“प्रकृति परिवर्तनशील है”
बिखरे मोती
“प्रकृति परिवर्तनशील है” किन्तु इस नियम में अपवाद भी है, जैसे:-
हवा सदा बहती रहे,
पर्वत रहें कठोर।
रवि सदा तपता रहे,
सांझ होय चाहे भोर।।1998॥
भक्ति की परिकाष्ठा के संदर्भ में –
भक्ति चढ़े परवान तो,
छूट जाय संसार।
कण-कण में दिखने लगे,
सबका प्राणाधार॥1999॥
वैश्वानार एक रूप अनेक –
फूलों में मुस्कान तू,
और वायु में वेग।
नक्षत्रों में तेज तू ,
दामिनी में आवेग॥2000॥
परिधि अर्थात् ब्रह्माण्ड का केंद्र कौन!
दाहकता प्रकाश तू,
अग्नि तत्त्व के बीच ।
आकर्षण का केंद्र तू,
रहा सभी को खींच॥2001॥
राम और रावण हमारे चित्त में रहते हैं, कहीं और नहीं –
आत्मा तो श्री राम है,
रावण है अहंकार।
एक गिरावै गर्त में,
एक करें उद्धार॥2002॥
ईश की सायुज्जता ,
बिरला पावै सन्त ।
आरे की यह धार है,
प्रभु – मिलन का पथ॥2003॥
कर्माशय तेरा श्रेष्ठ हो,
आत्मा होय पुनीत।
श्रीमन्त – घर जन्म हो,
मिले जीत ही जीत॥2004॥
साहस की दीवार पर,
पड़े शोक की चोट ।
आत्म-बल गिरता नहीं,
जिसे प्रभु की ओट॥2005॥
क्षजिक क्रोध के भयंकर दुष्परिणामों के संदर्भ में –
समय सेहत और सम्पदा,
यश को खावै क्रोध ।
दीप बुझावै विवेक का,
पैदा हो गतिरोध॥2006॥
वीर्य -रज कणिकाओं से ,
हुआ सृष्टि -विस्तार।
आत्म – विजेता ही करें,
जीवो का उद्धार॥2007॥
माया – प्रेमी बहुत है,
भगवद् – प्रेमी न्यून।
मानव – जन्म पाय कै,
रहे भक्ति से सून॥2008॥
साधना संयम समर्पण,
जागृत रहे विवेक ।
ऐसे साधक पर सदा,
कृपा करें शिवेक॥2009॥
परम शान्ति के संदर्भ में –
धन शान्ति नहीं दे सके,
तृष्णा बढ़ती जाए।
ब्रह्मावेत्ता अकाम ही,
परम शान्ति – पद पाए॥2010॥
धन के संदर्भ में –
जरूरत पूरी धन करें,
नही शान्ति देय ।
प्रभु – चरणों में शान्,
नाम उसी का लेय॥2011॥
जीवन का लक्षण क्या हो –
अंतः करण की पवित्रता,
हो जीवन का ध्येय ।
ब्रह्मनिष्ठ के ध्यान से,
दूर नहीं अज्ञेय॥2012॥
दुर्गम वन पवित्र खड़े,
महासागर महाद्वीप।
नतमस्तक तेरे सामने,
सबका तू ही महीप॥2013 ॥
श्रद्धा घट में अमूर्त है,
ज्यों धरती में गंध।
फूल दिखाई देते हैं,
दिखती नहीं सुगन्ध ॥2014॥
कैसा बोले!
नपा – तुला ही बोलिये,
सहज – सरस मन भाय।
ऐसा कभी ना बोलिये,
जो अमन चैन को खाय॥ 2015॥
शुचिता वाणी व्यवहार की,
दौलत है नायाब ।
इनसे शोभित नर लगे,
खिलता हुआ गुलाब॥2016॥
पहाड़ टूटे दुःख का,
परमत छोड़ शील ।
श्री राम का आचरण,
कहीं न दे ढील॥ 2017॥
क्रमशः