दलितों के लिए भी मंदिरों के द्वार खोल दिए थे महाराजा हरि सिंह ने
अशोक कुमार पाण्डे
जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा ने आख़िरकार महाराजा हरि सिंह की जयंती पर अवकाश घोषित करने की डोगरा संगठनों की लंबे समय से चली आ रही माँग मान ली.
मनोज सिन्हा ने उन्हें ‘महान शिक्षाविद, प्रगतिशील विचारक, समाज सुधारक और आदर्शों से युक्त शीर्ष व्यक्तित्व’ कहा है. हरि सिंह और डोगरा शासन को लेकर जम्मू और घाटी के लोगों की राय हमेशा अलग-अलग रही है. जहाँ जम्मू के लोगों के लिए डोगरा वंश के अंतिम शासक उनकी खोई हुई आन-बान और शान का प्रतीक हैं, वहीं घाटी के बहुत सारे लोग डोगरा शासकों को उत्पीड़न के प्रतीक के तौर पर देखते हैं.
1846 में सोबराँव के ब्रिटिश-सिख युद्ध में पंजाब की महारानी ने गुलाब सिंह को सेनापति नियुक्त किया था, लेकिन युद्ध से अलग रहकर उन्होंने अँग्रेज़ों की मदद की, इसके बाद ‘अमृतसर संधि’ में 75 लाख नानकशाही रुपए देकर उन्होंने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख पर शासन करने का एकाधिकार हासिल किया था, इस समझौते को घाटी में अक्सर ‘अमृतसर बैनामा’ के नाम से जाना जाता है.
इसके पहले के इतिहास में कश्मीर घाटी का असर अधिक रहा था और जम्मू के राजा या तो घाटी के अधीन रहे थे या फिर उनको नज़राना देते रहे थे.जम्मू के राजा गुलाब सिंह के जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के महाराजा बनने के साथ ही यह समीकरण पलट गया था. शासन में आने के बाद गुलाब सिंह की नीतियों ने इस वर्चस्व को जिस तरह से स्थापित किया उसने घाटी के मुसलमानों में पराधीनता का भाव ।
हरि सिंह जम्मू कश्मीर के शासक कैसे बने उसकी कहानी भी काफ़ी दिलचस्प है लेकिन पहले देखते हैं कि हरि सिंह की विरासत क्या है?
कई मायने दूसरे राजाओं से अलग थे हरि सिंह
1925 में जब हरि सिंह गद्दी पर बैठे तो शुरुआत शानदार थी. ताजपोशी के बाद जिस तरह की घोषणाएँ उन्होंने कीं, उन्हें सचमुच क्रांतिकारी कहा जा सकता है.
‘द ट्रेजेडी ऑफ़ कश्मीर’ में इतिहासकार एचएल सक्सेना बताते हैं कि अपने पहले संबोधन में महाराजा हरि सिंह ने कहा, “मैं एक हिन्दू हूँ लेकिन अपनी जनता के शासक के रूप में मेरा एक ही धर्म है-न्याय. वह ईद के आयोजनों में भी शामिल हुए और 1928 में जब श्रीनगर शहर बाढ़ में डूब गया तो वह ख़ुद दौरे पर निकले.”
जम्मू-कश्मीर सरकार के मंत्री रहे जॉर्ज एडर्वड वेक़फील्ड के हवाले से एमवाइ सर्राफ़ ने अपनी किताब ‘कश्मीरी फाइट्स फॉर फ्रीडम’ में बताते हैं कि अपने शासन के शुरुआती दौर में वह चमचागिरी के इतने ख़िलाफ़ थे कि उन्होंने एक सालाना ख़िताब देना तय किया था, जिसका नाम ‘खुशामदी टट्टू’ अवार्ड था, जिसके तहत बंद दरबार में हर साल “सबसे बड़े चमचे को” टट्टू की प्रतिमा दी जाती थी.
यही नहीं, अपने राजतिलक समारोह में उन्होंने जो घोषणाएँ कीं थीं वे सचमुच आधुनिकीकरण की ओर बढ़ाए गए क़दम थे. मसलन, उनमें जम्मू, और कश्मीर घाटी में 50-50 तथा गिलगित और लद्दाख में 10-10 स्कूल खोलने का ऐलान किया, और उनके निर्माण के लिए लकड़ी वन विभाग से मुफ़्त दिए जाने की घोषणा की.
जम्मू और घाटी में तीन-तीन चल डिस्पेंसरियाँ खोलना, तकनीकी शिक्षा का विस्तार करना, श्रीनगर में एक अस्पताल खोलना, पीने के पानी की व्यवस्था करना उनके कई बड़े क़दमों में शामिल थे. उन्होंने लड़कों के लिए विवाह की न्यूनतम उम्र 18 और लड़कियों के लिए 14 वर्ष कर दिया, इसके साथ ही, उन्होंने बच्चों के टीकाकरण का इंतज़ाम भी कराया.
उन्होंने किसानों की हालत सुधारने के लिए ‘कृषि राहत अधिनियम’ बनाया जिसने किसानों को महाजनों के चंगुल से छुड़ाने में मदद की. शैक्षणिक रूप से अत्यंत पिछड़े राज्य में उन्होंने अनिवार्य शिक्षा के लिए नियम बनाए, सभी के लिए बच्चों को स्कूल भेजना ज़रूरी बना दिया गया, इसीलिए इन स्कूलों को लोग ‘जबरी स्कूल’ भी कहने लगे.
लेकिन सबसे क्रांतिकारी घोषणा तो उन्होंने अक्टूबर 1932 में की जब राज्य के सभी मंदिरों को दलितों के लिए खोल दिया. यह घोषणा गाँधी के छुआछूत विरोधी आंदोलन से भी पहले हुई थी और शायद देश में पहली ऐसी कोशिश थी. कोल्हापुर के शाहूजी महाराज के अलावा इस तर्ज़ पर सोचने वाला राजा उस दौर में शायद ही कोई और था. यह इतना क्रांतिकारी निर्णय था कि रघुनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी ने इसके विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया था.
कश्मीर में लंबे समय से माँग हो रही थी कि राज्य की नौकरियों और ज़मीन की खरीद को राज्य के नागरिकों के लिए आरक्षित किया जाए. असल में अँग्रेज़ रेजीडेंट की नियुक्ति के बाद से ही राज्य में बाहरी अधिकारियों की बाढ़ आ गई थी. 1889 में फ़ारसी की जगह उर्दू को राजभाषा बना दिया गया और सरकारी नौकरियों में नियुक्तियाँ प्रतियोगी परीक्षाओं के ज़रिए होने लगीं.
फ़ारसी तेरहवीं-चौदहवीं सदी से ही कश्मीरी पंडितों की भाषा बन गई थी और इस फ़ैसले ने एक झटके से जहाँ कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों की नौकरी की संभावनाओं को नष्ट कर दिया, वहीं पंजाबियों के लिए नौकरी के रास्ते खोल दिए जहाँ पहले से उर्दू राजभाषा थी.
1925 में जब हरि सिंह राजा बने, तब तक यह प्रक्रिया चलती रही. 1909 में कश्मीर के रेजीडेंट सर फ्रांसिस यंगहसबेंड ने लिखा था- “राज्य के कर्मचारियों में यह खास प्रवृत्ति है कि कश्मीर कश्मीरियों के लिए नहीं, अंग्रेज़ों के लिए तो और भी कम, लेकिन पंजाबियों और अन्य भारतीयों के लिए पूरी तरह आरक्षित कर दिया जाए.”
इसी माहौल की वजह से वहाँ ‘कश्मीर कश्मीरियों के लिए’ की माँग उठी. चूँकि कश्मीरी पंडित पढ़े-लिखे और नौकरियों के दावेदार थे तो सबसे पहले यह माँग उन्होंने ही उठाई. 1912 में ढीला-ढाला नियम ज़रूर बना जब नागरिक होने के लिए एक ‘इज़ाज़तनामे’ को अनिवार्य बना दिया गया लेकिन इसका कोई खास असर नहीं हुआ.
महाराजा हरि सिंह ने इस समस्या पर अपना ध्यान केंद्रित किया और उन्हीं के शासनकाल में 31 जनवरी, 1927 को एक मज़बूत “राज्य उत्तराधिकार क़ानून” बना जिसके तहत महाराजा गुलाब सिंह के सत्तारोहण के पहले से राज्य में रह रहे लोगों को राज्य का नागरिक घोषित किया गया. बाहरी लोगों के कश्मीर में ज़मीन (कृषि या ग़ैर-कृषि दोनों ही) ख़रीदने पर रोक लगा दी गई, उनका नौकरियाँ पाना, वज़ीफा पाना और कुछ मामलों में सरकारी ठेके पाना भी प्रतिबंधित कर दिया गया .
इसके बाद बाहरी लोगों का कश्मीर में नौकरियाँ पाना या संपत्ति खरीदना प्रभावी रूप से रुक गया, कालांतर में यही क़ानून धारा 35-ए का आधार बना.
जाने-माने कश्मीरी इतिहासकार प्रेमनाथ बजाज लिखते हैं, “हालाँकि राज्य नागरिकता की परिभाषा स्वीकार कर लेने के बाद दमित जनता की उभरती हुई उम्मीदों को एक हद तक पूरा किया लेकिन इस बात के लक्षण दिखने लगे थे कि यह सभी समस्याओं का हल नहीं हो सकता. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि राज्य नागरिकता का क़ानून पास करके महाराजा हरि सिंह ने बाहरी लोगों का भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद ख़त्म कर दिया था.”
लेकिन उनके गद्दी पर बैठते ही एक तरह का राजपूत कुलीनतंत्र स्थापित हो गया. राजपूत राज्य के विभिन्न विभागों के प्रमुख बन गए. सेना पूरी तरह डोगराओं, ख़ास तौर पर राजपूतों के लिए आरक्षित कर दी गई और राजपत्रित पदों पर साठ प्रतिशत से अधिक डोगराओं का क़ब्ज़ा हो गया.
इसके अलावा, जब मुस्लिम छात्र पढ़-लिखकर इन नौकरियों में अपनी जायज़ हिस्सेदारी की माँग करने लगे तो पंडितों के लिए भी कम्पीटीशन खड़ा हो गया. नौकरियों का यह विवाद आगे चलकर कश्मीर में दोनों समुदायों के बीच तनाव का बड़ा कारण बना और 1930 के दशक में हिंसक झड़पों के बाद मुस्लिम राजनीति का जो आरंभ हुआ वह कश्मीर के लिए युगांतरकारी साबित हुआ.
शेख अब्दुल्ला इसी राजनीति से उपजे थे लेकिन आगे जाकर उन्होंने कांग्रेस के प्रभाव में सेक्युलर नेशनल कॉफ्रेंस की स्थापना की और डोगरा-ब्रिटिश शासन से कश्मीर की आज़ादी की लड़ाई का शंखनाद किया.
गांधी एक जगह लिखते हैं, “हर भारतीय राजा अपने राज्य में हिटलर है. वह अपनी जनता को बिना किसी क़ानून की परवाह किए गोली मार सकता है. हिटलर के पास भी इससे अधिक प्राधिकार नहीं.” तो हरि सिंह भी अपने समय से कितने आगे हो सकते थे?
तीस के दशक में जब आंदोलन तेज़ हुआ तो हरि सिंह ने भी वही नीतियाँ अपनाईं जो कोई भी निरंकुश राजा अपनाता है.
इसके पहले गोलमेज कांफ्रेंस में इस युवा महाराजा ने जिस तरह भारतीयों के लिए ब्रिटिश कॉमनवेल्थ ऑफ नेशंस में बराबरी के अधिकार की माँग उठाई थी और राजाओं को एक ऑल इंडिया फ़ेडरेशन में शामिल होने की अपील की थी उससे ब्रिटिश सरकार भी नाखुश थी.
गिलगित के नियंत्रण को लेकर भी महाराजा का रवैया अंग्रेज़ी सरकार को मुश्किल में डालने वाला था, इसी वजह से जब कश्मीर घाटी में असंतोष भड़का तो महाराजा की मदद करने की जगह, ब्रिटिश हुकूमत ने खुद को मुसलमानों के खैरख्वाह के रूप में पेश किया और मौक़े का फायदा उठाकर न केवल तत्कालीन प्रधानमंत्री हरिकृष्ण कौल की जगह एक ब्रिटिश अधिकारी कैल्विन को कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त करवाया बल्कि राज्य के तीन प्रमुख मंत्रालय–गृह, राजस्व और पुलिस–भी ब्रिटिश आईसीएस अधिकारियों को सौंप दिए.
हालात ऐसे बने कि महाराजा ने गिलगित का नियंत्रण साठ साल की लीज़ पर अंग्रेज़ों को सौंप दिया जबकि गिलगित स्काउट का वेतन महाराजा के ख़ज़ाने से ही दिया जाता रहा.
इस मोड़ पर कश्मीर में हरि सिंह ने न केवल अपनी लोकप्रियता खोई बल्कि लगातार उनकी प्रशासनिक क्षमता को चुनौतियाँ मिलती रहीं. 1930 के दशक की मंदी से तबाह कश्मीरी उद्योगों को वह कभी संभाल नहीं पाए और आय का एक बड़ा स्रोत शॉल उद्योग उजड़ गया.
1946 में जब शेख अब्दुल्लाह ने भारत छोड़ो की तर्ज पर कश्मीर छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की तो यह टकराव चरम पर पहुँच गया. ‘अमृतसर बैनामा तोड़ दो-कश्मीर हमारा छोड़ दो’ का नारा महाराजा के लिए बर्दाश्त के क़ाबिल कैसे हो सकता था?
हरि सिंह और कश्मीर घाटी के बीच बढ़ती दूरी की चर्चा आगे करेंगे लेकिन ये जानना भी दिलचस्प है कि हरि सिंह सीधे रास्ते सिंहासन तक नहीं पहुँचे थे.
गुलाब सिंह और रणबीर सिंह के बाद जम्मू-कश्मीर की गद्दी पर बैठे महाराजा प्रताप सिंह. हरि सिंह दरअसल महाराजा प्रताप सिंह के भतीजे थे और उनके चाचा उन्हें उत्तराधिकारी नहीं बनाना चाहते थे, लेकिन अंग्रेजों ने उनके भाई अमर सिंह की मृत्यु के बाद से हरि सिंह को शासक के रूप में तैयार किया था.
इस काम के लिए सैन्य अधिकारी मेजर एचके बार को उनका अभिभावक नियुक्त किया गया था और अंग्रेज़ी तरीक़े की शिक्षा-दीक्षा दी गई थी. आरम्भिक शिक्षा अजमेर के मेयो कॉलेज से हासिल करने के बाद उन्हें देहरादून के इम्पीरियल कैडेट कोर में सैन्य प्रशिक्षण के लिए भेजा गया.
जब ये प्रशिक्षण पूरा हुआ तो ज़माना पहले विश्वयुद्ध का था और उन्हें प्रांतीय सेना का कमांडर-इन-चीफ़ नियुक्त किया गया. उनकी जिम्मेदारी सेना को प्रशिक्षित करने की थी और कई मोर्चों पर उन्होंने शानदार प्रदर्शन किया.
हालाँकि राजगद्दी पर बैठने से चार साल पहले, 1921 में एक युवा प्रिंस के तौर पर जब वे ब्रिटेन गए तो वहाँ वे ब्लैकमेलरों के चंगुल में फँस गए, सेक्स स्कैन्डल की वजह से उनकी काफ़ी बदनामी हुई, सरकारी खज़ाने से एक अच्छी-खासी रकम की अदायगी मामले को रफ़ा-दफ़ा करने के लिए दी गई.
इस घटना ने उनके कैरियर पर एक ब्रेक-सा लगाया और उन्हें कुछ समय के लिए राज-काज के काम से दूर रखा गया हालाँकि अगले ही साल जब प्रताप सिंह को प्रशासनिक अधिकार पूरी तरह से मिले तो हरि सिंह को शासन में महत्त्वपूर्ण जगह दी गई.
महाराज प्रताप सिंह के तहत एक प्रशासक के रूप में हरि सिंह का प्रदर्शन असाधारण था. अपनी कुशलता से उन्होंने राज्य पर मँडरा रहे अकाल को टाला. डोगरा वंश के पहले आधुनिक शिक्षित हरि सिंह न तो सांप्रदायिक थे और न ही रूढ़िवादी.
15 अगस्त 1947 को जब भारत आज़ाद हुआ तो उसके साथ पाकिस्तान और जम्मू-कश्मीर भी आज़ाद हो गए. अब हरि सिंह को अँग्रेज़ों नहीं, भारत और पाकिस्तान से डील करना था. उन्होंने एक रास्ता निकाला ‘स्टैंडस्टिल समझौते’ का, यानी जो जैसा है, वैसा बना रहे.
जिन्ना के लिए मुस्लिम-बहुल कश्मीर का पाकिस्तान में विलय प्रतिष्ठा का सवाल था. ‘स्टैंड स्टिल’ समझौते का फ़ायदा उठाकर पहले नाकाबंदी की गई और फिर क़बायलियों की आड़ में पाकिस्तानी सेना भेज दी गई जिनका मक़सद कश्मीर पर क़ब्ज़ा करना था.
सैन्य प्रशिक्षित महाराजा युद्ध से पीछे नहीं हटे लेकिन जल्द ही समझ गए कि कश्मीर की सीमित सेना से पाकिस्तान का मुक़ाबला करना संभव नहीं है. अब दो ही रास्ते थे उनके पास- भारत से सहायता की माँग या फिर पाकिस्तान के समक्ष समर्पण.
भारत बिना विलय के सहायता भेजने को राज़ी नहीं था तो 26 अक्टूबर 1947 को दो महीने की आज़ादी के महाराजा हरि सिंह ने आखिरकार भारत के साथ विलयपत्र पर हस्ताक्षर कर ही दिया और आज़ाद डोगरिस्तान का उनका स्वप्न हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गया.
डोगरा वंश के आखिरी शासक का यह कश्मीर में आखिरी दिन था. 26 अक्टूबर को वह श्रीनगर से जम्मू आ गए . अपने साथ वह 48 मिलेट्री ट्रकों में अपने सारे क़ीमती सामान ले आए जिसमें हीरे-जवाहरात से लेकर पेंटिंग्स और कालीन-गलीचे सब शामिल थे.
यही नहीं, उस समय जब क़बायली हमले का सामना करने के लिए गाड़ियों की लगातार ज़रूरत थी वह अपने साथ कश्मीर का पेट्रोल का सारा कोटा लेते आए थे.
इस तरह 1846 में गुलाब सिंह के जम्मू से श्रीनगर जाने के साथ हुआ डोगरा वंश का सफ़र इस वापसी के साथ अपने अंतिम पड़ाव पर पहुँच गया. शायद उन्हें एहसास था कि अब लौटकर श्रीनगर में शासक की तरह आना नहीं होगा इसलिए वह अपने साथ परिवार, रिश्तेदारों, धन-संपत्ति और क़ीमती साज़-ओ-सामान लेकर चले थे . वह फिर कभी लौटकर श्रीनगर नहीं गए और जब 20 जून 1949 को उन्हें सत्ता से औपचारिक रूप से बेदख़ल कर दिया गया तो वह बम्बई चले गए जहाँ उनके ढेरों यार-दोस्त और पसंदीदा रेसकोर्स था .
डोगरा राज की समाप्ति और शेख अब्दुल्लाह के नेतृत्व में बनी नई व्यवस्था में राज्य की राजनीति पर घाटी का वर्चस्व दोबारा कायम हो गया, डोगरा समाज के लिए यह अपने प्रभुत्व की समाप्ति जैसा था, भूमि सुधार क़ानून के तहत ज़मीनों का प्राधिकार खो देने के बाद उनके लिए शेख़ अब्दुल्ला से शत्रुता और डोगरा शासन के अच्छे दिनों की यादें ही रह गई थीं.
हरि सिंह के जन्मदिन पर अवकाश की माँग उसी भावना की अभिव्यक्ति है जिसे नए परिसीमन और अनुच्छेद 370 की समाप्ति ने फिर से एक उम्मीद बँधाई है. भारतीय जनता पार्टी और जनसंघ ने जम्मू और घाटी के बीच के इस द्वन्द्व का उपयोग हमेशा से किया है और उसे उम्मीद है कि इस क़दम से वह जम्मू में अपनी पकड़ बनाए रखने में सफल होगी.
अपनी आत्मकथा ‘हेयर एपरेन्ट’ में कर्ण सिंह ने अपने पिता महाराजा हरि सिंह के बारे में एक दिलचस्प टिप्पणी की है जो महाराजा की दुविधाओं को दिखाती है.
कर्ण सिंह लिखते हैं, “उस समय भारत में चार प्रमुख ताक़तें थीं और मेरे पिता के सम्बन्ध उन सबसे दुश्मनी के थे . एक तरफ़ ब्रिटिश थे, लेकिन वे (हरि सिंह) इतने देशभक्त थे कि अंग्रेज़ों से कोई गुप्त सौदेबाज़ी नहीं कर सकते थे. दूसरी तरफ़, कांग्रेस थी जिससे मेरे पिता के बैर की प्रमुख वजह जवाहरलाल नेहरू और शेख़ अब्दुल्ला की क़रीबी थी . फिर मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व वाली इन्डियन मुस्लिम लीग थी. हालाँकि लीग ने रजवाड़ों के निर्णय के अधिकार का समर्थन किया था लेकिन मेरे पिता इतने हिन्दू थे कि लीग के आक्रामक मुस्लिम साम्प्रदायिक रुख को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे, और अंत में शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस थी जिससे मेरे पिता के रिश्ते दशकों से शत्रुतापूर्ण थे क्योंकि वह उन्हें अपनी सत्ता और डोगरा शासन के लिए सबसे बड़ा ख़तरा मानते थे. नतीज़तन, जब फ़ैसले का वक़्त आया तो सभी असरदार ताक़तें उनके विरोध में थीं.”
यही वे ऐतिहासिक परिस्थितियाँ थीं जिनमें हरि सिंह अपनी तमाम प्रगतिशीलताओं के बावजूद इतिहास के नेपथ्य में चले गए और 26 अप्रैल 1961 को बंबई में उनकी लगभग गुमनाम मृत्यु हुई ।