना चाहिए। यदि वह ऐसा करेंगे तो निश्चय ही वह भारत को भारत के रूप में समझने में सफल हो सकेंगे।
सत्यार्थ प्रकाश के इस समुल्लास के अध्ययन के उपरांत आज के तथाकथित इतिहासकार और उनके साथ-साथ राजनीतिक पंडित भी यह समझ पाएंगे कि देश का राजा किस प्रकार का होना चाहिए? उन्हें यह भी पता चलेगा कि राजनीतिक चिंतन, राजनीतिक सोच और राजनीतिक परिपक्वता किसे कहते हैं ? इसके साथ-साथ राजनीतिक शासन प्रणाली कौन सी उत्तम है ? और लोकतंत्र किस प्रकार भारतवर्ष में प्राचीन काल से स्थापित रहा है ? इस बात को समझने में भी उन्हें सुविधा होगी। लोकतांत्रिक सिद्धांतों और लोकतांत्रिक आदर्शों को समझने में भी हमें इसी समुल्लास से सहायता प्राप्त होगी।
राजा का विद्वान होना आवश्यक
स्वामी जी महाराज इस समुल्लास के प्रारंभ में ही यह स्पष्ट करते हैं कि जैसा परम विद्वान ब्राह्मण होता है वैसा विद्वान सुशिक्षित होकर क्षत्रिय को योग्य है कि इस सब राज्य की रक्षा यथावत करे। स्वामी जी महाराज की इस एक वाक्य से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन काल में राजा का सुशिक्षित और परम विद्वान होना बहुत आवश्यक था। किसी भी अंगूठा छाप अकबर को उस समय बादशाह बनाया जाना संभव नहीं था। हमें यह भी समझना चाहिए कि राजा मूर्खों पर शासन नहीं करता है बल्कि विद्वानों पर शासन करता है अर्थात उसके राज्य में ऋषि, महात्मा ,आचार्य आदि अनेक सुशिक्षित विद्वान होते हैं। ऐसे लोगों पर शासन करने के लिए किसी भी अशिक्षित व्यक्ति को उनका शासक बनाया जाना ज्ञान की परंपरा के साथ खिलवाड़ करने जैसा होता है। योग्य और विद्वान लोगों पर सत्ता को छल बल से प्राप्त करने वाला लुटेरा बदमाश व्यक्ति शासन करने का अधिकारी नहीं हो सकता। ऐसा व्यक्ति प्रजा उत्पीड़क ही होगा इसलिए न्यायकारी विद्वान को ही राजा बनाया जाना सृष्टि नियमों के अनुकूल है। जब किसी अशिक्षित अनपढ़ और कूपन व्यक्ति को लोकतंत्र के नाम पर देश को चलाने का दायित्व दे दिया जाता है तो वह लोकतंत्र मूर्खों का मूर्खों के द्वारा मूर्खों के लिए शासन होकर रह जाता है।
वास्तव में इस प्रकार के लोकतंत्र में लोगों के मत को हड़पने और उन पर जाति संप्रदाय क्षेत्र भाषा आदि का प्रभाव डाल कर उनके मत को प्रभावित करने की घातक नीतियां लागू की जाती है। देश ,धर्म, सिद्धांत और नीति सब भाड़ में चले जाते हैं और नेता लोग अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए सत्ता का खेल खेलते हैं। कहने के लिए तो ऐसे राजनीतिज्ञों को राजनीति का कुशल खिलाड़ी कहा जाता है, कभी-कभी उन्हें आधुनिक चाणक्य भी कहा जाता है पर वास्तव में वे ना तो राजनीति के कुशल खिलाड़ी होते हैं और उन्हें आधुनिक चाणक्य कहना तो स्वयं चाणक्य का ही अपमान करना है। हमारे ऋषि पूर्वजों ने प्राचीन काल में ही यह व्यवस्था की थी कि राजा की शैक्षणिक योग्यता निर्धारित करना बहुत अनिवार्य है। आज के संदर्भ में भी आज के संविधानविदों और राजनीतिज्ञों को देश के जनप्रतिनिधियों की शैक्षणिक योग्यता निर्धारित करने की शिक्षा सत्यार्थ प्रकाश के इस समुल्लास से लेनी चाहिए।
जितेंद्रिय राजा और राजधर्म
जितेंद्रिय और वेद वेदांग का ज्ञाता राजा ही लोक कल्याण की नीतियों को लागू करने में रुचि ले सकता है। क्योंकि वह जानता है कि संसार में मनुष्य योनि प्राप्त होना बड़े सौभाग्य की बात है और इस योनि में आकर जितना भी पुण्य कार्य किया जा सकता है, वह करना चाहिए। ऐसे राजा को यह ज्ञात होता है कि उसका राज धर्म क्या है और अपने राजधर्म को निभाने के लिए उसे क्या-क्या उपाय करने हैं ? अज्ञानी अनपढ़ अशिक्षित कुपढ़ राजा कभी भी जनकल्याण की नीतियों पर काम नहीं कर सकता। जिसका कारण यह है कि उसे जनकल्याण की नीतियों पर काम करने का होश ही नहीं होता। उसकी सोच बहुत संकीर्ण होती है और अपनी संकीर्ण मानसिकता के कारण वह देश व समाज में सांप्रदायिकता ,जातिवाद, भाषावाद, प्रांतवाद और क्षेत्रवाद जैसी संकीर्णताओं की फसल बोने लगता है। ऐसे राजाओं, शासकों या जनप्रतिनिधियों के कारण ही समाज में एक दूसरे से वैमनस्य जन्म लेता है। राजनीतिक सांप्रदायिकता भी इसी प्रकार की सोच के शासकों या जनप्रतिनिधियों के कारण जन्म लेती है।
जिन लोगों ने अकबर जैसे अनपढ़ अशिक्षित बादशाह के बारे में यह प्रचार किया है कि वह अशिक्षित होने के उपरांत भी जनहितकारी नीतियों को लागू करता था, उन्होंने अकबर के साथ ऐसी मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं को जोड़कर देश का भारी अहित किया है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जितेंद्रिय राजा ही जनहितकारी नीतियों को लागू कर सकता है। जिसका अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं है, वह कभी भी कुछ भी कर सकता है। यही कारण है कि भारतवर्ष में जितने भर भी मुस्लिम बादशाह हुए, उन्होंने अपने जीवन में कितनी ही बार बड़े बड़े नरसंहार कर अपनी अज्ञानता ,मूर्खता और सांप्रदायिकता का परिचय दिया। अकबर भी इसका अपवाद नहीं था। वास्तविकता यही थी कि अकबर बहुत ही निर्दयी, क्रूर और हिंदुओं के विरुद्ध दमनकारी नीतियों को लागू करने वाला वैसा ही एक मुस्लिम बादशाह था जैसे क्रूर मुस्लिम बादशाह की अपेक्षा उससे की जा सकती थी, या जैसा वह हो सकता था।
भारत के इतिहास दर्शन में और विशेष रूप से सत्यार्थ प्रकाश के इतिहास दर्शन में ऐसे नीच अधर्मी शासक को कभी भी प्रजावत्सल शासक नहीं कहा जा सकता जिसने अपने शासनकाल में लाखों हिंदुओं का वध करवाया हो या उनके पूजा स्थलों को तुड़वाया हो या उन पर जजिया कर लगाया हो। हां,ऐसे शासक सांप्रदायिक लुटेरे अवश्य हो सकते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं। सत्यार्थ प्रकाश के इस समुल्लास को पढ़ने से हमें राजधर्म का बोध होता है और हमें पता चलता है कि सांप्रदायिक सोच रखने वाले किसी भी शासक को शासक नहीं माना जा सकता। राज धर्म में मानवता का होना आवश्यक है। उसमें व्यक्ति व्यक्ति के बीच जाति, संप्रदाय, लिंग आदि के आधार पर किसी प्रकार का विभेद करना कदापि संभव नहीं है।
राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।
मुख्य संपादक, उगता भारत