सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय 12 क , लोक-शांति के उन्नायक संन्यासीगण

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लोक-शांति के उन्नायक संन्यासीगण

संसार में इतिहास, भूगोल और इसी प्रकार के अन्य शास्त्रों में कुछ विशेष ज्ञान प्राप्त करने वाले लोग भी अपने आपको ज्ञानी और श्रेष्ठ जन मानने का भ्रम पाल लेते हैं। जबकि भारत के ऋषियों की परंपरा में इस प्रकार का ज्ञान तो बहुत ही निम्न कोटि का माना जाता था। परा – अपरा विद्या को प्राप्त कर लोग मोक्ष की साधना किया करते थे। उस काल में सभी जन धर्मात्मा होते थे और धर्म के शासन के अधीन रहकर अपने सभी कार्यों का निष्पादन एवं संपादन करते थे । उनकी वह अवस्था बहुत ही उत्कृष्ट होती थी। संन्यासी लोग बुद्धिमानी का प्रदर्शन करते हुए वाणी और मन को अधर्म से रोकते थे । उनको ज्ञान और आत्मा में लगाकर उस ज्ञान विश्वात्मा को परमात्मा में लगाकर विज्ञान को शांत रूप आत्मा में स्थिर करते थे। सब लौकिक भोगों को कर्म से संचित हुए देखकर ब्राह्मण अर्थात संन्यासी वैराग्य को प्राप्त करते थे। लोग वेद वित्त और परमेश्वर को जानने वाले गुरु के पास विज्ञान की प्राप्ति के लिए जाते थे। गुरु के पास जाकर उसके निकट बैठकर अपनी सभी प्रकार की शंकाओं का समाधान करते थे। छोटी और घटिया बातों को सोचने और उन पर काम करने का समय किसी के पास नहीं होता था। जब चिंतन ऊंचा होता है तो कार्य भी ऊंचे ही होते हैं ।
इसका कारण केवल एक ही है कि प्राचीन काल में हमारी शिक्षा प्रणाली संस्कार आधारित होती थी। आज समाज में अफरा-तफरी केवल इसलिए है कि आज की शिक्षा संस्कार आधारित न होकर रोजगारोन्मुखी हो गई है। रोजगार की प्राप्ति करने की शिक्षा देने वाली शिक्षा प्रणाली व्यक्ति को भौतिकवाद में धकेल देती है। हमारे पूर्वजों की सोच थी कि व्यक्ति की सोच धन केंद्रित नहीं रहनी चाहिए। यदि धन केंद्रित सोच बन गई तो समाज में एक दूसरे के अधिकारों के अतिक्रमण की समस्या अपने आप उत्पन्न हो जाएगी । अधिकारों के अतिक्रमण की इस अवस्था को रोकने के दृष्टिकोण से ही प्राचीन भारत वर्ष में मनुष्य को अपरिग्रहवादी बनने की शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा मनुष्य को आत्म कल्याण का मार्ग बताती थी।

शिक्षा का उद्देश्य

विद्या मुक्ति का साधन थी । बंधनों से मुक्त कराने का माध्यम थी। मुक्ति का मार्ग बताने वाली शिक्षा कभी भी मनुष्य को पतित नहीं होने देती है। यह एक सर्वमान्य सत्य है कि भौतिकवाद में आपाधापी, मारामारी और स्वार्थों की टकराहट के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। जब मनुष्य इस प्रकार की प्रवृत्ति का शिकार हो जाता है तो वह अविद्या और अज्ञान में फंस जाता है। मत ,पंथ, संप्रदाय का भूत उस पर सवार हो जाता है और वह इन्हीं के वशीभूत होकर संसार में एक दूसरे की संपत्ति को हड़पने, मारकाट करने आदि की दानवीय प्रवृत्तियों का प्रदर्शन करता है। मत, पंथ व संप्रदायों को लेकर जितने भी झगड़े आज संसार में हो रहे हैं वह सब इसी प्रकार की अविद्या के परिणाम स्वरूप हो रहे हैं। आज की शिक्षा नीति अभी तक भी यह तय नहीं कर पाई है कि विद्या क्या है ? अविद्या क्या है? शिक्षा क्या है ? और कुशिक्षा क्या है ? हमारे ऋषियों ने इस ओर न देखकर परमेश्वर की पवित्र व्यवस्था के अनुकूल अपना आचरण बनाए रखने की प्रवृत्ति को अपनाने पर बल दिया है।
महर्षि दयानंद जी भी लिखते हैं कि :-

अविद्यायामन्तरे वर्त्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
जघंन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।।1।।
अविद्यायां बहुधा वर्त्तमाना वयं कृतार्था इत्यभिमन्यन्ति बालाः।
यत्कर्मिणो न प्रवेदयन्ति रागात्तेनातुराः क्षीणलोकाश्च्यवन्ते।।2।।
-मुण्ड० 1। खण्ड 2। मं० 8। 9।। ( सत्यार्थ प्रकाश पंचम समुल्लास)
अर्थ: “जो अविद्या के भीतर खेल रहे, अपने को धीर और पण्डित मानते हैं, वे नीच गति को जानेहारे मूढ़ जैसे अन्धे के पीछे अन्धे दुर्दशा को प्राप्त होते हैं वैसे दुःखों को पाते हैं।।1।।” “जो बहुधा अविद्या में रमण करने वाले बालबुद्धि हम कृतार्थ हैं ऐसा मानते हैं, जिस को केवल कर्मकाण्डी लोग राग से मोहित होकर नहीं जान और जना सकते, वे आतुर होके जन्म मरणरूप दुःख में गिरे रहते हैं।।2।।”
स्वामी दयानंद जी महाराज के इस कथन को हमें आज के इस्लाम और ईसाई संप्रदाय के लोगों की दूषित मानसिकता के साथ समन्वित करके देखना चाहिए। इन्होंने अपनी अविद्या और अज्ञान का परिचय देते हुए संसार को दुर्दशा में धकेल दिया है। तीसरा विश्व युद्ध कब आरंभ हो जाए ?- कुछ कहा नहीं जा सकता। तीसरे विश्वयुद्ध की विभीषिकाएं कितनी भयानक हो सकती हैं, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि संसार के कई देश इस हंसती खेलती मानव सभ्यता को दर्जनों बार समाप्त करने की परमाणु शक्ति से संपन्न हैं। विनाश की ओर बढ़ते – बढ़ते यहां तक पहुंच जाना मानवता की जीत नहीं हार है। यदि सृजनात्मक शक्तियां विकसित की जाती तो संसार इस दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। संप्रदाय के नाम पर लुटेरे दल संसार को सदियों से लूट रहे हैं। इसके उपरांत भी लोग अपने-अपने मत, पंथ ,संप्रदाय को शांति और सद्भाव को स्थापित करने वाले संप्रदाय के रूप में स्थापित करते हैं। मानव के मानस का मोती कहीं खो गया है। मन रूपी हंसा इस समय अत्यंत व्याकुल है।

बौद्धिक संपदा संपन्न व्यक्ति है सबसे बड़ा

इसका कारण केवल एक है कि परा और अपरा विद्या के बारे में इस्लाम और ईसाइयत के पास सोचने समझने का तनिक सा भी समय नहीं है। संसार के धन दौलत को लूट – लूटकर अपने पास संचित करना ही इनके जीवन का उद्देश्य हो गया है।
इस संबंध में स्वामी दयानंद जी महाराज सत्यार्थ प्रकाश में हमें बताते हैं कि “लोक में प्रतिष्ठा वा लाभ धन से भोग वा मान्य पुत्रादि के मोह से अलग हो के संन्यासी लोग भिक्षुक होकर रात दिन मोक्ष के साधनों में तत्पर रहते हैं।”
हमारे यहां राजा से भी बड़ा उस व्यक्ति को माना जाता रहा है जो ज्ञान संपदा संपन्न हो। ज्ञान समर्थ व्यक्ति ही संसार के लिए अनुकरणीय होते हैं। जिनके पास बुद्धि होती है और जो बुद्धि का उपयोग व उपभोग करना जानते हैं संसार उन्हीं को सम्मान देता है। बाहुबल से संसार को कभी जीता नहीं गया और ना जीता जा सकेगा। परमाणु बम जैसे विनाशकारी हथियार भी रखे रह जाएंगे। इन से हटकर बुद्धि बल की निर्मलता से अर्थात प्रीति पूर्वक समस्त संसार को अपना बनाया जा सकता है। हमारे ऋषि पूर्वजों ने बुद्धि बल की निर्मलता से ही संसार को अपना बनाया । उसी के आधार पर भारत विश्व गुरु बना।
बुद्धि बल की निर्मलता से चरित्र बल मजबूत होता है। जिनके पास चरित्र बल होता है उनकी जीवनशैली लोगों पर स्थाई प्रभाव डालती है। उनका आचरण और उनका कथन लोगों को हृदय से प्रभावित करता है। जब ज्ञान समर्थ और ज्ञान संपदा संपन्न लोग नि:स्वार्थ भाव से प्रेरित होकर संसार की सेवा करने के लिए उतरते हैं तो वह सारे संसार की व्यवस्था को बनाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। लोग उनसे उपदेश सुनते हैं और उनके उपदेशों के अनुसार अपना आचरण बनाने पर ध्यान देते हैं।

राकेश कुमार आर्य

मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।

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